Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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भूत धर्मत्वं अस्तित्वं ” विगेरे ॥ ५॥ . जिनरूप अनंत गणीजे, ते दिव्यज्ञान जा
णीजे रे ॥ मन० ॥ श्रुत ज्ञाने नय पथ लीजे, अनुभव आस्वादन कीजे रे। मन०॥५॥
अर्थ:-जिनेश्वर निर्मल ज्ञानानुयायी अनंत , रमणीय गुणना समूह अनंत धर्म विराजमान छे अप्रतिहत् महान तेजस्वी अखंड एक ज्ञान मूर्ति के, इंद्रिय विषयथी अतीत छे, ज्ञानस्वरूपी ज्ञानगम्य छ, तेथी तेश्रोने रागद्वेष रूप मलीमताथी रहित मात्र शुद्ध दिव्यज्ञानवडे जाणी शकीये माटे जिनेश्वर ते अनंत गुणात्मक अर्थात् जिनेश्वरना अनंत गुणोने शुद्ध नये जाणवू तेज सुंदर अनुपमज्ञान छे ते माटे अनंत गुणात्मक जिनेश्वरने सम्यप्रकारे जाणवा माटे भवसमुद्रमा नौका समान सर्वज्ञ वीतराग प्ररूपित श्रुतज्ञानना प्रसादथी सुनय-स्यावाद मार्ग ग्रहण करीए. अने शुद्ध नये जाणी तस्वरुपना अनुभवनो अानंद पामीए- . भोगवीए. उक्तंच-राग वसंततिलका वृत्तम" नैकान्त संगत दृशा स्वयमेव वस्तु, तत्व