Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
View full book text
________________
बेह
स्वभाव रे ॥ ५० ॥ सकल प्रदेश अमूर्ततारे, ध्यातां सिद्धि उपायरे ॥ ५० ॥ ७ ॥
अबाधित, निरावरण, शुद्ध
अर्थ - अचल, परमात्म पद रमण - अनुभवजन्य आनंदने तथा पोताना ध्रुव अर्थात् पोताना द्रव्य क्षेत्र काल भावे सदा सत् (दव्वं गुण समुदाउ, खित्त' प्रोगाह वट्टा कालो । गुण पज्झाय पवत्ति भावो निवत्थु धम्मो सो) अनंत अन्वय गुणनो पिड तथा निस्संग-सकल परभाव, परिग्रहथी अतीत एवा आत्मभावने तथा अलेशी, अस्पर्शी, अगंधी अवर्णी, अरसी, अक्रोधी, श्रमावी, अमानी,
लोभी, थवेदी आदि अनेक व्यतिरेक गुणना समूहरूप सकल प्रदेश श्रमूर्ति पिंड आत्म द्रव्यने सर्वे परद्रव्पनी सूर्छाथी पोतानी आत्म परिणति वारी पोतानी' आस्म भूमिमां स्थित करो - लीन कपोतानी सर्वे वीर्य शक्ति एकत्र करी एकाग्र चित्ते ध्यातां श्रमूर्त्त परमात्मपदनी सिद्धि थायध्याता ध्येयनी एकता थाय ॥ ७ ॥