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उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥८८२॥
شالية
السفاننا ننلليالينا
भाषांतर अध्य०१६ 11८८२॥
بالاسنان ميانفوندانش
ग्रह रहीत अण कपास मंद कपाय वळी वाळ चणा, कळफी, अडद, विगेरे निःसार अल्प भोजन करवावाळो अर्थात् रसरहित स्वल्प आहार करनारो अथवा कर्म खमाववा अल्पभक्षी होय ते भिक्षु एम हुँ कहुं छु (आम सुधर्मास्वामीए जंबूस्वामीने का) १६ | अहिं भिक्षु लक्षण नामन पंदरम अध्ययन पुरूं थाय हे.
॥ अथ षोडशमध्ययनं प्रारभ्यते ॥
अथ षोडश अध्ययन ब्रह्मचर्य समाधीनुं आरंभाय छे. पंचदशेऽध्ययने हि भिक्षुगुणा उक्ताः, ते भिक्षुगुणा हि ब्रह्मचर्ययुक्तस्य साधोभवंति. अतःषोडशेध्ययने ब्रह्मचर्यस्य समाधिस्थानान्युच्यते
पंचदश अध्ययनमां भिक्षुना गुणो कह्या पण ए भिक्षु गुणो तो ब्रह्मचर्य युक्त साधुओमां होय माटे आ षोडश अध्ययनमा ब्रह्मचर्यनां समाधिस्थानो कहेवाय छे. सुयं मे णाउसंतेणं भगवया एकमक्खायं, इह खलु थेरेहिं भगवंतेहि दस बंभचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता, जे भिक्खू सुच्चा निसम्म संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी सया अप्पमते विहरिज।। [सुधर्मास्वामी जंवूस्वामी प्रति कहे छे. हे आयुष्मन् ! ते भगवान-तीर्थकरे पम भाण्यात कथित छे ते में सांभळ्यं छे। जे-आ जैनशासनमा भगवान् स्थविरोए दश ब्रह्मचर्य समाधिस्थान प्राप्त निरुपित छे; जे [स्थानोने] भिक्षु सांभळी, मनमा निश्चित करी बहु संयमवान्, बहु संवरशीळ तथा बहु समाधियुक्त, तेमज गुप्त अने गुप्तेंद्रिय तथा गुप्त ब्रह्मचये रद्दी सदा विहरे १
تناول الثالث من الفنانات الفالي اله
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