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उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥९२४॥
भाषांतर अध्य०१७
| ॥९२४॥
(पडिलेहेइ०) जे प्रमत्त रही प्रतिलेखन करे छे तथा पादकंबळने ज्यां त्यां नाखी दीये छ वळी प्रतिलेखनामां अनायुक्त-आलस्यवाळो होय ते पापश्रमण एम कहेवाय छे. ९
व्या०-पुनः पापश्रणः स उच्यते, स इति कः ? यो वस्त्रपात्रादिकं निजोपकरण प्रमत्तः सन् प्रतिलेखयति, मनोविना प्रतिलेखयतीत्यर्थः, पुनर्यः पादकंवलं पादपुंछनमथवा पात्रकंबलमपोज्झति, यत्र तत्राऽप्रमार्जितेऽपतिलेखिते स्थले निक्षिपति. अत्र पात्रकंबलग्रहणेन सर्वोपधिग्रहणं कर्तव्यं. पुनर्यःप्रतिलेखनायां स्वकीयसर्वोपधिप्रतिलेखनायामनायुक्त आलस्यभाक् प्रत्युपेक्षोनुपयुक्त इत्यर्थः. एतादृशः पापश्रमणो भवेत् . ॥९॥
बळी पण पापश्रमण तो ते कहेवाय के जे वस्त्र पात्र आदिक पोतानां उपकरणोने प्रमत्त रही मतिलेखन करे-मन विना प्रतिलेखना करे. तथा जे पादकंबळपादपुंछन अथवा पात्रकंबल वगेरेने ज्यां त्यां नाखी दीये अर्थात जे स्थान मार्जित न करेल होय तेम पतिलेखित निरिक्षित पण न होय तेवा स्थानमा फगावी नाखे. अही पात्रकंबल पदथी सर्व उपकरणो ग्रहण समजवा छे, वळी जे प्रतिलेखनामा एटले पोतानां सर्व उपधिनी प्रतिलेखना करवामां अनायुक्त-चीवट वगरनो आलस्ययुक्त रहे अर्थात प्रत्युपेक्षावाळो अनुपयुक्त कहेवाय. एवो पापश्रमण होय छे. ९
पडिलेहेइ पमत्ते । से किंचि हु निसामि वा ॥ गुरुं परिभवई निच्छ । पावसमणित्ति वुचई ॥ १० ॥ (पडिलेहेइ०) प्रमत्त रही प्रतिलेखन करे अने ते वळी कंद सांभळतां सांभळ्तां करे अने गुरुने पराभव-संताप करे ते पापश्रमण एम कहेवाय छे. १०
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