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र
अग०१८
IBE ॥९५०॥
JE वादि वस्तुने जाणनारा यज्ञ-पदार्थज्ञ; कुतीयवादी कुत्सित बोले छे. आ उपरथी आ चार हेतुबडे ३६३ पाखंडियो वस्तुने उत्तराध्य
यथावास्थतरूप नहीं जाणनारा जमतेम पलाप कर छे, ते तमारे जाणवाना छे. ते चार स्थान क्या? क्रिया जीवादि सत्तारूप। पन सूत्र (१), पछी अ.क्रया जीनदि पदार्थोनी नास्तित्वरूपा [२], विनय सर्वेने नमस्कार करवारूप (३). अज्ञान=सर्व पदार्थोर्नु अज्ञान (४), ॥९५०||
आ चार एकांतवाद हावार्थी मिथ्यात्वा जाणवा. तेो भाषण कुत्सित होय छे केमके ते विचारसह होतुं नथी कारण के-सर्वथा
सर्वत्र सत्ता होय ता सर्वत्र जीव हाय, अजावां पण जोव बुद्धि थाय १, वळो जो नास्तित्व माने तो आत्माना नास्तिसने लाधे JE एन प्रमाण बाधितत्व थतां जाव अजीब बेयर्नु नास्तित्व सादृश्य थाय २, सर्वत्र जो विनय कराय तो निर्गुणमां करेला विनय अशुभ
फलदायक थाय, विनय पण जो स्थाने को होय तोज फलदायक थाय तेथी विनय पण एकांतपणे श्रेष्ठ न होय ३, अज्ञान कर मुक्तिसाधनमा कारण जथी, मुक्तिनुं कारण तो ज्ञानज छे; केमके-"आ ग्राह्य छे के आ त्याज्य छे" एका विवेक पण ज्ञाने कराने न साध्य छे. ज्ञान विना पोतार्नु हित पण जाणा शकातुं नयी. तेथी अज्ञान पण श्रेष्ठ नथी. ४, माटे क्रियावादी १, अक्रियावादि २, | विनयवादी ३, अने अज्ञानवादी ४, ए सर्वे एकांतवादी मिथ्यात्वी, कुतोर्थी, कुत्सितभाषो समजवा. आ पाखंडियाना ३६३ भेद
छे; तेमां क्रियावादी १८० प्रकारना छे, अक्रियावादो ८४ प्रकारना, विनयवादो ३२ प्रकारना तथा अज्ञानवादी ६७ मकारना छ. | आ सर्वेनुं कुत्सितभाषित्व मात्र हुँ नथी कहेतो किंतु भगवानना वचनथा वह्यु २३
इइ पाउकरे बुद्धे । नायए परिनिव्वुए ॥ विजाचरणसंपन्ने । सच्चे सच्चपरक्कमे ॥२४॥ [इह०] इति-उक्त प्रकारे बुद्धस्तत्त्वज्ञानी, परिनिर्वृत-शांत स्वभाव, विद्या तथा आचरणथी संपन्न, सत्य तथा सत्य पराक्रमी एवा
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