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भाषांतर अध्य०१६ ॥८८५॥
बहुल तथा समाधिबहुल थइ तेमज गुप्त, गुप्तेंद्रिय तथा गुप्त ब्रह्मचर्य बनी सदा अप्रमत्त रही विहरे. २ उत्तराध्य
व्या०-हे स्वामिन् ! यानि ब्रह्मचर्यस्थानानि भिक्षुः साधुः शब्दतः श्रुत्वा, अर्थतो हृयवधार्य संयमबहुलः संव
रबहुलः सामाधिबहुलो गुप्तो गुप्तेंद्रियो गुप्तब्रह्मचारी सदाऽप्रमादी विचरेत् , तानि खलु निश्चयेन काराणि कानि यन सूत्रम् BEll
ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि तैः स्थविरैर्भगवद्भिर्दश ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि प्रतिपादितानि? यानि भिक्षुः श्रुत्वा निशम्य ॥८८५|
संयमबहुलः संवरबहुलो गुप्तो गुप्तेंद्रियो गुप्तब्रह्मचारी सदाऽप्रमत्ताः सन् विहरेत्. इति जंबुस्वामिनः प्रश्नवाक्यं श्रुत्वा सुधर्मास्वामी प्राह
हे स्वामिन् ! जे ब्रह्मचर्यस्थानाने भिक्षु-साधु शब्दरूपे सांभळी, अर्थथी अवधारण करी संयभवहुल, संवरबहुल तथा समाधि बहुल थाय, तेमन गुप्त, गुप्तेंद्रिय तथा गुप्तब्रह्मचारी बनी सदा अपमादी रही विचरे, ते ब्रह्मचर्य समाधिस्थानो कयां? के जे स्थानो ते भगवान स्थविरोये प्रतिपादित कहेलां छे. आबु जंबूस्वामीनुं प्रश्न वाक्य सांभळीने मुधर्मास्वामी बोल्या
इमे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता. जे भिक्खू सुच्चा निसम्म
संयमबहुले मंवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी सया अप्पमत्ते विहरिजा. ॥४॥ ते आ भगवान् स्थविरोये निश्चये निरुपण करेलां दश ब्रह्मचर्य समाधिस्थान के जेने भिक्षु सांभळी समजी संयमबहुल, संघरबहुल तथा समाधिबहुल थाय तेमज गुप्त, गुप्तेंद्रिय तथा गुप्त ब्रह्मचर्य बनी सदा अप्रमत्त रही विहरे. ३ व्या०-हे जंबू ! इमानि प्रत्यक्षं वक्ष्यमाणानि खलु निश्चयेन तानि स्थविरैर्भगवद्भिर्दश ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि प्रज्ञ
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