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उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥८८७||
भाषांतर अध्य०१६ 11८८७||
शयनासनानां सेवितोपभोक्ता भवेत्. इति वचनं श्रुत्वा शिष्यः प्राह
ते जेवां के-ते जेवां होय छे तेवां निरुपण करुं छु-हे जंबू ! ते निग्रंथ होय ते कोण ? जे विविक्त स्त्री पशु पंडग आदिथी रहित शयन-पाट संथारा बगेरे अर्थात् शयनादिकां स्थानोने से वे कायावडे अनुभवे अन्वयार्थ आवो छे-जे स्त्री पशु पंडग इत्यादिकथी रहित स्थानोने सेवे ते निग्रंथ होय. हवे व्यतिरेकवडे ए अर्थ कहे छे. (जेना होवाथी जे होय ते अन्वय कहेयाय तथा जे न होवाथी जे न होय ते व्यतिरेक कहेवाय.) व्यतिरेक दर्शावे छे-हे जंबू ! ते निग्रंथ न कहेवाय के जे स्त्री पशु पंढग आदिथी | संसक्त स्त्री पशु पंडग वगेरेये सेवेलां शयन आसनादिकने सेवतो उपभोग लेतो होय. ६
म०-तं कहमिति चेत् आयरियाह. मूलार्थ-ते फेम? एम [शका] करे त्यां आचार्य कहे छे. . च्या०-हे स्वामिन् ! तत्पूर्वोक्तं कथं ? केनोत्पत्तिप्रकारेण? इति चेदेवं यदि मन्यसे इति शिष्येण पृष्टव्ये सत्याचार्य आहहे स्वामिन् ! ते तमे पूर्व कपुते केम ? अर्थात् कया उत्पत्ति प्रकारे? आम मानीने शिष्य पूछचानो होय एम धारी आचार्य कहे छे.
निग्गंथस्स खलु इथियपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजिजा, मेयं वा लभेजा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हविजा, केवलिपबत्ताओ धम्माओ भंसेजा, तम्हाखलु नो इत्थिपसुपंडगसंताई सयणासणाई सेवित्ता हवइ से निग्गंथे ।। निश्वये निग्रंथ-साधुने स्त्री, पशु, पंडग आदिके संसक्त-संयुक्त होय एवां शयन तथा आसन सेवता, ब्रह्मचारीने ब्रह्मचर्य विषये शंका थाय अथवा कांक्षा के विचिकित्सा-संशय उपजे, अथवा मेद पामे, के उन्माद-काम परवशताने पामे, अथवा दीर्घकालिक
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