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भाषांतर अध्य०१५ 11८८०॥
BE पुनः कीदृशः ? उपशांतः कषायरहितः स्यात् , स भिक्षुरित्युच्यते ॥१५॥ उत्तराध्य- 6
जे साधु लोकमां विविध प्रकारना वादने जाणीने कोइनो पण अवहेडक-बाधक न थाय; कोइनो पक्षपात न करे. लोकमां यन सूत्रम् घणांय दर्शनो छे ते परस्पर वाद करे छे अने एक बीजानां मतोमां क्षण आपे छे. मुंडा जटाधारिओ साथे, नग्न रहेनारा वस्त्रधारि11८८०॥
योनी साथे, गृहस्थो वनवासियोनी साथे; एम सर्वे पोतपोतानां मतना अभिप्रायवाळां वचनोपन्यासरुप वाद करे छे तेम वाद करे JEपण कोइने बाधा न करे. ए साधु सहित ज्ञान दर्शन चरित्र ए रत्नत्रये सहित बळी खेदानुगत=जेनाथी कर्म खिन्न मंद थाय ते खेद
एटले संयम, तादृश संयमे अनुगत, अर्थात् सप्तदशविध संयममां निरत, वळी कोविदात्माकोविदलब्ध छे शास्त्रनो परमार्थ जेणे एवो के आत्मा जेनो ते कोविदात्मा, तथा माज्ञ=प्रकर्षथी अन्यना करतां अधिकताथी जाणनार=सार बुद्धिमान् तेमज परीषहोने | जीतीने रागद्वेषादि दोषने निवारी सर्व पाणिगणने आत्म सदृश जोवानुं शीळ जेने छे तेवो सर्वदर्शी तथा उपशांत कषाय रहित होय ते भिक्षु कहेवाय. १५
असिप्घजीवि अगिहे अमिते । जिइंदिए सव्वओ विप्पमुके॥
अणुकसाई लहु अप्पभक्खी । चिच्चा गिहं एग चरेस भिक्खु तिबेमि ॥ १६ ॥ जे साधु [असिप्पजीवी] शिल्पवडे भाजीविकानु पोषण करनार न होय तथा [अगिहे] श्री आदिकना परीचयची विरक्त [अमित्ते] JEE मित्र अने शा रहित तथा [जिइ दिए] जितेंद्रिय होय तथा [रावओ] सर्व प्रकारे परिग्रहथी [विप्पमुक्के] विरक्त (अणुकसाइ)
अल्प कषायवाळो (लहुअप्पभक्खी) अल्प भोजन करनार होय तथा [गिह] घरनो [चिच्चा] त्याग करीने जे साधु [एगचरे] विचरे (स भिक्खू) ते भिक्षुक कहेवाय. १६
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