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न्याय के सामाजिक पक्ष को पुष्ट करने हेतु प्रत्येक वर्ण के व्यक्तियों के जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए विभिन्न आश्रमों एवं उनसे सम्बन्धित कर्तव्यों पर बल दिया गया गया है।
वर्ण-सिद्धांत जहां सामाजिक जीवन का हेतु है, वहीं आश्रम-सिद्धांत वैयक्तिक हैं । किन्तु वैयक्तिक होते हुए भी यह सामाजिक न्याय को पुष्ट करता है। श्रमण परम्पराओं में आयु के आधार पर आश्रमों के विभाजन का सिद्धांत उपलब्ध नहीं है । श्रमण परम्पराओं के अनुसार संन्यास आश्रम ही सर्वोच्च है। व्यक्ति को जब भी वैराग्य उत्पन्न हो जाए तभी इसे ग्रहण कर लेना चाहिए। उनका मत जाबलोपनिषद् के अधिक निकट है, जहां यह कहा गया है कि जब भी वैराग्य उत्पन्न हो जाय प्रव्रज्या ग्रहण कर लेनी चाहिए।"
परवर्ती जैनाचार्यों ने हिन्दू धर्म की आश्रम-व्यवस्था को मान्यता देकर उसे जैन-परम्परा के अनुरूप बनाने का प्रयास किया है। आचार्य जिनसेन (आदिपुराण में) कहते हैं कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षु, ये चारों आश्रम जैन-धर्म के अनुसार उत्तरोत्तर शुद्धि के परिचायक है।" आजकल मनुष्य की आयु १०० वर्ष की नहीं हो पाती। फिर भी यह सिद्धांत इस रूप में उपादेय है कि व्यक्ति अपने जीवन के विभिन्न पड़ावों में लक्ष्य निर्धारित कर उसे व्यवस्थित कर सकता है। जीवन के विभिन्न साध्यों की उपलब्धि के लिए प्रत्येक आश्रम में एक विशेष प्रयत्न होता है। ब्रह्मचर्याश्रम विद्यार्जन हेतु है, गृहस्थाश्रम में अर्थ और काम पुरुषार्थों की सिद्धि हेतु विशेष प्रयत्न होता है तो धर्म पुरुषार्थ की साधना वानप्रस्थाश्रम में और संन्यासाश्रम में मोक्ष पुरुषार्थ की प्राप्ति हेतु विशेष यत्न होता है ।
प्रायः यह माना जाता है कि निवृत्तिप्रधान जैन-दर्शन में मोक्ष ही एकमात्र पुरुषार्थ है । धर्म पुरुषार्थ की स्वीकृति उसके मोक्षानुकूल होने में है। जैन विचारकों ने यह भी कहा है कि अर्थ अनर्थ का मूल है। और सभी काम दुःख उत्पन्न करने वाले हैं। लेकिन अनेकांत से आलोकित जैन-दर्शन में धर्म और मोक्ष के साथ ही अर्थ व काम को भी स्वीकार किया गया है। गौतमकुल क में स्पष्ट कहा गया है कि पिता के द्वारा अर्जित लक्ष्मी निश्चय ही पुत्र के लिए बहन होती है और दूसरों की लक्ष्मी परस्त्री के समान होती है । दोनों का ही भोग वजित है। अतः स्वयं अपने पुरुषार्थ से धन उपार्जन करके ही उसका भोग करना न्यायसंगत है ।* जैनाचार्यों ने विभिन्न वर्ण के लोगों को किन साधनों से धनार्जन करना चाहिए, इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि ब्राह्मणों को मुख (विद्या) से, क्षत्रियों को असि (रक्षण) से, वैश्यों को वाणिज्य से और कर्मशील व्यक्तियों को शिल्पादि कर्म से धनार्जन करना चाहिए।५ वस्तुतः मोक्ष या निर्वाण प्राप्ति में जो अर्थ व काम बाधक हों, वे हेय हैं। न्यायपूर्वक उपार्जित अर्थ और वैवाहिक मर्यादानुकूल काम का जन-दर्शन में समुचित स्थान है। इस प्रकार इंद्रिय-विषयों के भोग का त्याग नहीं वरन् भोगों के प्रति राग-द्वेष की प्रवृत्ति के त्याग पर जैन-दर्शन में बल दिया गया है। खण्ड २३, अंक २
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