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काव्य का निर्दुष्ट लक्षण?
. सुनीता जोशी
काव्य-प्रयोजन की परम्परा अलङ्कार शास्त्र की प्राचीन परम्परा है। सर्वप्रथम विचारक भरतमुनि ने काव्य-प्रयोजन प्रस्तुत करते हुए कहा है
धर्मो धर्मप्रवृतानां कामः कामोपसेविनाम् । निग्रहो दुविनीतानां विनीतानां दमक्रिया ॥ क्लीबानां धाष्टर्यजननमुत्साहः शूरमानिनाम् ।
अबुधानां विबोधश्च वैदुष्यं विदुषामपि ॥' भरतमुनि के पश्चात् काव्य के प्रयोजन की विशद व्याख्या की गयी । आचार्य भामह के अनुसार उत्तम काव्य की रचना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थों तथा संपूर्ण कलाओं में निपुणता, यश तथा आनन्द प्रदान करने वाली होती है। कीर्ति को काव्य का मुख्य प्रयोजन बतलाते हुए भामह ने कुछ श्लोक भी प्रस्तुत किये हैं
उपेयुषामपि दिवं सन्निबन्धविधायिनाम् । आस्त एव निरातङ्क कान्तं काव्यमयं वपुः ।। अतोऽभिवाञ्छता कीर्ति स्थेयसीमा भुवः स्थितेः । यत्नो विदितवेद्येन विधेयः काव्यलक्षणः ।
कुकवित्वं पुनः साक्षांमृतिमाहुर्मनीषिणः ।। आचार्य वामन ने काव्य के दो प्रयोजन माने हैं-(१) दृष्ट प्रयोजन अर्थात् 'प्रीति' (२) अदृष्ट प्रयोजन अर्थात् 'कीर्ति ।' 'प्रीति' और 'कीर्ति' पर उन्होंने विशेष जोर दिया है
प्रतिष्ठा काव्यबंधस्य यशसः सरणि विदुः । अकीर्तिवर्तिनीं त्वेवं कुकवित्वविडम्बनाम् ॥ कीर्ति स्वर्गफलामाहुरासंसारं विपश्चितः । अकीर्तिन्तु निरालोकनरकोदेशदूतिकाम् ।। तस्मात् कीर्तिमुपादातुमकीर्तिञ्च व्यपोहितुम् ।
काव्यालंकारसूत्रार्थः प्रसाद्यः कविपुङ्गवः ।। आचार्य रुद्रद ने भी अपने ग्रन्थ 'काव्यालङ्कार' में काव्य के इन्हीं प्रयोजनों का प्रतिपादन किया है।
किन्तु आचार्य कुन्तक ने अपने 'वक्रोतिजीवित' में काव्य के प्रयोजनों का निरूपण
बंड-२३, अंक-२
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