Book Title: Tulsi Prajna 1997 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 64
________________ ६. प्रमत्त संयत गुणस्थान प्रमत्त (प्रमाद या आलस्य से मुक्त) होते हुए भी जो जीव संयम को प्राप्त होते हैं, उन्हें प्रमत्त गुणस्थानवर्ती कहते हैं । इस गुणस्थान में जीव का संयम एक देश न होकर पूर्ण है हिंसादि पांच पापों का यहां त्याग हो जाता है । इस गुणस्थानवी जीव अनन्तानुबंधी, प्रत्याख्यान और अप्रत्याख्यान कषायों को उपशमित कर चुका होता है, परन्तु संज्वलन नामक मन्द कपाय और हास्यादि नौ नोकषाय उदय में होते हैं। इन कषायों को ही प्रमाद कहा जाता है । प्रमाद के रहने से संयम नष्ट नहीं होता है, परन्तु संयम में दोष आ जाता है। इस गुणस्थान में जीव बहुत कम समय के लिए होता है । इसका अल्पतम काल एक समय तथा अधिकतम काल एक मुहूर्त है । इस काल के पश्चात् जीव यदि प्रमाद पर विजय प्राप्त कर ले तो सातवें, अन्यथा पांचवें गुणस्थान में आ जाता है। ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान इस गुणस्थान में जीव में प्रमाद जनित कर्मों (पन्द्रह प्रमादों) का अभाव हो जाता है अर्थात् संज्वलन कषायें तथा नोकषायें समाप्त हो जाती हैं । अप्रमत्तसंयत जीव में यदि किसी कारणवश संक्लेश परिणामों की वृद्धि हो जाये तो वह प्रमत्त गुणस्थान में, और यदि विशुद्ध परिणामों की वृद्धि हो जाये तो वह आगे के 'अपूर्व कारण गुणस्थान' में चला जाता है । परन्तु मृत्यु के समय जीव चतुर्थ गुणस्थान में आ जाता इस गुणस्थान से आगे जीव दो रूपों में कर्मों पर विजय प्राप्त करता है जिसे श्रेणी कहा जाता है । ये हैं उपशम श्रेणी तथा क्षपक श्रेणी । उपशम श्रेणी __इसमें चारित्र मोहनीय कर्म का समूल नाश नहीं होता है बल्कि दमन मात्र होता है । इस श्रेणी से चढ़ता हुआ जीव मात्र ग्यारहवें गुणस्थान तक जाता है तथा फिर वह निश्चित रूप से नीचे गिरता है। क्षपक श्रेणी जब जीव चारित्र मोहनीय कर्म को समूल नष्ट करता हुआ आगे बढ़ता है तब उसे क्षपक श्रेणी वाला कहा जाता है । क्षयक श्रेणी द्वारा आगे बढ़ने वाला जीव अंतिम गुणस्थान तक पहुंच जाता है । ८. अपूर्वकरण गुणस्थान इस गुणस्थान में चारित्र मोह के आवरण दूर हो जाते हैं तथा संज्वलन कषाय शेष रह जाती हैं। अन्य कषायों को उपशम श्रेणी वाला जीव उपशमित कर देता है । तथा क्षपक श्रेणी वाला जीव क्षय (नष्ट) कर देता है । चारित्र मोह के आवरण के के अत्यन्त मन्द हो जाने से आत्मा में एक विशिष्ट प्रकार की अपूर्व शक्ति उत्पन्न हो जाती है, इसीलिए इस गुणस्थान को अपूर्वकरण कहा जाता है । खण्ड २३, अंक २ २२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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