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'सृष्टि' पर एक दृष्टिपात
- प्रतापसिंह
[प्रो० प्रतापसिंह 'तुलसी प्रज्ञा' के सुधी पाठकों के जाने पहचाने लेखक हैं।
वयोवृद्ध प्रोफेसर ने प्रस्तुत आलेख में जैन और जेनेतर-वैदिक दृष्टिकोण से सृष्टि पर एक विहंगम दृष्टिपात किया है। -संपादक]
आध्यात्मिक क्षेत्र में मुख्य रूप से दो ही वर्ग सामने आते हैं-आस्तिक और नास्तिक । एक वे जो वेदान्त सूत्र (१-१-२)-- जन्माद्यस्य यतः के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयं कर्ता एक परमात्मा को मानते हैं। इन्हें आस्तिक कहते हैं । दूसरे वे जो ऐसा नहीं मानते हैं, वे नास्तिक वर्ग में आते हैं। परन्तु मनु महाराज कहते हैं-'नास्तिको वेद निन्दकः' जो वेद की निन्दा करता है वह नास्तिक है। इतने पर भी हमारे सामने दो और रूप-द्वैतवाद और अद्वैतवाद आते हैं। चेतन अद्वैतवाद एक चेतन परमात्मा से चेतन आत्मा और जड़ सष्टि दोनों का जन्म मानता है कि जड़
और चेतन सृष्टि दोनों परमात्मा का अंश है और प्रलय या मोक्ष पर दोनों परमात्मा में विलीन हो जाते हैं । जड़ अद्वैतवाद जड़ व चेतन दोनों का जन्म जड़ से मानता है। किसी विशेष स्थिति या अवस्था में जड़ सृष्टि में रसायनिक प्रक्रिया से चेतन उत्पन्न हो जाता है और किसी विशेष अवस्था में ऐसी रसायनिक प्रक्रिया से चेतन नष्ट हो जाता है तो जड़ ही जड़ रह जाता है। कुछ द्वैतवादी इस सृष्टि को सदा से ऐसी ही चली आ रही मानते हैं। इसका कोई सर्वज्ञ सर्वव्यापी सत्ता-कर्ता परमात्मा नहीं है। यह जड़ चेतन सृष्टि अनादि अनन्त है । इसी वर्ग में जैन समाज आता है। इस प्रकार अनेकों भेद प्रभेद हैं। इनमें एक वैतवादी भी है जो प्रकृति, आत्मा और परमात्मा तीनों को अनादि अनंत स्वतंत्र सत्ताएं मानते हैं । चेतन अद्वतवादी और तवादी दोनों अपने आपको वेदवादी कहते हैं। मैंने अपने इस लेख-सृष्टि पर दृष्टिपात में तवादी और जैन समाज के दृष्टिकोणों को अपने स्वाध्याय के आधार पर स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
जैन दृष्टि में सृष्टि अनादि अनन्त है। सृष्टि सदा से ऐसी ही चली आ रही है और चलती रहेगी। सष्टि का न कभी जन्म हुआ है, न कभी विनाश होगा, सृष्टि शाश्वत है । वैदिक दृष्टि भी वही है परन्तु दृष्टिकोण में अन्तर है । वैदिक दृष्टि सृष्टि का प्रलय, विनाश और अन्त भी मानती है। सृष्टि और प्रलय दोनों को वैदिक दृष्टि सांत एक-एक कल्प की अवधि का मानती है कि सृष्टि के पश्चात् प्रलय, प्रलय के
खंड-२३, अंक-२
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