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इस प्रकार १८ दोषों को नष्ट कर भगवान् अशेष गुणों के निधान बन गए। उनके २४ अतिशय और पंतीस वचनातिशय थे।
नत्थि भवियव्वनासो, जं गोसालो तुमं पि तिजयपहुं।
अक्कोसिय हा हा तुह, पुरो महेसी दहेसीय ॥३९।। होनहार का नाश नहीं होता। त्रिजगत् के प्रभु पर गोशालक ने आक्रोश किया और उनके सामने ही उनके दो साधुओं को भस्म कर दिया।
जत्थ निवसंति संतो, खणं पितं किर कुणंति सुकयत्थं । इय नूणमुसभदत्तं, देवाणं वंचने सि सि ॥४०॥
फिर भी जहां संत निवास करते हैं, सब क्षण एक जैसे नहीं होते। इसीलिए भगवान् की कृपा से ऋषभदत्त और देवनंदा मोक्ष को प्राप्त हुए।
सेणिय निव सिद्धाइय, देवो मायंगजक्खकयसेवा ।
नवतत्तसत्तभंगिं, पयडसि देसूणतोस समा ॥४१॥ राजा श्रेणिक, सिद्धायिकादेवी तथा मातंग यक्ष ने भगवान को नमन किया। भगवान् ने उस समय तक नव तत्त्व तथा सप्तभंगी का तीस वर्ष से कुछ कम (११ पक्ष कम) प्ररूपण किया ।
मज्झिम पावाए हत्थिवाल, भूवालसुक्क सालाए।
पज्जंकठियासाओ वासदसए गए सड्ढे ॥४२॥ भगवान् महावीर मध्यम पाया नगरी में राजा हस्थिपाल की दानशाला में बैठे पे जब भगवान् पाश्र्वनाथ की मुक्ति को २५० वर्ष पूरे हुए।
कत्तिय अमावसाए, गोसे छठेण साइनक्खत्ते ।
एगुच्चिय बावत्तरि, वरसाऊं तं सिवं पत्तो ॥४३॥ कार्तिक अमावस्या को प्रभात समय स्वाति नक्षत्र में जब भगवान् ने षष्ठी तप पूरा किया तो उनकी आयु के ७२ वर्ष पूरे हुए और उन्होंने मोक्ष पाया ।
एवं वोरजिणे सणेसर तुमं, मोहंधविद्धसणं । भव्वं भोरुह बोह सोह जणयं दोसायर च्छेयणं ।। थोउं जं कुसलाणु बंधि कुसलं पत्तो म्हि किंची तओ। जाइज्जा जिण वल्लहो मह सया पायप्पणामो तुह ॥४४॥
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