Book Title: Tulsi Prajna 1997 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी प्रज्ञा _TULSI PRAJNA Jain Vishva Bharati Institute Research Journal अनुसंधान-ौमासिकी पूर्णाङ्क-१०२ संपादक परमेश्वर सोलंकी रुस सारमा भाग-२३, अंक-२: जुलाई-सितम्बर, १९९७ ई. जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनूं-३४१३०६ Jain Vishva-Bharati Institute, Ladnun-341306, , Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी प्रज्ञा : अनुसंधान त्रैमासिकी Tulsi Prajña-Research Quarterly पूर्णाङ्क-१०२ संरक्षक प्रो० भोपालचन्द लोढ़ा कुलपति सम्पादक-मंडल प्रो० दयानन्द भार्गव प्रो. टी. एम. एक ० बच्छराज दूगड़ डॉ० जगतराम भट्टाचार्य डॉ० जे. पी. एन. मिश्रा सम्पादक परमेश्वर सोलंकी 70सार जैन विश्व-भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) ____ लाडनूं ३४१ ३०६ (राज.) भारत Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Vishva-Bharati Institute Research Journal Vol. XXIII July-September, 1997 Editor PARAMESHWAR SOLANKI Articles for Publication must accompany with notes and reference, separate from the main body. No. 2 The views expressed and facts stated in this journal are those of the writers. It is not necessary that the INSTITUTE agree with them. Editorial enquiries may be addressed to: The Editor, Tulst Prajñā, JVBI Research Journal, Ladnun-341 306 (INDIA). Copyright of Articles, etc, published in this journal is reserved. Rs. 20/ Life Membership Rs. 600/ Annual Subs. Rs. 60/Published by Dr. Parmeshwar Solanki for Jain Vishva-bharati Institute Demed University, Ladnun-341 306 and printed by him at Jain Vishva-bharati Press, Ladnun-341 306. Published on 10.11.97 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमुक्रमणिका/Contents १६७-१७० १७१–१७६ १७७-१८४ १८५-१९४ १९५-२०२ २०३-२१० १. संपादकीय--तेरापंथ महापंथ का तीसरा सगावसान परमेश्वर सोलंकी २. पर्यावरण सुरक्षा, जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में भोपालचंद लोढ़ा ३. जैन दर्शन में सामाजिक न्याय निशी सदयात ४. जैन परंपरा में कायोत्सर्ग मुनि धर्मेश ५. तेरापंथ धर्मसंघ में प्राकृत भाषा के पठन-पाठन का संक्षिप्त इतिहास मुनि विमलकुमार ६. रसभेद - एक समीक्षात्मक अध्ययन लज्जा पंत ७. काव्य का निर्दुष्ट लक्षण ? सुनीता जोशी ८. गुणस्थान तथा उनके आरोहण-अवरोहण का क्रम अनिल कुमार जैन ९. 'सष्टि' पर एक दृष्टिपात प्रतापसिंह १०. कालिदास का 'रामगिर' कहां है ? रमाशंकर तिवारी ११. मरुधरा के पेड़-पौधों में स्वरों का निवास जयचंद्र शर्मा १२. 'अहिंसा परमोधर्म' की एक लोककथा मनोहर शर्मा १३. पुस्तक-समीक्षा | प्रकीर्णकम् । १४. श्री जिनवल्लभसूरि प्रणीत 'महावीर चरित' परमेश्वर सोलंकी २११-२२४ २२५–२३४ २३५---२४० २४१-२४४ २४५–२४८ २४९--२५० २५१-२६८ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ English Section 1. Convocation Addess Jagat Singh Mehta 2. Rajasekhara on Role of tradition in the making of a poet Ramprakash Poddar 3. Classification of Jain inscription of Rajasthan Ramvallabh Somani 4. A Critical Edition of the 'Rañ Bshin-Gsumla, Juq Palisgrub-Pa' of Arya Nagarjuna Narendra Kumar Dash 5. The Question of Priority of Ardhamagadhi and Sauraseni Agamas. K. R. Chandra 43-50 51-56 57-66 67-90 91-94 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे लेखक / Contributors १. प्रो० भोपालचन्द लोढ़ा, माननीय कुलपति, जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं-३४१३०६ २. डॉ० निशी सदयात, गौरी ऑटो रीपेयर्स के पास, रातानाडा, जोधपुर - ३४२००१ ३. मुनिश्री धर्मेश, जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं ४. मुनिश्री विमलकुमार, आज्ञानुवर्ती शिष्य, आचार्यश्री महाप्रज्ञ ५. डॉ० लज्जा पंत, मु० हनुमानगढ़, तल्लीताल, नैनीताल (उ. प्र. ) - २६३००२ ६. डॉ० सुनीता जोशी, एच-१४९, हल्दी (ऊधमसिंहनगर ) - २७३१४७ ७. डॉ० अनिलकुमार जैन, १२, शारदाकृपा सोसाइटी, चांदखेड़ा, अहमदाबाद३८२४२४ ८. प्रो० प्रतापसिंह, १२६, सहेलीनगर, उदयपुर (राज० ) - ३१३००१ ९. डॉ० रमाशंकर तिवारी, २०, लक्ष्मणपुरी, फैजाबाद (उ.प्र.) १०. डॉ० जयचंद्र शर्मा, निदेशक, श्री संगीत भारती, रानीबाजार, बीकानेर-३३४००१ ११. डॉ० मनोहर शर्मा, भारती बगीची, रानीबाजार, बीकानेर - २३४००१ १२. डॉ० परमेश्वर सोलंकी, संपादक, तुलसी प्रज्ञा, लाडनू - ३४१३६ 13. Sri Jajat Singh Mehta, Retd. I.F.S, Former Sceretary of External Dffairs to Govt of India, Vidya Bhawan Society Udaipur 313001 14. Pro. Ram Prakash Poddar, Jain Vishva-Bharati Institute, Ladnun - 341306 15. Shri Ram Vallabh Somani, S-3, A / 2 Satya nagar khatipura Road, Jaipur. 16. Dr. Narendra Kumar Dash, Adhyapaka, Dept. of IndoTibetan Studies, Vishva-Bharati Univarsity, Shantiniketan731235. 17. Pro. K. R. Chandra, Hon. Secy, Prakrit Jain Vidya Vikas Fund, 375, Saraswati Nagar, Ahmedabad-380015 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय तेरापंथ का तीसरा सगावसान महाराजा खारवेल की सुप्रसिद्ध हस्थी-गुंफा-शिलालेख की दसवीं पंक्ति के उत्तरार्द्ध में लिखा है- दसमे च वसे कलिंगराजवसाने ततिययुग सगावसाने कलिंगयुवराजनं वासकारं कारापति सतसहसेहि-कि दसवें वर्ष में कलिंगराज-स्थापना के तीसरे युग का सर्गावसान होने पर समारोहपूर्वक राजकुमार वासकार को युवराज पद दिया। हस्थी-गुफा के पास मंचपुरी गंफा में दो लघ लेख हैं--- १. ऐरस महाराजस कलिंगाधिपतिनो महामेघवाहनस कुडेपसिरिनो लेणं। २. कुमारो वसुकस लेणं । -अर्थात् ऐरस महाराजा कलिंगाधिपति महामेघवाहन कुडेपसिरि की गुंफा और कुमार वासुक की गुंफा।। मंचपुरी गुंफा में हो कलिग जिनपूजा का एक दृश्य (काविग) भी है। इस दृश्य में कलिंग जिनपूजा आसन के सामने एक वृद्ध और एक कुमार के चित्रांकन हैं जो संभवतः कुडेपसिरि और कुमार वासुक (दादा-पोते) के हैं क्योंकि वही उक्त दोनों लेख-पंक्तियां खोदी गई हैं। ___ लगता है, वही इतिहास तेरापंथ महासंघ में भी दोहराया गया है। आचार्य भिक्षु, आचार्य जय और आचाय तुलसी के साथ इस महासंघ के भी तीसरे युग का सर्गावसान हो गया और आचार्य महाप्रज्ञ ने मुनि मुदितकुमार को युवाचार्य पद सौंप दिया। तुलसी प्रज्ञा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्चात्य जगत् के प्रसिद्ध दार्शनिक कांट की तरह आचार्य भिक्षु ने यहां विचार और व्यवहार में क्रांति का सूत्रपात किया । आचार्य जय ने उसे शब्द और अर्थ प्रदान किया और विपुल साहित्य रचा जबकि आचार्य तुलसी ने उस मंत्र को साधकर लोकोपकार के अनेकों अभूतपूर्व कार्य कर डाले 1 सचमुच स्वाधीनता के इस स्वर्ण जयंती वर्ष में आचार्य तुलसी के विगत पचास वर्षों की सेवा का मूल्यांकन करें तो वे राष्ट्रीय संत की कोटि में आते हैं और मानव सेवा के प्रति किया उनका कार्य किसी जैनाचार्य की जैन सेवा नहीं विशुद्ध जनसेवा का अतुलनीय कार्य है । पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ० राधाकृष्णन् ने उन्हें देश का विशिष्ट सेवक माना, ज्ञानी जैलसिंह ने उन्हें युगप्रधान का गौरव प्रदान किया और निर्वासित तिब्बती धर्म राजा महामहिम दलाई लामा ने उन्हें वाक्पति का अलंकरण दिया । और भी अनेकों सम्मान आचार्य तुलसी को मिले हैं । वर्तमान में आचार्य महाप्रज्ञ ने सर्वावसान के इस मौके पर महाश्रमण मुदित मुनि को युवाचार्य का पद सौंपा है और जैन विश्व भारती संस्थान को राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय गौरव प्रदान करने के लिए विविधानेक प्रयोजनाएं शुरू की हैं । जीवन विज्ञान, अणुव्रत और प्रेक्षाध्यान के तीन अंगों से बने आधार पर आचार्य महाप्रज्ञ ने जनसेवा की जो अभिनव परियोजनाएं शुरू करने का मानस बनाया है वे निस्संदेह फलीभूत होंगी और तेरापंथ महासंघ वस्तुतः तेरा - जनसाधारण का, मानवमात्र का उत्तरोत्तर कल्याण करता रहेगा । - परमेश्वर सोलंकी खंड २३, अक २ ७ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यावरण-सुरक्षा, जैन-दर्शन के परिप्रेक्ष्य में भोपालचंद लोढा आज सारा संसार पर्यावरण को बचाने के लिये चिन्तित है, क्योंकि यह जीवन का आधार है । सुरक्षित पर्यावरण के लिये जैविक संतुलन- जो प्राकृतिक है व जैविक सहअस्तित्व-जो मानव को अपनाना होता है, आवश्यक है। मनुष्य की एक बहुत बड़ी कमजोरी यह है कि जो उसे आवश्यक लगता है, उसे बचाता है या उसका संग्रह करता है, लेकिन जो कुछ उसे परोक्ष रूप में भी अनावश्यक लगता है, उसके नष्ट होने की उसे चिंता नहीं होती, वरन् उसके नाश का वह मुख्य कारक भी बन जाता है। आज वृक्षों को बचाने का, नये वृक्ष लगाने का वातावरण है । मोटे तौर पर वृक्षों को बचाने की बात स्थूल वातावरण (Macro climate) को बचाने के ध्येय से आम मनुष्य सोचता है, लेकिन वृक्षों के ह्रास के दुष्प्रभाव सिर्फ स्थूल वातावरण के बचाने से भी कहीं ज्यादा विस्तृत हैं । कुछ मोटे उदाहरणों के तौर पर वृक्षों के तनों में कई विशिष्ट प्रकार के जीव, तनों के अन्दर के वातावरण व संरक्षण में रहते हैं। "Endophytic fungi" (कव) उनमें से एक हैं, जिसका ज्ञान अभी हाल ही के वर्षों में हुआ है । ये वृक्षों को कोई हानि नहीं पहुंचाती, लेकिन इनकी उपयोगिता के बारे में अभी हमारी कोई जानकारी नहीं है । इतना अवश्य मालूम है कि इनकी बहुत किस्में हैं । वृक्षों के नष्ट होने के साथ ये कवकें भी और अन्य जीवों के साथ नष्ट होती हैं व इनकी कई दुर्लभ प्रजातियां, हो सकता है, ये पृथ्वी सदा के लिये खो दे। __ आम तौर पर जीवों की वे प्रजातियां, जो बीमारी फैलाती है, विशेषत: उन जीवों व मानवों में जिनकी रक्षा का हमें विशेष ध्यान रहता है, उन बीमारी फैलाने वाली प्रजातियों को आज भी जहरीली दबाओं से नष्ट कर रहे हैं। ऐसा करते समय हम यह कोशिश करते हैं कि इन प्रजातियों को हमेशा के लिये पूर्णतः नष्ट कर दें। ऐसा हम इसलिये करते हैं कि हमने आज तक इनके नुकसान देयी अवगुणों का ही पता लगाया है, लेकिन इनमें भी क्या गुण छिपे हैं, इसका ज्ञान हमें नही है। सच्चाई तो यह है कि इस धरती पर जितने जीव हैं. उनकी जानकारी हमें शायद पांच प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। और उस पांच प्रतिशत के बारे में, जिसकी जानकरी है, वह भी शायद हमें पांच प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। इस संदर्भ में ये ध्यान देने योग्य बात है कि जिसे हम आज अनावश्यक या नुकसानदायक समझ कर नष्ट कर देते हैं, इसमें छुपे गुणों का कल क्या उपयोग हो सकता है, खंड-२३, अंक-२ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम ध्यान नहीं देते । इस संदर्भ में मैं आस्ट्रेलिया के Texus वृक्ष की छाल से कैंसर के नियंत्रण में जिस दवा का अविष्कार अभी हाल ही में हआ है, पर ध्यान दिलाना चाहूंगा । आमतौर पर Texus जिस समूह का वृक्ष है, उसकी उपयोगिता उसकी छाल हटाने के बाद अन्दर की लकड़ी से ही जानी जाती थी। छाल को जलाकर नष्ट कर दिया जाता था। अनुपयोगी वृक्षों की छालों को जलाकर नष्ट करना आम प्रक्रिया रही है, लेकिन आज ऐसी बहुत सी छालों के टुकड़ों को वृक्षों के नीचे मिट्टी में मिला कर, वृक्षों की बीमारियों के नियंत्रण के काम में लिया जाता है। आज करीब-करीब हर वर्ग के कुछ जीवों की उपयोगिता जैसे शैवाल (लीलन, Algae), बैक्टीरिया व अन्य सूक्ष्मजीवियों की विशिष्ट उपयोगिताएं जानी जा रही हैं। जैन दर्शन में हर जीव को बचाने की अवधारणा रही है। आज के युग में ये जैन सिद्धांत विश्व को ज्यादा समझ में आने लगे हैं। मानव ने जब भी प्रकृति को बचाने का सोचा, तो मनुष्य के हित के लिये प्रकृति को बचाने का सोचा, लेकिन मैन दर्शन ने हर जीव को बचाने का सोचा। आज विश्व में धीरे-धीरे अपने आप ज्योंज्यों समझ बढ़ी, हर जीव को बचाने की अवधारणा बन रही है । थोड़ा वृक्षों के काटने से होने वाले नुकसानों की तरफ वापस आयें । मैं आपका ध्यान स्थूल नुकसानों की ओर नहीं दिलाता, क्योंकि आप को इसकी जानकारी है । मैं आपका ध्यान उन वैज्ञानिक तथ्यों पर ले जाना चाहता हूं जिसकी आम जानकारी नहीं है । उदाहरण के लिये वृक्षों के तले कई छोटे, कोमल, छाल में रहने वाले ते हैं व नीचे की जमीन में अनेक मीन में अनेकानेक सूक्ष्मजीव (Micro-organisms) रहते हैं, जो निरंतर धरती पर गिरने वाले पतों, डालियों व अन्य प्रकार के कचरा समझे जाने वाले पदार्थों को अपघटित (Decompose) कर के, उनके मूल तत्व में, जिन से ये बने थे, परिवर्तित कर देते हैं । ये कार्य कोई मामूली नहीं है । जरा सोचिये-इस पृथ्वी पर करोड़ों-करोड़ों वर्षों से पेड़ों के तने डालियां, पते व अन्य स्थूल व सूक्ष्मजीव मर कर गिरते रहे हैं व इस कचरे को प्रकृति ने जिन सूक्ष्मजीवों का भी मैं अभी वर्णन कर रहा था, के द्वारा अगर हटाया न होता, तो इस पृथ्वी पर इतना कचरा होता कि जीवन संभव ही नहीं होता । आप सोचेंगे कि, शहरों में तो मनुष्य सफाई करता है, लेकिन जंगलों में सफाई कौन करता था ? जंगलों की सफाई ये सूक्ष्मजीवी ही करते थे, करते हैं व करते रहेंगे। यदि इन्हें नष्ट न किया जाय । पेड़ों को काट कर धरती को अनावरित व अनाच्छादित कर देने से, धरती सूख जाती हैं व ये सूक्ष्मजीवी मर जाते हैं । ऊपरी नुकसान तो हम देखते हैं, लेकिन इन सूक्ष्मजीवों का नुकसान, जो नज़र नहीं आता, वह बहुत बड़ा है। जैन दर्शन ने हर जीव को बचाने का दर्शन दे कर, इस धरती को बचाने का एक वैज्ञानिक दर्शन दिया। यह आश्चर्य की बात हैं कि आज भारत में जहां जैन दर्शन की उत्पति हुई, वहां स्थूल वृक्षों व उनकी पत्तियों को बचाने पर भी समुचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है। मनुष्य अपने लालच में, ज्यों ही किसी वृक्ष की नई उपयोगिता मालूम पड़ती पौधे तुमसी प्रहा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, इस कदर उस वृक्ष को नष्ट करने में लग जाता है, कि यदि उस पर ध्यान न दिया जाय, तो ऐसे वृक्षों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाये । जैसे यूरोप में, जब से नीम की उपयोगिता का पता लगा, तो वे भारत से इतनी मात्रा में नीम की पत्तियों का आयात कर रहे हैं कि ऐसा लगता है कि भारत में नीम के अस्तित्व को ही खतरा हो गया मनुष्य ने अपने लालच से पर्यावरण को असंतुलित कर, कई नई-नई समस्याएं खड़ी कर ली हैं। आज जंगल खाली हो रहे हैं और वह लाखों-करोड़ों रुपये लगाकर वापस जंगल लगाने की कोशिश कर रहा है । लेकिन यह कार्य इतना आसान नहीं है। जंगल में जो वनस्पतियां थीं, वे हजारों-लाखों सालों में प्राकृतिक चुनौतियों को सह कर (Natural Selection से) अनुकूलित हो गई थीं। अब जो नये पेड़ वह लगाता है, वे इतनी आसानी से उस रूप में अनुकूलित नहीं होते हैं व मनुष्य के द्वारा लगाया हुआ जंगल वापस उतनी आसानी से पनपना और भी मुश्किल है। आज हो यही रहा है कि एक ओर तो मनुष्य चोरी-छिपे जंगल काट रहा है, दूसरी ओर जो पर्यावरण को बचाना चाहते हैं वे जंगल लगाने की कोशिश करते हैं । जंगलों को बचाने के लिये, जब तक मनुष्य में हर जीव को बचाने की जागृति पैदा न हो, तब तक जंगलों को वचाना मुश्किल होगा, और उजड़े जंगलों को उनके सूक्ष्म पर्यावरण सहित लगाना व पनपना और भी मुश्किल है। किसी जीव की महत्व और उपयोगिता केवल मनुष्य के लिये नहीं सोची जानी चाहिये । एक जीव आज मनुष्य के लिये अनुपयोगी हो सकता है, लेकिन इस संसार के अनन्त जीवों में से कईयों के लिये उपयोगी भी हो सकता है। हर जीव का सृष्टि में अपना महत्व है, "कौन किसके लिये", इसकी वैज्ञानिक नानकारी अभी तक बहुत सीमित है, लेकिन जैन दर्शन में हर जीव को बचाने का एक जो सिद्धांत दिया है वह पर्यावरण को बचाने का मार्ग प्रशस्त करता है । -प्रोफेसर भोपालचंद लोढा कुलपति, जैन विश्व भारती संस्थान लाडनूं-३४१ ३०६ खंड-२३, अंक-२ १६ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - दर्शन में सामाजिक न्याय [ निशी सदयात समाज में वर्तमान प्रत्येक व्यक्ति के साथ न्याय हो, उसकी योग्यता और गुण के अनुसार उसको पद प्राप्त हो, इस प्रकार का विचार सभी को आकृष्ट करता है । सामाजिक न्याय मानव की शाश्वत खोज रही है । वह आदर्श समाज और आदर्श राज्य की कल्पना का मूल आधार है । लैटिन भाषा के Justilia से निकला अंग्रेजी का Justice अर्थात् न्याय - शब्द का अर्थ है - विवेक के अनुसार आचरण तथा सामाजिक का अर्थ समुदायों में रहने की प्रवृत्ति, यूथचारिता की प्रवृत्ति, सहयोग, श्रम विभाजन, परस्पर संबंधों से प्रभावित होने की प्रवृत्ति है। अतः सामाजिक न्याय, समूह में उचित आचार, विवेकयुक्त व्यवहार, सहयोग, श्रम विभाजन, समन्वय, समानुपातिक वितरण, यथायोग्य व्यवहार अथवा स्वधर्म पालन की सुविधा देता है । प्राचीन यूनानी दार्शनिकों से आधुनिक पाश्चात्य दार्शनिकों ने तथा भारतीय दर्शन के लगभग सभी सम्प्रदायों ने परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक न्याय की स्थापना करने का प्रयास किया है किन्तु जैन दर्शन में सामाजिक न्याय के समस्त पहलुओं का विस्तृत विवेचन करते हुए कई ऐसे सिद्धांत प्रतिपादित किये गये हैं जिनसे विभिन्न प्रकार के वैषम्य या विरोधों का उपशमन हो जाता है । सामाजिक न्याय समाज के आर्थिक, सामाजिक, नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक, शैक्षिक, लैंगिक, वैचारिक, मानसिक इत्यादि समस्त पक्षों से सम्बद्ध है । जैन दर्शन ने न केवल परम्परागत समस्याओं का समाधान किया है वरन् वह वर्तमान युग की समस्याओं के समाधान में भी पूर्णतया सक्षम है। जैन- दर्शन सामाजिक न्याय के आर्थिक पक्ष हेतु अपरिग्रह का सिद्धान्त, सामाजिक पक्ष हेतु वर्णाश्रम, पुरुषार्थ, स्वस्थान इत्यादि, नैतिक पक्ष को सबल बनाने हेतु गुणस्थान के साथ ही समूचा जैन — नीतिशास्त्र और उसके सिद्धांत, धार्मिक क्षेत्र में अणुव्रत और महाव्रत, वैचारिक उदात्तता का सिद्धांत अनेकांतवाद, मानसिक समत्व हेतु अनाशक्ति, वीतरागता और ऐसे अनगिनत सिद्धांत हैं जो पूर्ण रूप से व्यावहारिक भी हैं । इन्हें व्यवहृत करने के पश्चात् हमें सामाजिक न्याय के बारे में अलग से कुछ सोचने की आवश्यकता ही नहीं है। सबसे बढ़कर है जैन-दर्शन का " अहिंसा - विचार", जिस पर ये सारे सिद्धांत और महाव्रत अवलम्बित हैं । खण्ड २३, अंक २ १७१ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा, जैन दर्शन का धुरी सिद्धांत अथवा परममूल्य है। जैन विचारणा में अहिंसा हस्तिपाद की तरह है जिसमें सब कुछ समाहित हो जाता है । जिस प्रकार नदियां सागर में मिलती हैं उसी प्रकार भगवती अहिंसा में सभी धर्मों का समावेश होता है ।" बहिरंग में प्राणियों के इन्द्रिय, बल, आयु स्वासोच्छ्वास रूपी द्रव्य प्राणों को हिंसा से तथा अन्तरंग में राग-द्वेषादि रूप भाव-हिंसा से सर्वथा विरत रहना अहिंसा है । * प्राणी मात्र की रक्षा करना, उनके प्रति मन में भी दुर्भाव न रखना, वचन भी ऐसा कोई न बोलना जिससे किसी का मर्म आहत हो, यह कायिक, मानसिक और वाचिक अहिंसा कही जा सकती है । अनेकांतवाद वैचारिक अहिंसा है। अहिंसा का ही प्रत्यय संचय के संबंध में अपरिग्रह के रूप में उभरता है । अहिंसा का व्याबहारिक रूप अनाग्रह है । वर्णादि के आधार पर भेदभाव कर किसी को ठेस न पहुंचाना भी सामाजिक अहिंसा ही है । हमारे सामाजिक जीवन में वर्णाश्रम व्यवस्था एक क्रमबद्धता और नियमितता प्रदान करती है। जैन दर्शन में साधना - मार्ग का प्रवेश द्वार बिना किसी भेदभाव के सभी के लिए खुला है । उसमें धनी निर्धन, छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं है । आचारांग सूत्र में कहा है कि साधना मार्ग का उपदेश सभी के लिए समान है । जो उपदेश एक धनवान या उच्चकुल के व्यक्ति के लिए है, वही उपदेश गरीब या निम्नकुलोत्पन्न व्यक्ति के लिए है ।" जैनाचार्य इस कथन को स्वीकार नहीं करते हैं कि ब्राह्मणों की उत्पति ब्रह्मा मुख से, क्षत्रियों की बाहु से, वैश्यों की जांघ से तथा शूद्रों की पैरों से होती है । उनका तो का कहना है कि सभी मनुष्य, मनुष्य योनि में ही उत्पन्न होते हैं ।" जन्म के आधार पर वर्णव्यवस्था भी जैन दर्शन को स्वीकार्य नहीं है । जन्म से तो सभी मनुष्य समान हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्टत: कहा गया है कि मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय होता है और कर्म से ही वैश्य व शूद्र होता है।' इसके साथ ही जैन विचारणा में वर्ण परिवर्तनीय है एवं श्रेष्ठत्व का आधार वर्ण या व्यवसाय नहीं है । लोक व्यवहार या आजीविका हेतु किये गये कार्य (व्यवसाय) के आधार पर किसी को श्रेष्ठ अथवा हीन नहीं माना जा सकता। इस प्रकार जैनदर्शन चारों वर्णों को स्वीकार करते हुए जन्मना - जातिवाद का निरसन करता है । जन्मना वर्ण- सिद्धांत निःसंदेह सामाजिक वैषम्य को जन्म देता है। स्मृतियों के काल से यह वर्ण-व्यवस्था जन्मना मान ली गई और आज भी इसी वजह से एक वर्ग दूसरे को हेय दृष्टि से देखता है। गीता में भी गुणकर्मविभागानुसार वर्णव्यवस्था स्वीकृत की गई है। यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो ने भी अपने ग्रन्थ Republic में वर्णव्यवस्था के इसी रूप को, कतिपय भिन्न शब्दों के साथ, स्वीकार करते हुए प्रवृतियों व व्यवसायों के आधार पर समाज को विभिन्न वर्गों में विभाजित किया है । वर्णव्यवस्था एक विकसित सामाजिक व्यवस्था है । समाजों में सामाजिक वर्गीकरण मिलता है किन्तु उसका कहीं भी मिलना दुर्लभ है जैसा कि भारतीय वर्णव्यवस्था में मिलता है । सामाजिक विश्व के प्रायः सभी बड़े इतना व्यवस्थित रूप अन्य १७२ तुलसी प्रज्ञा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय के सामाजिक पक्ष को पुष्ट करने हेतु प्रत्येक वर्ण के व्यक्तियों के जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए विभिन्न आश्रमों एवं उनसे सम्बन्धित कर्तव्यों पर बल दिया गया गया है। वर्ण-सिद्धांत जहां सामाजिक जीवन का हेतु है, वहीं आश्रम-सिद्धांत वैयक्तिक हैं । किन्तु वैयक्तिक होते हुए भी यह सामाजिक न्याय को पुष्ट करता है। श्रमण परम्पराओं में आयु के आधार पर आश्रमों के विभाजन का सिद्धांत उपलब्ध नहीं है । श्रमण परम्पराओं के अनुसार संन्यास आश्रम ही सर्वोच्च है। व्यक्ति को जब भी वैराग्य उत्पन्न हो जाए तभी इसे ग्रहण कर लेना चाहिए। उनका मत जाबलोपनिषद् के अधिक निकट है, जहां यह कहा गया है कि जब भी वैराग्य उत्पन्न हो जाय प्रव्रज्या ग्रहण कर लेनी चाहिए।" परवर्ती जैनाचार्यों ने हिन्दू धर्म की आश्रम-व्यवस्था को मान्यता देकर उसे जैन-परम्परा के अनुरूप बनाने का प्रयास किया है। आचार्य जिनसेन (आदिपुराण में) कहते हैं कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षु, ये चारों आश्रम जैन-धर्म के अनुसार उत्तरोत्तर शुद्धि के परिचायक है।" आजकल मनुष्य की आयु १०० वर्ष की नहीं हो पाती। फिर भी यह सिद्धांत इस रूप में उपादेय है कि व्यक्ति अपने जीवन के विभिन्न पड़ावों में लक्ष्य निर्धारित कर उसे व्यवस्थित कर सकता है। जीवन के विभिन्न साध्यों की उपलब्धि के लिए प्रत्येक आश्रम में एक विशेष प्रयत्न होता है। ब्रह्मचर्याश्रम विद्यार्जन हेतु है, गृहस्थाश्रम में अर्थ और काम पुरुषार्थों की सिद्धि हेतु विशेष प्रयत्न होता है तो धर्म पुरुषार्थ की साधना वानप्रस्थाश्रम में और संन्यासाश्रम में मोक्ष पुरुषार्थ की प्राप्ति हेतु विशेष यत्न होता है । प्रायः यह माना जाता है कि निवृत्तिप्रधान जैन-दर्शन में मोक्ष ही एकमात्र पुरुषार्थ है । धर्म पुरुषार्थ की स्वीकृति उसके मोक्षानुकूल होने में है। जैन विचारकों ने यह भी कहा है कि अर्थ अनर्थ का मूल है। और सभी काम दुःख उत्पन्न करने वाले हैं। लेकिन अनेकांत से आलोकित जैन-दर्शन में धर्म और मोक्ष के साथ ही अर्थ व काम को भी स्वीकार किया गया है। गौतमकुल क में स्पष्ट कहा गया है कि पिता के द्वारा अर्जित लक्ष्मी निश्चय ही पुत्र के लिए बहन होती है और दूसरों की लक्ष्मी परस्त्री के समान होती है । दोनों का ही भोग वजित है। अतः स्वयं अपने पुरुषार्थ से धन उपार्जन करके ही उसका भोग करना न्यायसंगत है ।* जैनाचार्यों ने विभिन्न वर्ण के लोगों को किन साधनों से धनार्जन करना चाहिए, इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि ब्राह्मणों को मुख (विद्या) से, क्षत्रियों को असि (रक्षण) से, वैश्यों को वाणिज्य से और कर्मशील व्यक्तियों को शिल्पादि कर्म से धनार्जन करना चाहिए।५ वस्तुतः मोक्ष या निर्वाण प्राप्ति में जो अर्थ व काम बाधक हों, वे हेय हैं। न्यायपूर्वक उपार्जित अर्थ और वैवाहिक मर्यादानुकूल काम का जन-दर्शन में समुचित स्थान है। इस प्रकार इंद्रिय-विषयों के भोग का त्याग नहीं वरन् भोगों के प्रति राग-द्वेष की प्रवृत्ति के त्याग पर जैन-दर्शन में बल दिया गया है। खण्ड २३, अंक २ १७३ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राग-द्वेष की यह वृत्ति जब जीवन पर केन्द्रित हो तो अपने-पराये के भेद उत्पन्न कर सामाजिक संबंधों में दीवार खड़ी कर देती है। जिसके कारण सामाजिक जीवन में ऊंच-नीच की भावनाओं का निर्माण होता है। यह भावना हिंसा को जन्म देती है। ऐसी दुर्भावनाओं का नाश कर सामाजिक न्याय को परिवद्धित करने हेतु जैन-दर्शन में स्वस्थान के अनुसार कर्तव्य करना उचित माना गया है। प्रतिक्रमणसूत्र में प्रतिक्रमण की व्याख्या करते हुए बतलाया गया है कि यदि साधक प्रमादवश स्वस्थान के कर्तव्यों से च्युत होकर पर-स्थान के कर्तव्यों को अपना लेता है तो पुनः आलोचनापूर्वक पर-स्थान के आचरण को छोड़कर स्वस्थान के कर्तव्यों पर स्थित हो जाना ही प्रतिक्रमण है।" इस प्रकार सर्वप्रथम अपने देश, काल, स्वभाव और शक्ति के आधार पर स्व-स्थान का निश्चय कर उसी के अनुरूप कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। यह विचार गीता के "स्वधर्म" के समान प्रतीत होता है, जहां स्वधर्म में मरण को भी कल्याणकारक माना गया है। पाश्चात्य दार्शनिक ब्रेडले का "मेरा पद और उसके कर्तव्य' का सिद्धांत भी इसी के समकक्ष है। स्व-स्थान की यह अवधारणा वर्णाश्रम और पुरुषार्थ चतुष्टय का आधार है। स्व-स्थान ही अधिकार व कर्तव्यों का स्वामी बनाता है। त्रि-ऋण के रूप में नैतिक कर्तव्यों का वर्णन शतपथ ब्राह्मण में करते हुए कहा है कि मानव देव-ऋण, ऋषि-ऋण पितृ-ऋण से दबा होता है जो क्रमशः यज्ञ, विद्या और पुत्र उत्पन्न करने, समाज-सेवा आदि करने से उतरता है। भगवान् महावीर ने भी माता-पिता, स्वामी (पोषक) और धर्माचार्य का ऋण मानव पर बताया है, किन्तु इन तीनों ऋणों के चुकाने के उपाय में अन्तर है। यहां कहा गया है-यदि इन्हें शुद्ध धर्म साधना की ओर उन्मुख कर दिया जाय तो व्यक्ति इनके ऋणों से मुक्त हो सकता है। इन ऋणों से उऋण होना स्व-स्थान ही है । वस्तुतः जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्व-स्थान महत्त्वपूर्ण है। आर्थिक क्षेत्र में इसी स्वस्थान से च्युत हो जाना आर्थिक वैषम्य को जन्म देता है। जिसके मूल में संग्रह-वृत्ति ही अधिक है। अनेक वस्तुएं हमें प्राणमय जीवन के लिए आवश्यक प्रतीत होती हैं, यही आवश्यकता जब आसक्ति में बदल जाती है तो संग्रह की लालसा बढ़ती जाती है। इसी से सामाजिक जीवन में आर्थिक विषमता का बीज पड़ता है और गरीबी बढ़ती जाती है। असमान वितरण की इस खाई को पाट कर सामाजिक न्याय के आर्थिक पक्ष को सबल बनाने हेतु जैन-दर्शन अपरिग्रह रूपी मन्त्र हमें प्रदान करता है। जिसका सामान्य अर्थ है कि अपनी आवश्यकताओं को न्यूनतम करना एवं उससे अधिक का संचय नहीं करना । साम्यवादियों ने भी व्यक्तिगत परिग्रह को सामाजिक जीवन का अभिशाप माना है। जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित अपरिग्रह-सिद्धांत के मूल में अनासक्ति-प्रधान दृष्टि कार्य कर रही है। अनासक्ति की धारणा को व्यावहारिक रूप देने के लिए गृहस्थ जीवन में परिग्रह-मर्यादा और श्रमण जीवन में समग्र-परिग्रह के त्याग का निर्देश जैन मत में मिलता है। गृहस्थ और श्रमण जीवन में एक ही व्रत का भिन्न रूप सामाजिक न्याय के धार्मिक पक्ष को व्यावहारिक बनाता है । जैनाचार्यों मे विभिन्न व्रतों के पालन में जहां श्रमणों के लिए तुलसी प्रशा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई ढील नहीं है, वहीं श्रावकों या गृहस्थों के लिए उनके सामाजिक दायित्वों को देखते हुए उन्हीं व्रतों को शिथिल कर दिया गया है। यही कारण है कि श्रावकों या गृहस्थों के लिए यह व्रत अणुव्रत, जबकि श्रमणों के लिए महाव्रत कहलाते हैं। यह भेद उनकी योग्यता, देश, काल परिस्थिति आदि को देखकर किया गया प्रतीत होता है। सामाजिक न्याय की यह अवधारणा वैचारिक पक्ष से जुड़ती है तो हमें लगता है कि विभिन्न वाद और उनके कारण उत्पन्न वैचारिक विषमता सामाजिक जीवन का एक बड़ा अभिशाप है। जैन दर्शन अनेकांत के सिद्धांत पर इस वैचारिक विषमता का निराकरण करता है । यह समूचे दार्शनिक जगत् को जैन-दर्शन की मौलिक व असाधा. रण देन है, जिसका अर्थ है कि इस लोक में अनन्त वस्तुएं है और प्रत्येक वस्तु के अनन्त-धर्म है।" वस्तु के एक अंश को ही उसका सम्पूर्ण स्वरूप मान लेना एकांतवाद है, जिसे जनमत भ्रामक मानता है । मनुष्य के विचारों में जो मतभेद नजर आता है वह इसी कारण है कि हम अपने-अपने आंशिक ज्ञान को ही सत्य मानकर अडिग हो जाते हैं । इस आंशिक ज्ञान के कारण ही जगत् में पारस्परिक कलह और अनुदारता दिखाई पड़ती है क्योंकि सभी अपने विवेचन को यथार्थ मान लेते हैं जबकि इस विराट विश्व में प्रतिपल कुछ न कुछ घटित होता रहता है। सापेक्षता का यह ज्ञान दुराग्रहों और पूर्वाग्रहों से मुक्ति दिला सहिष्णुता और समन्वय के शिखर पर प्रतिष्ठित करता है । चिन्तन की यह पद्धति हमारे आचरण में हर एक को समझने की, जानने की उदारता लाती है। यहां समस्त विरोधों का उपशमन हो जाता है। सभी प्रकार के अनावश्यक विरोधों और भेदों का भी उन्मूलन हो जाता है । अनेकांत के साथ ही अनासक्ति अथवा वीतरागता द्वारा मानसिक-समत्व की प्राप्ति की जा सकती है। उत्तराध्ययन सूत्र में वीतरागता को प्राप्त वीतरागी की स्थिति बताते हुए कहा है कि जैसे मेरू पर्वत वायु के झौंकों से प्रकम्पित नहीं होता वैसे ही आत्मनियंत्रित यह वीतरागी विघ्नों को अविचलित रूप से सहता है । यह न सुख में सुखी होता है, न दुःख में दुःखी और इस प्रकार मानसिक समत्व रखते हुए कामक्रोधादि से निलिप्त भी रहता है। गीता में स्थितप्रज, बौद्ध-दर्शन में अर्हत और शांकर-वेदांत में जीवन्मुक्त की स्थिति वीतरागी जैसी ही है। यह व्यक्ति सही अर्थों में सामाजिक-न्याय का पालन करने वाला लोकसंग्राहक होता है । वह गुणस्थान रूपी आत्मिक सोपान पर उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है । इस प्रकार का नैतिक विकास कोई भी कर सकता है। नैतिक पूर्णता प्राप्त करने के लिए मात्र बाह्य परिवेश एवं बाह्याचार ही काफी नहीं है, वरन् इसके लिए अन्तर्जागरणपूर्वक सत्-चर्या के अनुसरण की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार सामाजिक न्याय की स्थापना असंभव तो नहीं है वरन् कठिन अवश्य है क्योंकि इसके लिए आवश्यक है कि हम कथनी व करनी के भेद को समाप्त करें तथा जैनाचार्यों द्वारा सुझाए गए विभिन्न मार्गों और सिद्धान्तों का व्यवहार में पालन करें। • खण्ड २३, अंक २ १७५ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ : 1. The Concise Oxford dictionary, Oxford University Press, 1976, ___ Page-587 2. Oxford dictionary, उद्धृत-समाजदर्शन --डॉ० शर्मा ३. "अहिंसा तस थावर सव्वभूय खेमंकरी।' --प्रश्नव्याकरण सूत्र २।१ ४. डॉ. फूलचन्द जैन : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. ५६ ५. आचारांग सूत्र १।२।६।१०२ ६. यजुर्वेद ३१३१०, ऋग्वेद, पुरुषसूक्त १०।९०।१२ ७. अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग-४, प. १४४१ ८. उत्तराध्ययन-सूत्र २५।३३ ९. गीता ४।१३ १०. जाबलोपनिषद ३३१ ११. आदिपुराण ३९।१५२ १२. मरणसमाधि ६०३ १३. उत्तराध्ययन सूत्र १३।१६ १४. प्राकृत सूक्ति सरोज १११११ १५. प्राकृतसूक्तिसरोज १११७ १६. उद्धृत--पं० सुखलालजी : जैन धर्म का प्राण, पृ. १४२ १७. गीता ३।३५ १८. उद्धृत-प्रो० दयाकृष्ण : पाश्चात्यदर्शन का इतिहास, भाग-२, पृ. १४० १९. ठाणांग, ठाणा ३, सूत्र १३५ २०. आचार्य पूज्यपाद : सर्वार्थसिद्धि ५।३२ २१. उत्तराध्ययन सूत्र २१११९ -डॉ. निशी सदयात गौरी ऑटो रीप्येर्स के पास पुलिस लाईन, मेनगेट रातानाडा, जोधपुर-१ १७६ तुलसी प्रज्ञा Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में कायोत्सर्ग - मुनि धर्मश कायोत्सर्ग शास्त्रीय शब्द है । वर्तमान में इसके लिए शिथिलीकरण, शवासन या रिलेक्सेशन जैसे शब्द प्रयोग में आते हैं। गणाधिपति श्री तुलसी के अनुसार ये शब्द कायोत्सर्ग का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते।' कायोत्सर्ग में काय का शिथिलीकरण तो होता ही है, जागरूकता एवं स्थिरता के साथ शरीर और चैतन्य के भेद का अनुभव भी होता है। इसके प्रथम चरण में कायिक स्थिरता या शिथिलीकरण की अनुभूति होती है एवं इसकी चरम परिणति शरीर और चैतन्य के भेद-बोध में होती है । यह आत्म-बोध की प्रक्रिया है । कायोत्सर्ग दो शब्दों से बना है-काया+उत्सर्ग । काया के तेरह पर्यायवाची शब्द है-काय, शरीर, देह, बोन्दि, चय, उवचय, संघात, उच्छ्य, समुच्छ्य, कलेवर, भस्त्रा, तनु और पाणु ।' उत्सगं के ग्यारह पर्यायवाची शब्द है-उत्सर्ग, व्युत्सर्जन, उज्झन, अवकिरण, छर्दन, विवेक, वर्जन, त्यजन्, उन्मोचना, परिशांतना, शासना।' कायोत्सर्ग का शाब्दिक अर्थ है - काया का त्याग । __ काया का त्याग मृत्यु के समय होता है। मृत्यु के पूर्व इसका त्याग कैसे सम्भव है ? इसका समाधान दो दिशाओं से प्राप्त होता है। काया के स्थान का एक अर्थ है-काया की ऐच्छिक प्रवृत्ति का त्याग एवं दूसरा ममत्व का विसर्जन ।' उत्तराध्ययन के अनुसार काया की चेष्टा का त्याग कायोत्सर्ग है । यह आन्तरिक तप का छठा भेद है। इसे देवसिक रात्रिक आदि प्रतिक्रमण के समय निश्चय प्रमाण एवं काल के लिए किया जाता है। उस समय अर्हतों के गुणों का चिन्तन करते हुए शरीर की प्रवृत्ति का त्याग किया जाता है ।" इसका दूसरा नाम काय-गुप्ति भी है।' शरीर के प्रति ममत्व, आसक्ति, राग भाव आदि के विसर्जन से शरीर का त्याग सिद्ध होता है। अतः ममत्व विसर्जन कायोत्सर्ग है । परिमित काल के लिए ममत्व विसर्जन का अभ्यास करना कायोत्सर्ग है। कर्म बन्धन के दो हेतु हैं-योग (प्रवृत्ति) एवं कषाय (ममत्व)। योगों की स्थिरता एवं कषायों का अल्पीकरण कर्म-मुक्ति का मार्ग है। कायोत्सर्ग उसका साधन है। कायोत्सर्ग योगों की स्थिरता व ममत्व के विसर्जन का अभ्यास है। इससे चैतन्य के प्रति जागरूकता बढ़ती है। चैतन्य का जागरण होता है । आत्म-साक्षात्कार होता है। खण्ड २३, अंक २ १७७ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग:प्रयोजन कायोत्सर्ग करने का उद्देश्य क्या है ? कायोत्सर्ग के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक व आध्यात्मिक स्तर पर अनेक फलित होते हैं। शास्त्रों में अनेक उद्देश्यों से कायोत्सर्ग करने का विधान प्राप्त होता है। दुःख क्षय के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है ।' गमनागमन में लगे पौधों की विशुद्धि के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है ।" उपरोक्त के साथ कर्मों की निर्जरा तथा संवर और तप की वृद्धि के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए । देवसिक आदि अतिचारों को जानने के लिए कायोत्सर्ग करते हैं ।१२ निःसंगत्व, निर्भयत्व, जीविताशा के त्याग के लिए व्युत्सर्ग करते हैं।" चिकित्सार्थ देवता के आह्वान के लिए कायोत्सर्ग का उल्लेख प्राप्त होता है ।" यात्रा आदि गमन के समय अमंगल के निवारणार्थ भी कायोत्सर्ग किया जाता है ।५ प्रतिमा निर्वहन एवं छिन्न-उपसम्पदा की प्राप्ति हेतु प्रस्थान करने से पूर्व कायोत्सर्ग का विधान प्राप्त होता है । प्राचीन सन्दर्भ के अतिरिक्त आधुनिक समय में अनेक नये सन्दर्भ जुड़ गये हैं । तनाव मुक्ति, क्षेत्र कार्य क्षमता का विकास, सृजनशीलता का विकास, मनोकायिक रोगों से मुक्ति, भेद-विज्ञान व आत्म-साक्षात्कार के लिए भी कायोत्सर्ग का अभ्यास किया जाता है। प्रक्रिया कायोत्सर्ग की अनेक प्रक्रियाएं प्राप्त होती हैं। है नई और भी प्रक्रियाओं का विकास किया जा सकता है। आवश्यक सूत्रों में कायोत्सर्ग की निम्न प्रक्रिया बताई गई हैं।" १. कायोत्सर्ग का प्रारम्भ संकल्प से होता है.-"मैं अविकृत आचरण के परिष्कार, प्रायश्चित, नि:शोधन और शल्य विमोचन द्वारा पाप कर्मों को नष्ट करने के लिए कायोत्सर्ग करता हूं।" २. इसका समापन कैसे होगा ? इसकी भी विधि इसी सूत्र में प्राप्त होती है। ___ अर्हत् भगवान् को नमस्कार कर इसे सम्पन्न किया जाता है। कायोत्सर्ग के मध्य क्या करणीय है ? इसकी भी स्पष्ट चर्चा मिलती हैकायोत्सर्ग में करणीय हैं-"अपने शरीर का त्याग ।" अपने शरीर का त्याग कैसे करेंगे ? शरीर को स्थिर कर, वाणी को विराम देकर व मन को ध्यान में लीन कर अपने शरीर का त्याग किया जाता है। क्या शरीर को पूरा स्थिर किया जा सकता है ? शरीर की स्वायत (अनैच्छिक) क्रियाएं उच्छ्वास, निःश्वास, खांसी, छींक, जम्हाई, डकार, अधोवायु, चक्कर, पित्तजनित मूर्छा, शारीरिक मूर्छा, शारीरिक अवयवों का और दृष्टि का सूक्ष्म संचालन आदि को छोड़कर ऐच्छिक क्रियाओं-हाथ-पांव आदि की प्रवृत्तियों का त्याग किया जाता है। १७८ तुलसी प्रज्ञा Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रा कायोत्सर्ग खड़े, बैठे और सोते- इन तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है।" पर प्राचीन काल में खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करने का ही अधिक महत्त्व रहा है । आवश्क नियुक्ति में कहा गया है कि शारीरिक असामर्थ्य के कारण जब तक खड़ा रह सके, तब तक खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करे, तत्पश्चात् बैठकर कायोत्सर्ग करे, इसमें भी असमर्थ हो तो लेटकर कायोत्सर्ग करे । खड़े-खड़े कायोत्सर्ग की मुद्रा में भी स्थिरता को बहुत महत्त्व दिया गया है । आवश्यक नियुक्ति में कहा गया है. --- निक्कूड़े सविसेसं वयाणुरूवं बलाणुरूवं च । खाणुव्व उद्देहो काउस्सग्गं तु ठाइज्जा ॥१५५३।। मुनि माया रहित होकर, विशेष रूप से अपनी अवस्था और बल के अनुरूप खड़े होकर स्थाणु की भांति निष्प्रकंप होकर कायोत्सर्ग करें। खड़े रहने की विधि - कायोत्सर्ग में दोनों पैरों के पंजों के बीच चार अंगुल का अन्तर, समणाद स्थिति, दोनों बाजू लटकते हुए शरीर का प्रत्येक अंग स्थिर-चंचलता रहित होने चाहिए।" कायोत्सर्ग : मुद्रा के दोष शास्त्रों में कायोत्सर्ग के अनेक दोष बताये गये हैं। ये अधिकांशतः खड़े हुए मुद्रा से सम्बन्धित हैं। कायोत्सर्ग के दोष आवश्यक नियुक्ति और योग शास्त्र में २१ मूलाचार और धर्मामृत अनगार में ३२ भगवती आराधना विजयोदया" में १६ तथा प्रवचनरोद्वार में १९ बतलाये गये हैं। कायोत्सर्ग : सावधानियां कायोत्सर्ग हेतु कुछ स्थानों का निषेध भी किया गया है। १. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को दकतीर (नदी के किनारे) पर कायोत्सर्ग कर स्थित होना नहीं कल्पता है।८ २. निर्ग्रन्थों को निर्ग्रन्थियों के उपाश्रय में कायोत्सर्ग कर स्थित होना नहीं __ कल्पता है। ३. निर्ग्रन्थियों को निर्ग्रन्थों के उपाश्रय में कायोत्सर्ग कर स्थित होना नहीं कल्पता है। ४. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को गुहस्थ के अन्त:गृह में कायोत्सर्ग कर स्थित होना नहीं कल्पता है।" कायोत्सर्ग : आवत्ति कायोत्सर्ग दिन-रात में कितनी बार करना चाहिए ? दसर्वकालिक सूत्र" के अनुसर मुनि को बार-बार कायोत्सर्ग करना चाहिए। खण्ड २३, अंक २ १७९ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगति ने एक दिन रात के कायोत्सर्गों की सारी संख्या अट्ठाईस मानी है । २ (१) स्वाध्याय-काल में १२ (२) वन्दना काल में ६ (३) प्रतिक्रमण काल में ८ (४) योग शक्ति काल में २ आवश्यक निर्यक्ति" में इस प्रश्न पर चिन्तन किया गया है कि क्या बार-बार करने से पुनरुक्त दोष नहीं होता ? इसके समाधान में बताया गया है कि स्वाध्याय, ध्यान, तप, औषधि, उपदेश, स्तुतिपद, आज्ञा और संतों के गुण-कीर्तन में पुनरुक्त दोष नहीं होता। कायोत्सर्ग के योग्य दिशा और स्थान भगवती आराधना" में बताया गया है कि पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके अथवा जिन प्रतिमा की तरफ मुख करके कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग सदा एकान्त और अबाधित स्थान में (जहां आवागमन न हो) करना चाहिए। मानसिक, वाचिक एवं कायिक कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग की एक भिन्न प्रक्रिया का उल्लेख भी मिलता है। इसमें शारीरिक, मानसिक व वाचिक कायोत्सर्ग की प्रक्रिया प्राप्त होती है । मानसिक कायोत्सर्गः शरीर में "यह मेरा है"--- इस भावना से अपने आपको निवृत्त करना, मानसिक कायोत्सर्ग है । इसके अन्तर्गत अन्यत्व भावना का प्रयोग किया जाता है.---"आत्मा---भिन्न है, शरीर भिन्न है ।'' अन्नं इमं सरीरं अन्नो जीवृत्ति एव कयबुद्धी । दुक्ख परिकिलेसकरं छिंद ममत्तं सरीराओ ॥१५६६।। शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है। इस प्रकार की बुद्धि का निर्माण कर तूं दुःख और क्लेशकारी शरीर के ममत्व का छेदन कर। वाचिक कायोत्सर्ग "मैं काय का त्याग करता हूं" वचन से इस प्रकार कहना, वाचिक कायोत्सर्ग है। और अन्ततः वाचिक प्रवृत्ति को, भाषा के सूक्ष्म स्पन्दनों को विराम देना वाचिक कायोत्सर्ग है।" कायिक कायोत्सर्ग ___ दोनों हाथों को लटकाकर और दोनों पैरों के मध्य में चार अंगुल का अन्तर डालकर निश्चल खड़ा होकर कायिक कायोत्सर्ग किया जाता है । १८० तुलसी प्रज्ञा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग में ध्यान ध्यान से पूर्व कायोत्सर्ग किया जाता है अर्थात कायिक स्थिरता का प्रयोग किया जाता है । कायिक स्थिरता के पश्चात् कायोत्सर्ग में धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान का प्रयोग किया जाता है।" कायोत्सर्ग में श्वास की स्थिति व्यवहार भाष्य में कहा गया है कि कायिक, वाचिक और मानसिक चेष्टा को स्थगित कर कायिक ध्यान (कायोत्सर्ग) में प्रवृत्त होने पर श्वास सूक्ष्म हो जाता है।" श्वास के सूक्ष्म, शान्त, दीर्घ व लयबद्ध होने पर कायोत्सर्ग घटित होता है । शरीर का परानुकम्पीनाड़ी तंत्र अर्थात् शिथिलीकरण तन्त्र सक्रिय हो जाता है। अतः शास्त्रों में कायोत्सर्ग की विधि के अन्तर्गत दीर्घश्वास का प्रयोग सलक्ष्य प्राप्त होता है । तथा उसके साथ धर्म, ध्यान व शुक्लध्यान का प्रयोग किया जाता है ।" दीर्घश्वास में एक उच्छ्वास का कालमान है-पद्य का एक चरण का स्मरण । इस प्रकार कायोत्सर्ग में काल-प्रमाण जाना जाता है।" पद्यों में कौनसे पद्यों का उच्चारण किया जाए ? इसके समाधान में "चतुर्विशति स्तव" व "नमस्कार महामंत्र" की पूरी विधि प्राप्त होती है। कायोत्सर्ग में श्वास के साथ चतुर्विशतिस्तव का ध्यान चतुर्विशांति स्तव में सात पद्य है । एक पद्य में चार चरण। एक श्वासोच्छ्वास में एक चरण का ध्यान किया जाता है। कायोत्सर्ग काल में सातवें श्लोक के प्रथम चरण "चन्देसु निम्मलमरा" तक ध्यान किया जाता है । इस प्रकार चतुर्विशतिस्तव का ध्यान पच्चीस उच्छ्वासों में सम्पन्न होता है । नमस्कार महामंत्र का ध्यान अमित गति-श्रावकाचार के अनुसार देवसिक कायोत्सर्ग में १०८ तथा रात्रिक कायोत्सर्ग में ५४ उच्छ्वास तक ध्यान किया जाता है और अन्य कायोत्सर्ग में २७ उच्छ्वास तक । २७ उच्छ्वासों में नमस्कार महामंत्र की नौ आवृत्तियां की जाती है । अर्थात् तीन उच्छ्वासों में एक नमस्कार मंत्र पर ध्यान किया जाता है ।" इसके अतिरिक्त कायोत्सर्ग के अन्तर्गत ध्यान में दसवैकालिक सूत्र के अध्ययन के पद्यों का भी उल्लेख प्राप्त होता है ।" इससे यह भी अनुमान निकलता है कि प्राचीनकाल में स्वाध्याय, ध्यान में श्वास के साथ ही रहा होगा। कायोत्सर्ग: अवधि कायोत्सर्ग का उत्कृष्ट कालमान एक वर्ष और न्यूनतम अन्तमुहूर्त है । खण्ड २३, अंक २ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग के लाभ व्यक्तित्व के सभी स्तर प्रमाणित होते हैं । सकारात्मक परिवर्तन परिलक्षित होते हैं । आकलन हुआ है । कायोत्सर्ग की प्रक्रिया अध्यात्म की अत्यन्त शक्तिशाली प्रक्रिया है । इससे शरीर, मन, भाव और चेतना में शास्त्रों में इन परिणामों का बहुत सुन्दर आवश्यक निर्युक्ति के अनुसार कायोत्सर्ग से देह और मति की जड़ता नष्ट होती है । सुख-दुःख को सहने की शक्ति बढ़ती है । अनुप्रेक्षा की भूमिका बनती है । एकाग्रचित्त से शुद्ध ध्यान करने का अवसर मिलता है ।" व्यवहार भाष्य से भी इनकी पुष्टि होती है ।" कायोत्सर्ग करने से कर्म क्षीण होते हैं । *" अनगार धर्मामृत के अनुसार निग्रन्थता की सिद्धि, जीवन की आशा का अन्त, निर्भयता, रागादि दोषों की क्षीणता तथा रत्नत्रय के अभ्यास में तत्परता कायोत्सर्ग के परिणाम है ।" उत्तराध्ययन के अनुसार कायोत्सर्ग से प्रायश्चित्तोचित कार्यों का विशोधन, मानसिक व भावनात्मक हलकापन व प्रशस्त ध्यान में लीनता बढ़ती है । " ५१ व्यवहार भाष्य के अनुसार कायोत्सर्ग से भेद विज्ञान होता है । १ जैसे तलवार म्यान में ही मेरा यह शरीर अलग है, करता है । जह नाम असी कोसे, अण्णो कोसे असी वि खलु अण्णे । इमे अन्नो देहो, अन्नो जीवो त्ति मण्णंति || सन्दर्भ : १. प्रेक्षाध्यान पत्रिका अप्रैल, २. आवश्यक निर्युक्ति १४६० ३. आवश्यक निर्युक्ति १४६५ ४. उत्ताराध्ययन ३० । ३६ ५. मूलाचार २८ ६. नियमसार ७० ७. भगवती आराधना विजयोदया टीका ११८ । १६१ ८. ९. मूलाचार ६७३ १०. ( क ) मूलाचार ६६५ १५२ रहती है, पर तलवार अलग है, म्यान अलग है, वैसे जीव अलग है, कायोत्सर्ग करने वाला ऐसा अनुभव (क) राजवार्तिक ६ | २४|११ (ख) चरित्रसार ५६ ॥३ १९९७ पृ० ४ (ख) धर्मामृत अनगार पृ० ६११ ११. (क) धर्मामृत अनगार ८।१२५ (ख) आवश्यक निर्युक्ति १५६६-१५६६ तुलसी प्रशा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. आवश्यक नियुक्ति १५११ १३. (क) सर्वार्थ सिद्धि ९।२६।८७० (ख) राजवार्तिक ९।२६।१०।९२५ १४. व्यवहार भाष्य १०९८ १५. आवश्यक चूणि २ पृ० २६६,२६७ १६. व्यवहार भाष्य २११४,२११५,२११९ १७. (क) आवश्यक सूत्र ५।३ (ख) मूलाचार ६५५,६५६ १८. (क) योगशास्त्र, प्रकाश ३ पत्र २५० (ख) ओघ नियुक्ति भाष्य १५२ १९ आवश्यक चूणि २ पृ० २५० २०. आवश्यक नियुक्ति १५५५ २१. (क) मूलाचार ६५२ (ख) आवश्यक नियुक्ति १५५९ (ग) भगवती आराधना ११८, विजयोदया टीका १६२ (घ) संगीत समयसार ७।९५ २२. आवश्यक नियुक्ति १५६०,१५६१ २३. योगशास्त्र तीसरा प्रकाश वृत्ति पत्र २५०,२५१ २४. मूलाचार ६७०-६७२ २५. धर्मामृत अनगार ८।११२ २६. भगवती आराधना विजयोदया टीका ११८ पु० १६३ २७. प्रवचन सारोद्वार गाथा २४७-२६२ २८. वृहत्कल्पसूत्र १११९ २९. वृहत्कल्पसूत्र ३।१,२ ३०. वहतकल्पसूत्र ३१२१ ३१. छे० दसवेआलियं १०।१३, चूलिया २७ ३२. अमितगति श्रावकाचार ८६६-६७ ३३. आवश्यक नियुक्ति १५१८ ३४. भगवती आराधना ५५२ ३५. भगवती आराधना ५११ ३६. आवश्यक नियुक्ति १५६६ ३७. प्रेक्षाध्यान में कायोत्सर्ग के अन्तर्गत वाचिक कायोत्सर्ग का प्रयोग किया जाता है और वाणी के स्पन्दनों को शान्त करने के लिए कण्ठ का कायोत्सर्ग किया जाता है । ३८. मूलाचार ६६६ ३९. (क) व्यवहारनय भाष्य १२२ (ख) योगशास्त्र प्रकाश ३ पत्र २५० खंड २३, अंक २ १८३ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. आवश्यक नियुक्ति १५१४ ४१. आवश्यक नियुक्ति १५५३ ४२. योगशास्त्र , प्रकाश ३, पत्र २१५ ४३. (क) धर्मामृत अनगार ९।२२-२४ (ख) अमितगति श्रावकाचार ८।६८,६९ ४४. विशेषावश्यक भाष्य ३१८० टी०ए० ६१ ४५. (क) मूलाचार ६५८ (ख) अनगार धर्मामृत ८।११ ४६. आवश्यक नियुक्ति १४७६ ४७. व्यवहार भाष्य गाथा १२४ टी०पं० ४२ ४८. (क) मूलाचार ६६८ (ख) आवश्यक नियुक्ति १५६५ ४९. धर्मामृत अणगार ७।१०२ ५०. उत्तराध्ययन २८।१३ ५१. व्यवहार भाष्य ४३९९ -मुनिश्री धर्मेश जैन विश्व भारती संस्थान लाडनूं तुलसी प्रज्ञा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ धर्मसंघ में प्राकृत भाषा के पठन-पाठन का संक्षिप्त इतिहास मुनि विमलकुमार आचार्य भिक्षु के जीवन का एक प्रसंग है । कोई विद्वान् उनके पास आया और पूछा- आप संस्कृत जानते हैं ? आचार्य भिक्षु ने कहा- नहीं। तब उसने कहाबिना संस्कृत को जाने आप आगमों का अर्थ कैसे समझ सकते हैं ? आचार्य भिक्षु ने कहा- हम मूल प्राकृत के आधार पर ही आगमों का अर्थ समझ लेते हैं । विद्वान् कहा- ऐसा संभव नहीं हो सकता है। बिना संस्कृत को जाने अर्थ समझना कठिन है । विद्वान् का अत्याग्रह देखकर आचार्य भिक्षु ने अपनी बात को समझाने की दृष्टि से पूछा -- ' कयरे मग्गमक्खाया' इस वाक्य का क्या अर्थ है ? विद्वान् को प्राकृत का ज्ञान नहीं था । उसने अपनी बुद्धि से अर्थ किया कयरे का अर्थ है केर, मग्ग का अर्थ है मूंग और मक्खाया का अर्थ है आखा ( अक्षत) | और आखा । आचार्य भिक्षु ने कहा- आगमों में इसका ऐसा अर्थ नहीं होता । इसका अर्थ है कितने मार्ग बताए हैं ? इस अर्थ को सुनकर विद्वान् समझ गया कि आगमों के अर्थ के लिए प्राकृत भाषा का ज्ञान जरूरी है । अतः इसका अर्थ हुआ केर, मूंग 1 इस घटना से स्पष्ट है कि तेरापंथ में प्राकृत भाषा का पठन-पाठन आचार्य भिक्षु के समय से ही हो रहा है । आचार्य भिक्षु से लेकर आचार्य महाप्रज्ञ तक यह परंपरा अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है । पूर्वाचार्यों का प्राकृत ज्ञान व्याकरण के आधार पर कम भी रहा हो तो भी उसके मूल के हार्द को पकड़ने में उनकी अर्हता सदा ऊर्ध्वमुखी रही । आचार्य भिक्षु ने अपनी कृतियों में आगमिक सन्दर्भों का भरपूर उपयोग किया है | आगम संदर्भों के कारण जहां उनकी प्रामाणिकता होती है वहां उनकी कृतियों में प्रौढ़ और परिपक्व प्राकृत भाषा ज्ञान की भी झलक मिलती है । तेरापंथ के द्वितीय आचार्य श्री भारमलजी के शासनकाल में मुनि जीवोजी ने ग्यारह अंगों पर पद्यबद्ध व्याख्याएं लिखीं । आचार्य भिक्षु के चतुर्थ उत्तराधिकारी जयाचार्य को मुनि अवस्था में मुनि हेमराजजी के पास रहने का अवसर मिला था । मुनि हेमराजजी एक आगम मर्मज्ञ, तत्ववेत्ता संत थे। उनके पास रहकर जयाचार्य ने आगमों के गूढ रहस्य को समझा था । इसलिए जयाचार्य का संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था । अपने प्राकृत ज्ञान के आधार पर ही उन्होंने अनेक खण्ड २३, अंक २ १८५ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-ग्रन्थों की पद्यमय जोड़ रची थी। जिनमें 'भगवती की जोड़' आचारांग की जोड़, निशीथ की जोड़, अनुयोगद्वार की जोड़, पनवणा की जोड़, संजया की जोड़, नियंठा की जोड़ प्रमुख है । इन सब में विशाल ग्रन्थ है भगवती की जोड़। भगवती सूत्र का राजस्थानी भाषा में पद्यानुवाद कोई सरल कार्य नहीं है, पर जयाचार्य ने उसे जिस सहजता से संपादित किया है वह आश्चर्यजनक है । लगभग १६ हजार ग्रन्थान वाले भगवती सूत्र को उन्होंने साठ हजार पद्यों में विश्लेषित कर भगवती सूत्र के मूल प्रतिपाद्य को तो सुबोध बनाया ही, यत्र तत्र आलोच्य विषयों पर छोटी बड़ी समीक्षाएं लिखकर हर विषय को स्पष्ट और संगतिपूर्ण भी बना दिया। जिन तथ्यों के सम्बन्ध में वृत्तिकार के साथ उनकी सहमति नहीं थी, उसका उन्होंने स्पष्ट उल्लेख किया और असहमत पक्ष पर तर्क प्रस्तुत कर अपने मन्तव्य का प्रतिपादन किया है। जयाचार्य के शासनकाल में मुनि गण प्राकृत भाषा में पद्यमय रचना भी करने लगे थे। मुनि कर्मचन्दजी की 'जयत्थुई' नामक लघु काव्यकृति इसकी साक्षी है। इस कृति में मात्र १६ गाथायें हैं किन्तु उसमें शब्द लालित्य, भाषासौष्ठव, अलंकार आदि का सम्यक् निदर्शन होता है। यहां दो गाथायें उद्धृत की जा रही हैं परिसह वाक पुट्ठो मेरुव्व अप्पकंपओ। सुई वा जइ वा दुक्खं सहइ सम चेयसा ॥ सूरो व दित्त तेएणं ससीव सीयलो वि महोदहीव गंभीरो कुत्तियावण सारिसो।। जयाचार्य के उत्तराधिकारी आचार्य मघवा भी प्राकृत भाषा के ज्ञाता थे। तेरापंथ के छ? आचार्य माणकगणी तथा सातवें आचार्य डालगणी के समय में अनेक मुनि आगम विज्ञ बनें । उनका आगम ज्ञान प्राकृत ज्ञान से ही संपुष्ट था। अष्टमाचार्य कालूगणी स्वयं प्राकृत भाषा विशेषज्ञ थे। उन्होंने अपने उत्तराधिकारी आचार्य तुलसी तथा अन्य मुनिजनों को 'प्राकृतलक्षण' नामक प्राकृत व्याकरण का अध्ययन करवाया था। कालगणी की हार्दिक अधिलाषा थी-साधु-साध्वियों में शिक्षा का अत्यधिक प्रसार हो। उन्होंने अपने आचार्यकाल में इस दृष्टि से अत्यधिक श्रम किया। फलस्वरूप अनेक मुनि इस क्षेत्र में अग्रसर हुए। कालूगणी के स्वर्गारोहण के बाद आचार्य तुलसी ने शासन भार संभाला। आचार्य तुलसी संस्कृत और प्राकृत दोनों के मर्मज्ञ थे । इनके शासनकाल में तेरापंथ धर्मसंघ में संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं का अध्ययन-अध्यापन पुरजोर गति से चला। साधु-साध्वियों के अध्ययन के लिए सप्तवर्षीय पाठ्यक्रम बनाया गया जिसके अंतिम तीन वर्षीय पाठ्यक्रम में प्राकृत भाषा का अध्ययन कराया जाता है। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी के उत्तराधिकारी आचार्य महाप्रज्ञ भी संस्कृत और प्राकृत के निष्णात विद्वान् हैं। आगमों के संपादन का संपूर्ण कार्य संस्कृत छाया एवं विस्तृत टिप्पण सहित उनके ही निर्देशन में हो रहा है। १८६ तुलसी प्रज्ञा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठन-पाठन का कार्य विवरण पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी के शासनकाल में तेरापंथ धर्म संघ में प्राकृत भाषा संबंधित जो विशेष कार्य हुआ उसे अध्ययन की दृष्टि से चार भागों में बांटा जा सकता है - (१) आगम संपादन (२) व्याकरण साहित्य (३) कोश निर्माण (४) स्वतंत्र साहित्य निर्माण-(पद्य और गद्य)। १. आगम संपादन गणाधिपति श्री तुलसी के वाचना प्रमुखत्व में जैनागमों के संपादन और अनुवाद का अभिनव उपक्रम प्रारंभ हुआ। यह संपादन कार्य सहज नहीं है। शब्दों के अर्थ में अनेक प्रकार के उत्कर्ष-अपकर्ष आ चुके हैं। देवद्धिगणी द्वारा अपनाई गई आगमों के संक्षेपीकरण की शैली, परंपरा भेद, लिपिगत समस्यायें, मूलपाठ और व्याख्या का सम्मिश्रण, व्याख्या का पाठ रूप में परिवर्तन आदि अनेक कारण ऐसे थे जिनके कारण अनेक नये क्षेपक हो गए। अनेक स्थलों पर पाठों का विलोप हो गया। इन समग्र कठिनाइयों को पार करते हुए आगमों के पाठ संशोधन में लगभग बीस वर्ष लगे। तीस आगमों का संशोधित संस्करण-अंगसुत्ताणि भाग १,२,३, उवंगसुत्ताणि भाग १,२ तथा नवसुत्ताणि के अन्तर्गत-प्रकाशित हो चुका है पाठ संशोधन की योजना में नियुक्ति, भाष्य और चूणि—इन सबका पाठ संशोधन सम्मिलित है। दश नियुक्तियों का (आचारांग नियुक्ति, सूत्रकृतांग नियुक्ति, दशवकालिक नियुक्ति, उत्तराध्ययन नियुक्ति, दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति, पिंड नियुक्ति, व्यवहार नियुक्ति, निशीथ नियुक्ति) पाठ संशोधन का कार्य भी प्रायः पूर्ण हो चुका है । व्यवहार भाष्य भी प्रकाशित हो चुका है । पाठ-संशोधन के अतिरिक्त आगमों का टिप्पण सहित हिन्दी अनुवाद और संपादन का कार्य भी द्रुत गति से चल रहा है। इस दृष्टि से संपादित होकर अब तक जो ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं, वे ये हैं-दसवेआलियं, उत्तरज्झयणाणि भाग १,२, आयारो, सूयगडो भाग १,२, ठाणं, समवाओ, अणुओगद्दाराई, भगवई भाग (अध्ययन १,२)। वर्तमान में भगवई भाग २ (अध्ययन ३ से ७) तथा नन्दी प्रकाशनाधीन है। भगवई के आठवें, नौवें शतक का अनुवाद और टिप्पण भी तैयार हो चुका है। इन आगम ग्रंथों के अतिरिक्त दशवकालिक एक समीक्षात्मक अध्ययन तथा उत्तराध्ययन एक समीक्षात्मक अध्ययन --- ये दो अनुशीलन ग्रंथ भी प्रकाशित हुए हैं । धर्मप्रज्ञप्ति भाग १ (दशवकालिक वर्गीकृत) तथा धर्मप्रज्ञप्ति भाग २ (उत्तराध्ययन वर्गीकृत) भी प्रकाश में आ चुके हैं। इस प्रकार सुधी अध्येताओं के लिये अध्ययन और शोध की पर्याप्त सामग्री उपलब्ध हो चुकी है। खण्ड २३, अंक २ १८७ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. आगम (१) व्यवहार भाष्य आगमों के व्याख्याग्रंथों में 'भाष्य' का दूसरा स्थान है। नियुक्ति की रचना अत्यंत संक्षिप्त शैली में है। उसमें केवल पारिभाषिक शब्दों पर ही विवेचन या चर्चा मिलती है किन्तु भाष्य में मूल आगम तथा नियुक्ति दोनों की विस्तृत व्याख्या की गई है । वैदिक परंपरा में भाष्य लगभग गद्य में लिखा गया लेकिन जैन परंपरा में भाष्य प्रायः पद्यबद्ध मिलते हैं। जिस प्रकार नियुक्ति के रूप में मुख्यत: दस नियुक्तियों के नाम मिलते हैं वैसे ही भाष्य भी दस ग्रन्थों पर लिखे गए, ऐस उल्लेख मिलता है । वे ग्रन्थ हैं -आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, बृहत्कल्प, पंचकल्प, व्यवहार, निशीथ, जीतकल्प, ओघनियुक्ति और पिंडनियुक्ति । ___मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार व्यवहार और निशीथ पर भी बृहद्भाष्य लिखा गया था पर वह आज अनुपलब्ध है। इनमें बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ-इन तीन ग्रंथों के भाष्य गाथा-परिमाण में बृहद् हैं। जीतकल्प, विशेषावश्यक एवं पंचकल्प परिमाण में मध्यम, पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति पर लिखे गये भाष्य ग्रंथाग्र में अल्प तथा दशवकालिक एवं उत्तराध्ययन इन दो ग्रंथों के भाष्य ग्रंथान में अल्पतम हैं। छेदसूत्रों के भाष्यों में व्यवहारभाष्य का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रायश्चित्त निर्धारक ग्रंथ होने पर भी इसमें प्रसंगवश समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति, मनोविज्ञान आदि अनेक विषयों का विवेचन मिलता है। भाष्यकार ने व्यवहार के प्रत्येक सूत्र की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है। बिना भाष्य के केवल व्यवहार सूत्र को पढ़कर उसके अर्थ को हृदयंगम नहीं किया जा सकता। व्यवहार भाष्य एक आकर ग्रंथ है । इसमें कुल ४६९४ गाथाएं हैं। प्रारंभ में भाष्यकार ने पीठिका लिखी है, जिसे आज की भाषा में भूमिका कह सकते हैं। इसमें कुल १८३ गाथाएं हैं। मूल ग्रन्थ दस उद्देशकों में विभक्त है। इसमें अनेक विषयों का प्रतिपादन है। समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने इसका संपादन किया है । मूल ग्रन्थ के साथ-साथ इसमें : ३ परिशिष्ट हैं जो इसके महत्वपूर्ण तथ्यों की ओर संकेत करने वाले हैं। इन परिशिष्टों के माध्यम से शोधार्थी अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त कर सकते हैं। परिशिष्टों का क्रम इस प्रकार है(१) व्यवहार भाष्य गाथानुक्रम (२) नियुक्ति गाथानुक्रम (३) सूत्र से संबंधित भाष्य गाथाओं का क्रम (४) टीका एवं भाष्य की गाथाओं का समीकरण (५) एकार्थक (६) निरुक्त (७) देशी शब्द (८) कथाएं (९) परिभाषायें (१०) उपमा (११) निक्षिप्त शब्द (१२) सूक्त सुभाषित (१३) अन्य ग्रन्थों से तुलना (१४) आयुर्वेद और आरोग्य (१५) कायोत्सर्ग और ध्यान के विकीर्ण तथ्य (१६) दृष्टिवाद के विकीर्ण तथ्य (१७) विशिष्ट विद्यायें (१८) टीका में उद्धृत गाथायें (१९) विशेष नामानुक्रम (२०) वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम (२१) टीका में संकेतित नियुक्ति स्थल (२२) टीका में उद्धृत चूणि के संकेत (२३) वर्गीकृत विषयानुक्रम । १८८ तुलसी प्रज्ञा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) आचारांग भाष्य- ग्यारह अंगों में प्रथम स्थान है आचारांग का । यह आचार का प्रतिपादक सूत्र है इसलिए सब अंगों का सार माना गया है। नियुक्तिकार ने नियुक्ति गाथा १६ में स्वयं जिज्ञासा की - अंगाणं कि सारो ? अंगों का सार क्या ? और इसके उत्तर की भाषा में उन्होंने लिखा है - आयारो, अर्थात् अंगों का सार आचार है । आचारांग के उपलब्ध व्याख्या ग्रन्थों में नियुक्ति, टीका, दीपिका, अवचुरि, बालावबोध, पद्यानुवाद और वार्तिक आदि प्राप्त होते हैं । किन्तु किसी ने आचारांग पर भाष्य नहीं लिखा । गणाधिपति पूज्य गुरुदेव की हार्दिक इच्छा थी कि आचारांग पर भाष्य लिखा जाए। उन्होंने अपने उत्तराधिकारी आचार्य महाप्रज्ञ को आचारांग पर भाष्य लिखने की प्रेरणा दी। गुरुदेव की प्रेरणा पाकर आचार्य महाप्रज्ञ ने आचारांग पर भाष्य लिखा । यद्यपि अब तक लिखे गए दस भाष्यों की भाषा प्राकृत है तथा वे पद्यमय हैं । किन्तु आचार्य महाप्रज्ञ ने संस्कृत में आचारांग भाष्य की रचना की है । इसमें आचारांग के एक-एक सूत्र पर भाष्य लिखा गया है। इसमें अनेक शब्दों, पदों और सूत्रों का सर्वथा नया अर्थ किया गया है। वह अर्थ स्वकल्पित नहीं किन्तु सूत्रगत गहराई में पैठने की सूक्ष्म मेधा से प्राप्त है । आचारांग भाष्य में हिन्दी अनुवाद भी संलग्न है । अतः हर व्यक्ति इसे पढ़कर आचारांग की गहराई को समझ सकता है। इसमें ११ परिशिष्ट हैं । चूर्णि वृत्ति से हटकर (३) गाथा - यह एक संकलन ग्रन्थ है । इसमें विभिन्न आगम ग्रंथ तथा चूर्णियों द्वारा सामग्री संकलित की गई है । इसमें भगवान् महावीर के जीवन प्रसंग, प्रासंगिक घटनायें, उनके द्वारा कही हुई कथाए, दृष्टांत, रूपक आदि सरस और मधुर वृत्तों का समावेश किया गया है । इसलिए यह ग्रंथ केवल विद्वत्भोग्य ही नहीं अपितु यह जन साधारण के लिए उतना ही उपयोगी होगा, जितना एक विद्वान् के लिए। इसके दो खण्ड हैं । प्रथम खण्ड में अठारह अध्याय हैं । जैसे -- समत्व, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग् - चारित्र, ज्ञान प्रक्रिया समन्वय, सृष्टिवाद, कालचक्र, आदिमयुग और समाज परिवेश, धर्मसंघ, जिनशासन, धर्म, वीतराग साधना, विश्वशांति और निःशस्त्रीकरण, आत्मवाद, नयवाद, कर्मवाद, अनेकांतवाद । प्रत्येक विषय को सविस्तार तथा सरस ढंग से प्रस्तुत किया गया है । दूसरे खण्ड में भगवान् महावीर का जीवन है । इसका सम्पादन पूज्य गुरुदेव गणाधिपति श्री तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ के निर्देशन में साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा ने किया है तथा उनकी सहयोगी साध्वियां रही हैं- साध्वी जिनप्रभाजी और साध्वी निर्वाणश्रीजी । गाथा का हिन्दी अनुवाद भी संलग्न है । (४) पाइयसंग हो - यह भी एक संकलन ग्रन्थ है । इसका निर्वाण मुख्यतः विद्यार्थियों की दृष्टि से किया गया है । इस ग्रंथ में १७ पाठ है । वे सभी विभिन्न आगमों से संकलित किए गए हैं। इसमें विद्यार्थियों की सुगमता की दृष्टि से प्रचुर पादटिप्पण दिए गए हैं। खंड २३, अंक २ १८९ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसका आधार टीका और चूणि हैं। विद्यार्थियों के व्याकरण-विषयक ज्ञान को सुदृढ़ बनाने के लिए शब्दों की व्याकरण द्वारा सिद्धि भी की गई है। इस ग्रंथ के संकलक हैं - मुनि विमलकुमार । २. व्याकरण साहित्य तुलसी मञ्जरी (प्राकृत व्याकरण)-गणाधिपति श्री तुलसी के नाम पर आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति है। इसका रचना काल वि० सं० १९८८ है। यह आचार्य हेमचंद्र के प्राकृत व्याकरण की एक वृहत् प्रक्रिया है। अष्टाध्यायी का क्रम विद्यार्थी के लिए सहजगम्य नहीं होता। उसके लिए प्रक्रिया का क्रम अधिक उपयोगी होता है । प्रक्रिया में शब्दों के सिद्धिकारक सूत्र पास-पास मिलने से विद्यार्थी को समझने में सुगमता होती है । उदाहरण स्वरूप प्राकृत का एक शब्द है ‘मरहट्ठ'। इसका संस्कृत रूप है महाराष्ट्र । मरहट्ठ शब्द को सिद्ध करने के लिए आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के दो सूत्र लम्बे व्यवधान पर हैं-१/६९ और २/११९ तुलसी मंजरी में वे दोनों सूत्र पास-पास में हैं । इस कृति में अपेक्षित टिप्पण भी दिए गए हैं। सूत्रों में आगम प्राकृत शब्दों की संस्कृत छाया भी दी गई है। प्रक्रिया की दृष्टि से संधिप्रकरण, स्वरान्त पुल्लिग, स्वरान्त स्त्रीलिंग, स्वरान्त नपुंसक लिंग, युष्मदस्मत् प्रकरण, अव्यय प्रकरण, स्त्रीप्रत्यय प्रकरण, कारक प्रकरण, समास प्रकरण, तद्धित प्रकरण, लिंगानुशासन, गण प्रकरण, भिन्नत प्रकरण, भावकर्म प्रक्रिया प्रकरण, कृदन्त प्रकरण आदि के रूप में सूत्रों का वर्गीकरण किया गया है। तेरापंथ धर्म संघ में इसके माध्यम से प्राकृत भाषा के अध्ययन अध्यापन का क्रम चालू है । इसके सम्पादक हैं- मुनि श्रीचन्दजी 'कमल' । प्राकृत वाक्य रचना बोध आचार्य महाप्रज्ञ की यह दूसरी कृति है। इसमें प्राकृत भाषा का अध्ययन करने की दृष्टि से व्याकरण के अनुरूप वाक्य रचना दी गई है। हिन्दी से प्राकृत और प्राकृत हिन्दी रचना का क्रम दिया है। विभिन्न प्रकार के नए-नए शब्दों और धातुओं का भी यथास्थान बोध कराया गया है। इससे विद्यार्थी की प्राकृत भाषा में प्रवेश सम्बन्धी आने वाली कठिनाइयां स्वत: समाप्त हो जाती हैं। इसमें सात परिशिष्ट हैं । इसके भी सम्पादक हैं-मुनि श्रीचन्द 'कमल' । ३. कोश निर्माण अब तक निम्नलिखित ९ कोश प्रकाशित हो चुके हैं(१) आगम शब्दकोश (२) एकार्थक कोश (३) निरुक्त कोश (४) देशी शब्द कोश (५) आगम वनस्पति कोश १९० तुलसी प्रज्ञा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) लेश्या कोश (७) क्रिया कोश (८) योग कोश (९) श्री भिक्षु आगम विषयक कोश । (१) आगम शब्दकोश इसमें ग्यारह अंगों (आचारांग, सूत्रकृतांग आदि) के शब्द संगृहीत हैं। प्रत्येक शब्द का संस्कृत रूपांतरण और उसके सभी प्रमाण स्थल निर्दिष्ट है। इसमें तत्सम, तद्भव और देशी-तीनों प्रकार के शब्द हैं । ८५० पृष्ठों का यह कोश अंग आगमों में अनुसंधान करने वालों के लिए बहुत उपयोगी है क्योंकि ग्यारह अंगों में एक शब्द कहां-कहां आया है, उसके समस्त संदर्भ-स्थल एक ही स्थान पर प्राप्त हो जाते हैं। विभिन्न आगमों के शब्द-चयन पृथक्-पृथक् मुनियों ने किये और उनका समग्रता से आकलन मुनि श्रीचन्द 'कमल' ने किया। इसका प्रकाशन वर्ष है सन् १९८० । (२) एकार्यक कोश इसमें लगभग १०० ग्रन्थों से एकार्थक शब्दों का संग्रहण किया है। उनमें आगम तथा उनके व्याख्या ग्रंथों के साथ-साथ अंगविज्जा का भी समावेश है। इस कोश में लगभग १७०० एकार्थकों का अर्थ-निर्देश और प्रमाण दिया गया है। सारे शब्द ८००० हैं इसमें धातुओं के एकार्थक भी है। अनेक एकार्थकों के सभी शब्द देशी हैं। उनका भी संकलन किया गया है । इसका सम्पादन समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने सन् १९८४ में किया था। (३) निरुक्तकोश निरुक्त या निर्वचन विद्या बहुत प्राचीन है। प्रस्तुत कोश में अकारादि अनुक्रम से मूल प्राकृत शब्दों का प्राकृत या संस्कृत में निर्वचन प्रस्तुत किया गया है। इसमें मूल में १७५४ शब्दों का निर्वचन है तथा प्रथम परिशिष्ट में कृदन्त व्युत्पन्न २०८ निरुक्त और दूसरे परिशिष्ट में तीर्थंकर अभिधान निरुक्त है। इसमें ७४ ग्रन्थों का समावेश है। साध्वी सिद्धप्रज्ञा और साध्वी निर्वाणश्री ने सन् १९८४ में इसका सम्पादन किया था। (४) देशी शम्द कोश प्रस्तुत कोश में आगम नियुक्ति, भाष्य चूणि और टीका आदि में प्रयुक्त देशी शब्दों का सप्रमाण संकलन है। इसमें दस हजार से अधिक देशी शब्द संगृहीत हैं । आचार्य हेमचन्द्र की देशीनाममाला का इसमें अविकल समावेश किया गया है । इसमें कुछ शब्द कन्नड़, तमिल, मराठी आदि भाषाओं के भी हैं। ४३९ पृष्ठों में अकारादि क्रम से देशी शब्द, उनका अर्थ, सन्दर्भ-स्थल और व्यवहति का उल्लेख है। इसमें खंड २३, अंक २ १९१ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शताधिक ग्रंथों का उपयोग हआ है। इसके दो परिशिष्ट हैं-अवशिष्ट देशी शब्द तथा देशी धातु चयनिका। इसका सम्पादन मुनि दुलहराजजी ने सन् १९८८ में किया था। (५) आगम वनस्पति कोश ---- जैन आगमों में वनस्पतियों के नाम प्रचुरता से प्राप्त हैं। टीका काल में उनकी पहचान विस्मृत-सी हो गई थी। कुछेक वनस्पतियों की पहचान विपरीत अर्थ में की जा रही थी। प्रस्तुत कोश में लगभग ४५० वनस्पतियों का सचित्र प्रस्तुतीकरण और उनकी सप्रमाण विज्ञप्ति मुनि श्रीचन्दजी 'कमल' ने की है। यह जैन आगम वनस्पति का पहला कोश है, जिसमें प्राचीन वनस्पतियों का आधुनिक परिचय प्राप्त होता है । इसका प्रकाशन वर्ष है-सन् १९९६ । (ये पांचों कोश जैन विश्व भारती, लाडनूं से प्रकाशित हैं) (६-८) लेश्याकोश, क्रियाकोश, योगकोश इन तीनों के संपादक हैं—स्व० मोहनलालजी बांठिया तथा श्रीचन्दजी चोरड़िया। संपादक द्वय ने लेश्या, क्रिया और योग के बिखरे संदर्भो को जैन आगम साहित्य से एकत्रित कर उनके सुसंयोजित रूप को लेश्याकोश, क्रियाकोश और योगकोश के रूप में प्रकाशित किया है। सारा विषय उपबिंदुओं में विभक्त है तथा हिन्दी भाषा के अनुवाद से अन्वित है । लेश्याकोश सन् १९६६ में, क्रियाकोश १९६९ में जैन दर्शन समिति, कलकत्ता से प्रकाशित हुए। (९) श्री भिक्षु आगम विषय कोश--- प्रस्तुत कोश में पांच आगम-आवश्यक, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी तथा अनुयोगद्वार और इनके व्याख्या ग्रंथों का समवतार किया गया है। इस लघुकाय समवतार में भी विषयों की विविधता बहुल परिणाम में है। इस कोश में १७५ विषयों का संग्रहण है। तत्वदर्शन, आचार-शास्त्र, इतिहास आदि अनेक दृष्टियों का इसमें समावेश है। प्रस्तुत कोश विश्वकोश की परिकल्पना से निर्मित नहीं है। फिर भी विषय की विविधता और विस्तार की दृष्टि से यह विश्वकोश जैसा बन गया है। इसमें संग्रहित सामग्री पर अनेक कोणों से मीमांसा की जा सकती है । मीमांसा की दृष्टि से यह कोश विशाल आकार ले सकता है । प्रस्तुत कोश में द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग और धर्मकथानुयोग-इन चारों का समावेश है। तीन अनुयोग का संग्रह मूल में है। धर्मकथा का संकेत-संग्रह परिशिष्ट में है। यह कोश जैन दर्शन में गंभीर चिन्तन, अतीन्द्रिय दृष्टि और सूक्ष्म सत्यों की खोज का प्रतिनिधित्व ग्रंथ बन गया है। इस ग्रंथ का संपादन साध्वी विमलप्रज्ञाजी, साध्वी सिद्धप्रज्ञाजी ने मुनि श्री दुलहराजजी तथा डॉ० सत्यरंजन बनर्जी के निर्देशन में किया है। १९२ तुलसी प्रज्ञा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. स्वतंत्र कृतियां यद्यपि प्राकृत भाषा में निबद्ध गद्य, पद्य कृतियों की संख्या अल्प है फिर भी इस दृष्टि से जो साहित्य लिखा गया है वह इस प्रकार है : (१) अत्तकहा यह कृति शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की है जो प्राकृत भाषा में द्वात्रिशिका के रूप में निबद्ध है । इसमें जीवनगत संस्कारों, विचारों, उपदेश आदि का सम्यग् निरूपण हुआ है। इसे एक अनुभव कृति कहा जा सकता है । (२) पाइयपडिबिबो यह कृति मुनि विमलकुमार की है। इसमें तीन चरित्र काव्यों का समावेश है –ललियंगचरियं देवदत्ता और सुबाहुचरियं । यह कृति जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित है । (३) पाइयपच्चूसो - यह कृति भी मुनि विमलकुमार की है। इसमें भी तीन चरित्र काव्यों का समावेश हैं - बंकचूलचरियं, पएसिचरियं और मियापुत्तचरियं । यह भी जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित है । (४) पाइयकहाओ -- यह गद्य कृति साध्वी कंचनकुमारीजी की है। इसमें प्राकृत भाषा में निबद्ध ११६ लघु कथाएं हैं। जो प्राकृत भाषा सीखने वाले विद्यार्थियों के लिए उपयोगी है । इसका सम्पादन जैन विश्व भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) के प्राकृत विभाग के प्रवक्ता डॉ० हरिशंकर पांडेय ने किया है । यह पुस्तक आदर्श साहित्य संघ द्वारा प्रकाशित है । (५) पियंकर कहा मुनि विमलकुमार द्वारा रचित यह गद्य कृति है । इस कृति में उपसगंहर स्तोत्र के अधिष्ठाता राजा प्रियंकर के जीवन-प्रसंगों को प्राकृत भाषा में निबद्ध किया गया है । (६) थूलीभद्दचरियं --- जैन शासन के प्रभावक आचार्य स्थूलिभद्र ने कोशा गणिका के यहां चातुर्मासिक प्रवास करके संयम साधना की थी । प्रस्तुत काव्य में उनके जीवन-चरित्र को रूपायित किया गया है । इसके चार सर्ग हैं । श्लोक संख्या ४१० हैं । इस कृति के रचयिता भी मुनि विमलकुमार हैं । 0 खंड २३, अक २ १९३ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसभेद--एक समीक्षात्मक अध्ययन लज्जा पन्त मम्मट ने नाट्य (दृश्यकाव्य) में आठ तथा श्रव्य काव्य में नौ रस माने "शृङ्गारहास्यकरुणरौद्रवीर भयानकाः । बीभत्साद्भुतसंज्ञो चेत्यष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः ॥" तथा "निर्वेदः स्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रसः।" परन्तु पण्डितराज जगन्नाथ ने श्रव्य एवं दृश्य दोनों काव्यों में नौ रस ही माने हैं। __इन रसों के स्थायी भाव हैं "रतिसिश्च शोकश्च क्रोधोत्साही भयं तथा । जुगुप्सा विस्मयश्चेति स्थायिभावाः प्रकीर्तिताः ॥" उक्त के अतिरिक्त शान्त रस का स्थायीभाव निर्वेद पूर्व में ही वणित किया जा चुका है। व्यभिचारीभाव तैतीस हैं "निर्वेदग्लानिशङ्काख्यास्तथाऽसूयामदश्रमाः । आलस्यं चैव दैन्यं च चिन्तामोहः स्मृतिधृतिः ॥ व्रीडा चपलता हर्ष आवेगो जडता तथा । गर्यो विषाद औत्सुक्यं निद्राऽपस्मार एव च ।। सुप्तं प्रबोधोऽमर्षश्चाप्यवहित्थमथोग्रता । मतिाधिस्तथोन्मादस्तथा मरणमेव च ॥ त्रासश्चैव वितर्कश्च विज्ञेया व्यभिचारिणः । त्रयस्त्रिशदमी भावाः समाख्यातास्तु नामतः ।।" अपुष्ट तथा अनुभयनिष्ठ रति भी व्यभिचारीभाव के भेद हैं । इनके लक्षण तथा उदाहरण पण्डितराज जगन्नाथ तथा शारदातनय ने 'भावप्रकाशन' नामक ग्रन्थ में दिये हैं। आचार्य भरत ने आठ सात्विक भाव माने हैं "सत्वः स्वेदोऽथ रोमाञ्चः स्वरभङ्गोऽथ वेपथुः । वैवर्ण्यमथुप्रलयः इत्यष्टी सात्विकाः स्मृताः ॥" खण्ड २३, अंक २ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः ये रति के कार्य होने के कारण अनुभाव के अन्तर्गत आ जाते हैं । इसीलिए संभवत: मम्मट ने इनका पृथग् निर्देश नहीं किया । स्थायी भाव के विषय में शङ्का होती है कि रत्यादि चित्तवृत्ति विशेष हैं। चित्तवृत्ति स्थिर नहीं रह सकती तो इसे स्थायिभाव क्यों कहते हैं ? यदि इसे वासना रूप से स्थिर मानें तो व्यभिचारी भाव भी वासना रूप से स्थिर रहने के कारण स्थायीभाव कहलायेंगे | अतः सम्पूर्ण प्रबन्ध में स्थिर रहने के कारण रत्यादि को स्थायी कहा गया है । यद्यपि रत्यादि भी एक रूप से सदा स्थिर नहीं रहते तो भी इनकी पुन: पुन: अभिव्यक्ति होती है । इसीलिए इसे स्रक्सूत्रन्याय से स्थायी कहा गया है । इसका लक्षण है "विरुद्धेरविरुद्वैर्वा, भावैविच्छिद्यते न यः । आत्मभावं नयत्याशु स स्थायी लवणाकरः ।। विरं चित्तेऽवतिष्ठन्ते, सम्बन्ध्यन्तेऽनुबन्धिभिः । रसत्वं ये प्रपद्यन्ते, प्रसिद्धाः स्थायिनोऽत्र ते ॥ ११२ व्यभिचारी भावों की पुन: पुन: अभिव्यक्ति नहीं होती वह तो विद्युत् के चमकने के समान चमक कर समाप्त हो जाती है । यथा - जल में बुद्बुद् । स्थायी भावों के लक्षण स्थायि - भावः । शोक - पुत्रादिवियोग - मरणादिजन्मा वैक्लव्याख्याश्चित्तवृत्तिविशेषः शोकः । क्रोध — गुरु बन्धुबधादि - परमापराधजन्मा प्रज्वलनाख्यः क्रोधः । रति -- स्त्रीपुंसयोरन्योन्यालम्बनः प्रेमाख्यश्चित्तवृत्तिविशेषो रतिः उत्साह - परपराक्रम - दानादिस्मृतिजन्मा औन्नत्याख्य उत्साहः । विस्मय - अलौकिक वस्तुदर्शनादिजन्मा विकासाख्यो विस्मयः । हास - वागङ्गादिविकारदर्शनजन्मा विकासाख्यो हासः । भय - व्याघ्रदर्शनादिजन्मा परमानर्थविषयको वैक्लव्याख्यः स भयम् । जुगुप्सा -- कदर्य वस्तु विलोकनजन्मा विचिकित्साख्यश्चित्तवृत्तिविशेषो जुगुप्सा । शान्तरस शांतरस के विषय में आचार्यों में मतभेद हैं । कुछ विद्वान् शांतरस को नहीं मानते इस हेतु प्रमाण देते हैं कि आचार्य भरत ने न तो उसका लक्षण किया है तथा न ही उसके विभावादि का वर्णन किया है । कुछ के मतानुसार शांतरस वस्तुत: है ही नहीं क्योंकि जब से सृष्टि हुई उस (अनादि) काल से ही जीवों के हृदय राग-द्वेष से परिपूर्ण हैं, अतः जब तक उनका उच्छेदन नहीं होगा तब तक शांति का अनुभव होना असम्भव है । १९६ कुछ विद्वान् शांतरस को पृथक् रस न मानकर उसका वीर अन्तर्भाव कर लेते हैं । ये लोग शम को भी नहीं मानते हैं । अथवा वीभत्स रस अस्तु, जो भी मत हो तुलसी प्रज्ञा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंतु नाटक में तो शांतरस कभी नहीं हो सकता क्योंकि इसका स्थायी भाव शम है । हो जाना । जब सभी व्यापार रुक शम का स्वरूप है— सभी व्यापारों का विलय जायेंगे तो शम का अभिनय नहीं हो सकता । कुछ आचार्य 'नागानन्द' नाटक में शम को स्थायीभाव मानकर शांतरस का वर्णन करते हैं, परन्तु वहां जीमूतवाहन का मलयवती में अनुराग तथा विद्याधरों के चक्रवर्ती होने का वर्णन है जो अनुराग रूप होने से वैराग्य के विरुद्ध है । अतः 'नागानन्द' में 'दयावीर' नामक रस है । इसलिए "स्थायीभाव आठ ही हैं" ऐसा कहकर धनञ्जय एवं धनिक शांतरस का नाट्य में सर्वथा निषेध करते हैं जो लोग निर्वेद को स्थायीभाव मानते हैं वह निर्वेद भी स्थायीभाव नहीं हो सकता । । परन्तु आनन्दवर्धन ने अपने पादन श्रव्यकाव्य के लिए किया है तृष्णाक्षय से जो सुख होता है उसकी प्रतीति होती है 'दशरूपकम् - चतुर्थप्रकाश ) ध्वन्यालोकः (तृतीय उद्योत ) में शांतरस का प्रतिइनका कथन है उसका परिपोष ही शांतरस कहलाता है तथा " यच्च काम सुखं लोके यच्च दिव्यं महत् सुखम् । तृष्णाक्षय सुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम् ॥" यदि कहा जाय कि शांत का अनुभव सबको नहीं हो सकता वह मात्र असाधारण महापुरुषों के ही बोध का विषय हो सकता है तो यह कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि किसी रस की सर्वजनवेदता नहीं है । यथा - शृङ्गार ही विरक्त पुरुषों के अनुभव का विषय नहीं बनता । अतः शांत रस है । कुछ विद्वानों के अनुसार यदि शांत का वीर रस में अन्तर्भाव कर दिया जाय तो भी यह उचित नहीं क्योंकि वीर रस में अभिमान होता है तथा शांत में अहंकार का प्रशमन भेद होने पर भी यदि वीर तथा शांत को एक माना जाय तो भिन्न-भिन्न रस मानने की क्या आवश्यकता । इसलिए श्रव्यकाल में शान्तरस होता है । शान्त रस का अभिनय नाट्य में न हो सकने के कारण नाट्य में आठ ही रस माने जाते हैं । काव्य में तो शान्त रस का सहृदयों को अनुभव हो सकता है । इस शान्तरस का स्थायीभाव निर्वेद है । धनञ्जय एवं धनिक शम को शान्तरस का स्थायीभाव मानते हैं । यथा--- 'शमप्रकर्षोनिर्वाच्यो मुदितादेस्तदात्मता ।' रहता है । इतना वीर तथा रौद्र को - ( दशरूपकम्, चतुर्थ परिच्छेद) अर्थात् शान्तरस का स्थायीभाव शम है । यह शम दो प्रकार का होता है१. अविद्या परिहारेणात्मन: चिदानन्दोल्लासः । २. अविद्यावच्छिन्नस्यात्मनः स्थूलसूक्ष्मशरीरपरिहारेण स्वस्वरूपोल्लासः । मम्मट भी शान्तरस का प्रतिपादन श्रव्य काव्य में करते हैं । खण्ड २३, अंक २ १९७ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा - 'निर्वेदस्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रसः । 'अहो वा हारे वा कुसुमशयने वा दृषदि वा, मणौ वा लोष्ठे वा बलवति रिपौ वा सुहृदि वा । तृणे वा स्त्रैणे वा मम समदृशो यान्ति दिवसाः, क्वचित् पुण्यारण्ये शिव शिव शिवेति प्रलपतः ॥ ' अर्थात् सांप और मुक्ताहार में, फूलों की सेज और पत्थर की शिला में (समबुद्धि), मणि तथा ढेले में, बलवान् शत्रु तथा मित्र में, तिनके में अथवा स्त्रियों के समूह में समबुद्धि रखने वाले मेरे दिन किसी पवित्र तपोवन में शिव शिव शिव ऐसा प्रलाप करते हुए व्यतीत होते हैं । , पण्डितराज जगन्नाथ तो अभिनय में भी शान्त रस मानते हैं । इस विषय पर उन्होंने स्वयं शङ्का की है -- शान्त रस का स्थायी भाव शम है । नट में वह असम्भव है | अतः नाट्य में आठ ही रस हैं । यह विचार बुद्धिगम्य नहीं होता क्योंकि यदि नट में शम नहीं है तो उसमें रति भी नहीं होती इसलिए नट में रस की अभिव्यक्ति भी नहीं होती । यदि वह शान्त रस का अभिनय नहीं कर सकता तो शृङ्गार का भी अभिनय नहीं कर सकता क्योंकि उसमें रति भी नहीं होती । इसलिए यह हेतु देना कि नट में शम नहीं अतः शान्त रस नहीं होगा उचित नहीं है । द्वितीय, शङ्का उत्पन्न होती है कि नाट्य में गानाबजाना होता है, यह राग रूप है तो वैराग्य रूप वहां शान्त कैसे रहेगा ? उदाहरण । यह उक्ति भी उचित नहीं है, क्योंकि वैरागियों के समक्ष भी गीत वाद्यादि कार्य-कलाप होते ही हैं । सामान्य विषय शान्त का प्रतिबंधक नहीं है, अन्यथा तीर्थों में जाना, पुण्यारण्यों में भ्रमण करना इत्यादि भी तो विषय हैं, अतः वहां भी शान्ति नहीं प्राप्त हो सकेगी । अतः जो लोग नाट्य में आठ ही रस मानते हैं वे भ्रान्त हैं । वस्तुतः नट को अपने व्यक्तिगत जीवन में रति, अनुभव है । अतः वह उसका प्रकाशन अभिनय में परन्तु शान्त का अर्थात् शम एवं निर्वेद का उसे वह उसका यथार्थ अभिनय भी नहीं कर सकता । सम्भव नहीं । यदि कहें कि शिक्षा तथा अभ्यास से नट शान्त रस का भी अभिनय प्रकाशित कर देगा तो अनुभव के बिना उसमें कृत्रिमता ही रह जायेगी । यथार्थता न होने के कारण सहृदयों के हृदय में विक्षेप उत्पन्न होगा जिससे उन्हें शान्त रस का अनुभव नहीं हो सकेगा । हास, यथार्थ क्रोध, शोक आदि का रूप से कर सकता है । स्वप्न में भी अनुभव नहीं है तो अतः नाट्य में कथमपि शान्त रस प्रश्न होता है कि आठ अथवा नौ ही रस क्यों माने जाते हैं ? परमात्मा आलम्बन विभाव, रामाञ्च, अश्रुपात आदि अनुभाव, हर्षादि सञ्चारी भाव से पुष्ट १९५ तुलसी प्रशा Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा भागवत आदि पुराण श्रवण के समय भगवद् भक्तों द्वारा अनुभव किया जाता हुआ भक्ति रस जिसका भगवद् अनुराग रूप भक्ति स्थायी भाव है उसे रस क्यों नहीं माना गया ? यदि कहें कि यह शान्त के अंतर्गत आ जायेगा तो यह उचित नहीं क्योंकि भक्ति अनुराग रूप है। शान्त वैराग्य रूप है। वस्तुत: भक्ति देवादि विषयक रति है अतः स्थायी भाव न होकर भाव मात्र है। मम्मट ने भी कहा है रतिर्देवा दिविषया व्यभिचारी तथाऽजितः ।। भाव: प्रोक्तः तदाभासा अनौचित्यप्रवत्तिताः ।। -(काव्यप्रकाश, चतुर्थ उल्लास) प्रश्न यह होता है कि कामिनी विषयक रति को ही भाव क्यों न माना जाय तथा देवादि विषयक रति को ही स्थायी भाव क्यों न माना जाय ? इस विषय में भरत आदि मुनियों के वचन ही प्रमाण हैं। इस विषय पर हम अपना स्वतंत्र मत नहीं दे सकते अन्यथा पुत्र विषयक रति भी स्थायी भाव कहलाने लग जायेगी तथा मुनि द्वारा निर्दिष्ट रस की नौ संख्या के भङ्ग हो जाने से सम्पूर्ण सिद्धांत ही आकुल हो जायेगा । अतः भरत मुनियों ने जो शास्त्र में निर्दिष्ट किया वही मान लेना उचित है। इस प्रकार विश्वनाथ द्वारा निर्दिष्ट वात्सल्य रस भी खण्डित हो गया, फलतः वह भाव मात्र ही है । भानुदेव द्वारा स्वीकृत 'रसमञ्जरी' में प्राप्त माया रस का भी निराकरण उक्त आधार पर हो गया। वस्तुतः सनातन गोस्वामी, रूप गोस्वामी तथा जीव गोस्वामी ने 'भक्तिरसामृतसिन्धु' में, चैतन्य महाप्रभु ने 'भक्ति सुधा' में तथा स्वामी करपात्रीजी ने भी 'भक्ति रसार्णव' में भक्ति रस का निर्देश किया है, परन्तु भरतादि आचार्यों ने उसे भावकोटि में रखा है। इसका कारण यह है कि रस दो प्रकार का माना जाता है १. प्राकृत २. अप्राकृत अप्राकृत रस भक्ति है अत: इसमें प्राकृत व्यक्ति आलम्बन विभाव नहीं हो सकता । भरत आदि आचार्यों ने प्राकृत रस का निरूपण किया है, अत: इसमें प्राकृत जन ही आलम्बन होते हैं। इसमें भक्ति रस अप्राकृत होने के कारण नहीं आता इसलिए उसे भाव के अन्तर्गत निहित कर दिया गया है। मम्मट ने शृङ्गार रस के दो भेद किये हैं१. संयोग (सम्भोग) श्रृंगार २. विप्रलम्भ शृंगार संभोग का तात्पर्य प्रेमी तथा प्रेमिका का साथ-साथ रहना ही नहीं है । एक ही शय्या पर रहते हुए भी यदि ईर्ष्या इत्यादि से मान आ जाय तो वह विप्रलम्भ ही कहलायेगा। इसी प्रकार विप्रलम्भ का अर्थ भिन्न-भिन्न स्थान में रहना ही नहीं है । अतः जहां पर दोनों की चित्तवृत्ति 'संयुक्तोऽस्मि' ऐसी बने वहां संयोग तथा जहां पर 'वियुक्तोऽस्मि' इस प्रकार की चित्तवृत्ति बने वहां पर विप्रलम्भ होता है । वण २३, अंक २ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्भोग श्रृगार के अनेक भेद ( यथा परस्पर अवलोकन, आलिङ्गन, अधरपान, परिचुम्बन आदि) होने के कारण उनकी गणना नहीं की जा सकती, अतः इसे एक ही प्रकार का माना गया है। यह नायिकारब्ध तथा नायकारब्ध रूप में दो प्रकार से वर्णित है । विप्रलम्भ शृङ्गार अभिलाप, विरह, ईर्ष्या, प्रवास तथा शाप हेतुक होने के कारण पांच प्रकार का है किंतु पण्डितराज कहते हैं कि विप्रलम्भ के कारण कुछ भी हो पर वास्तविक में 'वियुक्तोऽस्मि' यही बुद्धि होती है । इसलिए विप्रलम्भ में कोई विलक्षणता नहीं आती । अतः कारण भेद से भेद करने का कोई औचित्य नहीं है । बीर रस को मम्मट ने यद्यपि एक ही प्रकार का माना है तथापि अन्य विद्वानों द्वारा इसे चार प्रकार का माना गया है १. दानवीर २. दयावीर ३. युद्धवीर ४. धर्मवीर पण्डितराज कहते हैं कि वस्तुतः जैसे सम्भोग शृङ्गार अनन्त हैं वैसे ही वीर रस भी अनन्त हो सकते हैं । अत: असंख्य होने के कारण इसे भी एक ही प्रकार का मानना उचित है क्योंकि वीर रस के चार भेद तो प्राचीन आचार्यों द्वारा प्रतिपादित किये गये हैं किंतु उनके पृथक् सत्यवीर, पाण्डित्यवीर, क्षमावीर, बलवीर आदि भेद भी किये जा सकते हैं । हास्य रस का भी मम्मट ने एक ही भेद माना है, परन्तु अन्य आचार्य (जिनका मत पण्डितराज ने उद्धृत किया है) हास्य के प्रथमतः दो भेद मानते हैं- १. आत्मस्थ २ परसंस्थ उक्त दो भेदों के पुनः तीन भेद १. उत्तम २०० २. मध्यम ३. अधमा सामाजिकगत होने से छः प्रकार के हो गये । पुनः उत्तम के दो भेद हुए १. स्मित २. हसित । मध्यम हास्य के भी दो भेद हैं १. विहसित २. उपहसित । अधम पुरुषगत हास्य के भी दो भेद हुए - १. अपहसित २. अतिसित । तुलसी प्रशा Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनका लक्षण शाङ्गदेव ने अपने ग्रन्थ 'संगीत रत्नाकर' में किया है। रति, क्रोध, उत्साह, भय, शोक, विस्मय तथा निर्वेद के आलम्बन तथा आश्रय जिस प्रकार भिन्न-भिन्न हैं उसी प्रकार हास्य तथा जुगुप्सा में नहीं। वहां मात्र आलम्बन की ही प्रतीति होती है । अत: आश्रय की प्रतीति के लिए किसी द्रष्टा विशेष पुरुष का आक्षेप किया जाता है। सन्दर्भ : १. काव्यप्रकाश---चतुर्थ उल्लास २. रसगङ्गाधर --- प्रथम आननम् ३. तदैव ४. दशरूपकम् (धनञ्जय) चतुर्थ प्रकाश ५. काव्यप्रकाश-चतुर्थ उल्लास (कारिका ४७) -डॉ० लज्जा पन्त हनुमानगढ़, तल्लीताल नैनीताल (उ०प्र०) २६३००२ खण्ड २३, अंक २ २०१ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य का निर्दुष्ट लक्षण? . सुनीता जोशी काव्य-प्रयोजन की परम्परा अलङ्कार शास्त्र की प्राचीन परम्परा है। सर्वप्रथम विचारक भरतमुनि ने काव्य-प्रयोजन प्रस्तुत करते हुए कहा है धर्मो धर्मप्रवृतानां कामः कामोपसेविनाम् । निग्रहो दुविनीतानां विनीतानां दमक्रिया ॥ क्लीबानां धाष्टर्यजननमुत्साहः शूरमानिनाम् । अबुधानां विबोधश्च वैदुष्यं विदुषामपि ॥' भरतमुनि के पश्चात् काव्य के प्रयोजन की विशद व्याख्या की गयी । आचार्य भामह के अनुसार उत्तम काव्य की रचना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थों तथा संपूर्ण कलाओं में निपुणता, यश तथा आनन्द प्रदान करने वाली होती है। कीर्ति को काव्य का मुख्य प्रयोजन बतलाते हुए भामह ने कुछ श्लोक भी प्रस्तुत किये हैं उपेयुषामपि दिवं सन्निबन्धविधायिनाम् । आस्त एव निरातङ्क कान्तं काव्यमयं वपुः ।। अतोऽभिवाञ्छता कीर्ति स्थेयसीमा भुवः स्थितेः । यत्नो विदितवेद्येन विधेयः काव्यलक्षणः । कुकवित्वं पुनः साक्षांमृतिमाहुर्मनीषिणः ।। आचार्य वामन ने काव्य के दो प्रयोजन माने हैं-(१) दृष्ट प्रयोजन अर्थात् 'प्रीति' (२) अदृष्ट प्रयोजन अर्थात् 'कीर्ति ।' 'प्रीति' और 'कीर्ति' पर उन्होंने विशेष जोर दिया है प्रतिष्ठा काव्यबंधस्य यशसः सरणि विदुः । अकीर्तिवर्तिनीं त्वेवं कुकवित्वविडम्बनाम् ॥ कीर्ति स्वर्गफलामाहुरासंसारं विपश्चितः । अकीर्तिन्तु निरालोकनरकोदेशदूतिकाम् ।। तस्मात् कीर्तिमुपादातुमकीर्तिञ्च व्यपोहितुम् । काव्यालंकारसूत्रार्थः प्रसाद्यः कविपुङ्गवः ।। आचार्य रुद्रद ने भी अपने ग्रन्थ 'काव्यालङ्कार' में काव्य के इन्हीं प्रयोजनों का प्रतिपादन किया है। किन्तु आचार्य कुन्तक ने अपने 'वक्रोतिजीवित' में काव्य के प्रयोजनों का निरूपण बंड-२३, अंक-२ २०३ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हुए 'प्रीति' का महत्वपूर्ण प्रयोजन स्वीकृत किया। साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ के अनुसार काव्य एक ऐसी वस्तु है जिससे अल्पबुद्धि मानव को भी बिना किसी प्रयास के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप-पुरुषार्थ चतुष्ट्य की प्राप्ति हो जाती है। __ अर्थात् काव्य ही मनुष्य को राम के समान आचारण करना चाहिए । रावण के समान नहीं-यह उपदेश देता है-'रामादिवत्प्रवर्तितव्यं न रावणादिवत् ।' ध्वनिवादी आचार्य आनन्दवर्धन भी 'प्रीति' को ही काव्य का महत्वपूर्ण प्रयोजन मानते हैं। भोजराज के अनुसार 'कीति' और 'प्रीति, काव्य के तात्त्विक प्रयोजन हैं। व्याख्याकार रत्नेश्वर ने इस 'प्रीति' का इस प्रकार विवेचन किया है "प्रीतिः संपूर्ण काव्यार्थसमुवय: मानन्दः।" आचार्य मम्मट ने काव्य-प्रयोजन विषयक विभिन्नवादों का समन्वित रूप प्रस्तुत किया है। उन्होंने काव्य के छः प्रयोजनों का निरूपण किया है। यश प्राप्ति, अर्थ लाभ, आचार (व्यवहार) ज्ञान, अमंगल का विनाश, शीघ्र ही आनन्दानुभूति और कांतासम्मित उपदेश (स्त्री के समान उपदेश)। किन्तु आचार्य राजचूड़ामणि दीक्षित ने अपने ग्रन्थ 'काव्यदर्पण' में काव्य के पांच ही प्रयोजन निर्दिष्ट किये हैं । यश प्राप्ति अर्थ लाभ, अमंगल का विनाश, स्त्री के समान उपदेश और शीघ्र आनन्द की प्राप्ति । उन्होंने इसको स्पष्ट करते हुए लिखा है कि महाकवि कालिदास को अपने ग्रंथों (अभिज्ञानशाकुन्तलम् , मेघदूत इत्यादि) से यश प्राप्ति हुई । काव्य में यश प्राप्ति के रहस्य को भर्तृहरि ने भी प्रतिपादित किया है।" श्रीहर्ष इत्यादि से धावक आदि कवियों को अर्थ की प्राप्ति हुई अतः काव्य से धनोपार्जन हो सकता है। काव्य के द्वारा उस अनिष्ट का निवारण भी संभव है जो सूर्यादि देवों के अनुग्रह से सूर्यशतक में रचयिता मयूर इत्यादि का हो चुका है । काव्य के निर्माण से मनुष्य को असीम आनन्द की प्राप्ति होती है और काव्य ही मनुष्य को राम के समान आचरण करना चाहिए रावण के समान नहीं-इस प्रकार का उपदेश देता है। निष्कर्षतः अधिकांश आचार्यों ने 'कीति' या 'यश' को ही काव्य का प्रमुख प्रयोजन माना है । कवि और पाठक दोनों की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण प्रयोजन ‘सद्यः परनिवृति' है। इसलिए मम्मटचार्य ने उसको 'सकलप्र योजनमौलिभूत'- कहा है। पाश्चात्य आलोचक भी काव्य के प्रयोजनों में रसानुभाव को ही मुख्य मानते हैं । निर्दुष्ट काव्य-लक्षण काव्य क्या है ? इसे आचार्यों ने अपने-अपने शब्दों में व्यक्त करने का प्रयास किया है विभिन्न आचार्यों द्वारा प्रस्तुत काव्य-लक्षण इस प्रकार है-- (१) भामह-भामह का काव्य-लक्षण अधिक प्राचीन है उनके अनुसार शब्द और अर्थ से युक्त काव्य गद्य और पद्य दो प्रकार का है। (२) दण्डी भामह के पश्चात् काव्य-लक्षण में आये हुए ‘संहितौ पद की व्याख्या करते हुए दण्डी ने अपने काव्य-लक्षण प्रस्तुत किया है -'शरीरंतावदिष्टार्थ व्यवच्छिन्ना पदावली।' २०४ तुलसी प्रज्ञा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) वामन - इनका काव्य लक्षण इस प्रकार है 'काव्यशब्दोऽयं गुणालङ्कारसंस्कृतयोः शब्दार्थ योर्वतते ' (४) रुद्रद आचार्य रुद्रद ने शब्द और अर्थ को ही काव्य माना है। (५) वाग्भट्ट - वाग्भट्ट ने दोषों से रहित, गुणों से युक्त और प्राय: अलंकृत शब्द और अर्थ को काव्य कहा है । १५ (६) कुन्तक - वक्रोतिजीवितकार कुन्तक ने अधिक स्पष्ट रूप से काव्य का लक्षण प्रस्तुत किया है 'शब्दार्थौ सहितौ वक्र कविव्यापारशालिनि । बंधे व्यवस्थित काव्यं तद्विदाह्लादकारिणि ॥ (७) क्षेमेन्द्र - क्षेमेन्द्र ने औचित्य को ही काव्य का 'जीवित' माना है ।' (८) विद्यानाथ - आपने गुण और अलंङ्कार से युक्त दोषों से वर्णित शब्द और अर्थ को काव्य कहा है । " ( ९ ) विश्वनाथ - साहित्यदर्पणकार 'रसात्मक वाक्य' को ही काव्य मानते हैं ।" (१०) मम्मट आचार्य मम्मट का काव्य-स्वरूप निरूपण अलंकार शास्त्र की काव्य-विषयक प्राचीन और नवीन धारणाओं यथा भावनाओं का समन्वय है । उन्होंने काव्य को परिभाषित करते हुए कहा है 'तददोषौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि ।' अर्थात् अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव तीनों प्रकार के दोषों से रहित, प्रसाद, माधुर्य और ओज आदि गुणों से युक्त और कहीं कहीं अलंकार से रहित होने पर भी शब्द और अर्थ काव्य है । 'अनलंकृती पुनः क्वापि' इस वाक्यांश में प्रयुक्त क्वापि पद से मम्मट कहते हैं कि यथासंभव सब जगह अलङ्कार युक्त शब्द और अर्थ का युगल होना चाहिए परन्तु कहीं (जहा व्यङ्गय या रसादि की स्थिति विद्यमान हो वहां ) स्पष्टरूप से अलंकार न भी हो तो भी वहां काव्य की कोई क्षति नहीं हुआ करती है । काव्य- सर्वस्य के संकेत के लिए मम्मट ने सर्वप्रथम काव्य का 'तत्' शब्द परामर्श किया है । 'काव्य' का स्वरूप रस सृष्टि और रसानुभूति में ही उन्मीलित हुआ करता है । यह वही 'तत्' शब्द है, जिसे आनन्दवर्धन ने ध्वनि कहा है ।" मम्मट शब्द और अर्थ दोनों की समष्टि को काव्य मानते हैं । उनके अनुसार अकेला शब्द या अकेला अर्थ इनमें से कोई भी काव्य नहीं है । उन्होंने इस शब्दार्थों पद के तीन विशेषण लक्षण में प्रस्तुत किये गये हैं । (१) अदोषौ शब्दार्थो - शब्द और अर्थ की 'अदोषता' काव्य- लोचना की प्राचीनतम मान्यताओं में से है मम्मट ने 'अदोषता' को शब्दार्थ - साहित्य की विशेषता के रूप में स्वीकार किया है । भामह के अनुसार भी शब्दार्थ - साहित्य की सर्वप्रथम विशेषता 'अदोषता' ही है ।' कवि की पद रचना यदि 'सदोष' हुई तो उसे उसी प्रकार निन्दित होना पड़ता है जिस प्रकार कोई पिता दुष्ट पुत्र के उत्पादक होने के खण्ड २३, अंक २ २०५ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण निन्दित हुआ करता है । मम्मट के अनुसार 'दोष' कवि की रस योजना संबंधी अशक्ति के प्रकाशकहै जिनके कारण रस चर्वण में बाधा पहुंच सकती है। उत्तम काव्य की यह 'अदोषता' प्राचीनाचार्यों ने भी प्रतिपादित की है कीटानुविद्धरत्नादिसाधारण्येन काव्यता। दुष्टेष्वपि मया यत्र रसाद्यनुगमः स्फुटः ॥ मम्मट ने सर्वप्रथम 'अदोषौ शब्दार्थों' को काव्य स्वरूप का परिच्छेक मानकर रसभङ्ग के कारण 'अनौचित्य' के अभाव का अभिप्राय प्रकट किया है। जहां रस विवक्षा न हो ऐसे काव्य में शब्द और अर्थ की 'अदोषता, आवश्यक है क्योंकि इसके बिना मुख्य अर्थ की प्रतीति नहीं हो सकती और यदि होगी तो विलम्ब से होगी और उसमें चमत्कार नहीं हो सकेगा। (१) सगुणो शब्दार्थों-मम्मट के शब्दार्थ साहित्य की दूसरी विशेषता 'सगुणता' है । रीतिवादी आचार्य वामन ने जिस 'सगुणता' के कारण पदरचना को कात्य का अन्तिम रहस्य मान लिया है । उसी 'सगुणता' को आचार्य मम्मट ने काव्य रूप शब्दार्थ साहित्य की एक विशेषता के रूप में प्रतिपादित किया है। मम्मट के अनुसार शब्द और अर्थ की 'सगुणता' की विशेषता शब्द और अर्थ की रसाभिव्यञ्जकता है क्योंकि अन्ततोगत्वा गुण अभिव्यङ्गय रस के धर्मरूप से सहृदय हृदय में अभिव्यङ्गय हुआ करते हैं। मम्मट ने 'रसवता' अथवा 'सरसता' को शाब्दार्थ साहित्य का वैशिष्ट्य न बता कर 'सगुणता' को जो उसका वैष्ट्यि बताया है वह इसी दृष्टि से है कि रसादि रूप उत्तम काव्य के अतिरिक्त मध्यम और अधम काव्य भी इससे लाक्षित हो सके। (३ अनलंकृती पुनः क्वापि शब्दार्थों-शब्द और अर्थ जो काव्य कहे जाते हैं अलंकृत हो किन्तु इस बात को सीधे न कहकर यह कहना कि ऐसी शब्दार्थ रचनाएँ भी काव्य मानी जांय जिनमें स्पष्ट रूप से किसी अलङ्कार-योजना के न होने पर भी काव्य के सौन्दर्य का अनुभव हुआ करता है। यदि काव्य में अलंकार ही सब कुछ होता तो 'अनलंकृती पुन: क्वापि' उन्मत्त प्रलाप मात्र मान लिया जाता । आचार्य मम्मट ने जिस प्रकार शब्दों और अर्थों की 'अदोषता' और 'सगुणता' को उनके स्वरूप से संबद्ध न मानकर रस उनके अभिव्यङ्गय रस रूप अर्थ से संबद्ध माना है उसी प्रकार उनकी समुचित अलंकृतता को उनके स्वरूप से संबद्ध न मानकर रस रूप अलङ्कार्य से संबद्ध स्वीकार किया है। आचार्य मम्मट के अनुसार अलङ्कार शब्द और अर्थ के चारुत्त्वाधायक नहीं अपितु रसभावादिरूप अलङ्कार्य के चारुत्व के वर्धक हुआ करते हैं । मम्मट ने 'अनलंकृती पुनः क्वापि' के उदाहरण में निम्न काव्यबंध प्रस्तुत किया है-- यः कौमारहरः स एव हि वरस्ता एव चैत्रक्षपा स्ते चोन्मीलितमालतीसुरभयः प्रौढाः कदम्बानिला: । सा चैवास्मि तथापि तत्र सुरतव्यापारलीलाविधी रेवारोधसि वेतसीतरुतले चेतः समुत्कण्ठते ।। तुलसी प्रज्ञा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मम्मट के अनुसार यहां कोई स्पष्ट अलंकार नहीं है । मम्मट द्वारा प्रस्तुत इस दृष्टांत की तथा 'शब्दार्थों' के विशेषणों की साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ने आलोचना की है। मम्मट द्वारा उद्धृत दृष्टांत अलङ्कार की 'अस्फुट प्रतीति' का ही नहीं अपितु सुकुमार रसभाव के सौन्दर्य भार को ही संभालने में लगी उस कविता की मधुर मूर्ति का निदर्शन है जिसे अलङ्कार की कोई आवश्यकता नहीं किन्तु विश्वनाथ ने मम्मट के मत का खण्डन किया है उन्होंने यहां 'विभावना' और 'विशेषोक्ति' अलङ्कार माना __यहां उत्कंठा रूप कार्य का वर्णन किया गया है किन्तु उसका कारण विद्यमान नहीं है । कारण न होने पर भी उत्कंठा रूप कार्य का वर्णन होने से 'विभावना' है । साथ ही उत्कंठा भाव का कारण होते हुए भी उत्कंठा भाव कार्य के न होने से यहां 'विशेषोक्ति' अलंकार भी है । ये दो अलङ्कार विश्वनाथ द्वारा माने गये हैं। __ आचार्य मम्मट ने यहां संदेह-सङ्कर इसलिए नहीं समझा क्योंकि 'विभावना' और 'विशेषोक्ति' जब अस्फुट है तब 'विभावना विशेषोक्ति' मूलक 'संदेह-सङ्कर' क्यों स्पष्ट होने पर भी काव्यत्व की प्रतीति का जो मम्मट द्वारा प्रस्तुत उदाहरण दिया है वह बहुत ही सुन्दर और युक्तिसंगत है अतएव विश्वनाथ द्वारा इसका खण्डन उचित नहीं लगता है। विश्वनाथ ने 'अदोषो' पद की भी आलोचना की है और 'न्यक्कारो ह्ययमेव मे यदरयः' इत्यादि ध्वनि काव्य में 'विधेयाविमर्श' दोष निकालकर सिद्ध किया है कि इस विशेषण के कारण या तो काव्य का क्षेत्र नहीं के बराबर हो जायेगा या बहुत संकीर्ण हो जायेगा। मम्मट के अनुसार उत्तम, मध्यम और अधम तीन प्रकार की काव्यकृतियों में शब्दार्थ युगल की 'अदोषता' एक रूप नहीं अपितु त्रिविध रूप है किन्तु विश्वनाथ का ध्यान एकमात्र 'अदोष' पद में 'नञ्' के अर्थ अभाव पर ही गया और काव्य-साहित्य की काञ्चनराशि की परख के लिए मम्मट की बतायी काव्यलक्षण की कसौटी एक अनर्थ के रूप में दिखाई देने लगी किन्तु यह सब एक दुराग्रह ही है। स्वयं विश्वनाथ ने भी साधारण दोषों के रहते हुए काव्यत्व स्वीकार किया है। _ विश्वनाथ 'सगुणो' इस विशेषण पर भी आक्षेप करते हैं। इस संबंध में मम्मट की 'सगुणौ शब्दार्थों की उक्ति और उन्हीं की __ ये रसस्याङ्गिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मनः । उत्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितियो गुणाः ॥ -यदि उक्ति में परस्पर विरोध प्रदर्शित किया गया है और यह निष्कर्ष निकाला गया है कि मम्मट की यह काव्य-परिभाषा युक्तिसंगत नहीं है । रसध्वनिवादी काव्यलोचना की दृष्टि से यदि काव्य-लक्षण किया जाय तो मम्मट का ही काव्य-लक्षण एकमात्र निर्दुष्ट प्रतीत होता है । विश्वनाथ द्वारा इसका खण्डन उचित नहीं लगता । 'अनलंकृती पुनः क्वापि' इस विशेषण पर उनका कहना है कि अलंकृत शब्द-अर्थ काव्य के स्वरूप में नहीं अपितु काव्य के उत्कर्ष में आवश्यक है। खंड-२३, अंक-२ २०७ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ युगल रूप काव्य को सर्वत्र अलंकृतता का जो मम्मट का मत है उसमें यह असंदिग्ध है कि 'रसभावविवक्षा' का रहस्य छिपा है और शब्दार्थ युगल' की यत्रयुगल' की यत्र-कुत्रचित् अलंकारशून्यता में भी यही रसभाव विवक्षा झांक रही है। 'यः कौमारहरः' इत्यादि श्लोक जो उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया है उसको समन्वय करते हुए मम्मट ने लिखा है कि यहां कोई स्फुट अलंकार नहीं है अतएव विश्वनाथ द्वारा यहां-सङ्कर' अलङ्कार सिद्ध करने का जो प्रयत्न किया गया है वह उचित नहीं है। निष्कर्षतः मम्मट का 'तद्दोषौ शब्दार्थों सगुणावनलंकृती पुन: क्वापि' यह काव्य-लक्षण अन्य लक्षणों की अपेक्षा अधिक परिमार्जित है। पूर्वलक्षण कारों ने काव्य के शरीर, शब्द और अर्थ उसकी आत्मा, रीति, रस या ध्वनि और अलंकार की चर्चा तो अपने लक्षणों में की थी परन्तु गुण-दोष की चर्चा नहीं की थी किन्तु मम्मट इस गुण-दोष के प्रश्न को सामने लाये उनके अनुसार कितना ही सुन्दर काव्य हो पर उसमें एक भी उत्कट दोष आ जाता है तो वह उसके गौरव को कम कर देता है।" मम्मट के काव्य-लक्षण का वास्तविक रहस्य यही है कि जिसे कविता कहा जाता है वह कोई अवाङ्मनसगोचर रहस्यमात्र नहीं अपितु वह वस्तु है जिसे कवि अपनी काव्यमय भाषा में प्रकाशित करता है। इस प्रकार थोड़े ही शब्दों में भाव गाम्भीर्य के द्वारा आचार्य मम्मट ने अपने काव्यलक्षण को अत्यन्त सुन्दर एवं उपादेय बना दिया है। २०६ तुलसी प्रहा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ १. दुःखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम् विश्रांतिजननं लोके नाट्यामेतद्भविष्यति । धर्म यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिविवद्धनम् । वेदविद्येतिहासानाख्यामानपरिकल्पनम् ॥ -नाट्यशास्त्र, १११०९-१२४ २. धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च । करोति कीर्ति प्रोति च साधुकाव्यनिबंधनम् ॥ -काव्यालङ्कार १८ ३. काव्यं सद् दृष्टादृष्टार्थ प्रीति कीर्तिहेतुत्वात् । -काव्य लं० सूत्रवृत्ति १।१०५ ४. ज्वलदुज्ज्वलवाक् प्रसरं सरुमं कुर्वन् महाकवि काव्यम् । स्फुटमाकल्पनल्पं प्रतनोति यशः परस्यापि ॥ अर्थमनर्थोपशमं समसममथवा मतं यादेवास्य । विरचित रुचिर सुरस्तुतिरखिलं लभते तदेव कवि ॥ तदिति पुरुषार्थसिद्धि साधु विधास्यद्भिरविकलां कुशलः । अधिगतसकलत्रेयः कर्त्तव्यं काव्यममलमलम् ॥ -काव्यालंकार ५. धर्मादिसाधनोपायः सुकुमारक्रमोदितः । काव्यबंधोऽभिजातानां हृदयालादकारकः॥ व्यवहारपरिस्पन्दसौन्दर्य व्यवहारिभिः । सत्काव्याधिगम।देव नूतनौचित्यमाप्यते । चतुवर्गफलास्वादमप्यतिक्रम्यतद्धिदाम् । काव्यामृतसेनांतश्चमत्कारो वितन्यते ॥ -कुन्तक, वक्रोतिजीवित १४ ६. चतुवर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि । काव्यादेवयतस्तेन तत्स्वरूपं निरुप्यते ॥ -साहि० दर्पण ११२ ७. तेन ब्रूमः सहृदयमनः प्रीतये तत्स्वरूपं । -ध्वन्यालोक ११ ८. कवि...........'कीर्ति प्रीति च विन्दति । -भोजराज, सरस्वती कंठा० ११४ ९. काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये । सद्यः परनिर्वृतये कांतासम्मितयोपदेशयुजे ॥ काव्यप्रकाश, ११२ १०. काव्यं हि यशसेऽर्थाय शिवेतरनिवृतये । कांतावदुपदेशाय परनिर्वर्तये क्षणात् ।। -काव्यदर्पण, ११२ चण २३, अंक २ २०९ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. जयन्ति ते सुकृतिनो स्ससिद्धाः कविश्वराः । नास्तियेषां यश: काव्ये जरामरण भयम् ।। -वाक्यपदीय १२. 'Delight is the chief if not the only end of poetry instruction can be admitted fut in the second place, for poesy only instruct as it delight.' १३. 'शब्दार्थी संहितौ काव्यं गद्यं पद्यं च तद् द्विधा ।' -काव्यालङ्कार १४. 'शब्दार्थों काव्यम्'। --काव्यालङ्कार १५. 'शब्दार्थी निर्दोषो सगुणौ प्रायः सालङ्कारी च काव्यम् ।' -वाग्भट्ट १६. काव्यस्यालमलङ्कारः किं मिथ्यागवितैर्गुणैः । यस्य जीवितमौचित्यं विचिन्त्यापि न दृश्यते ॥ अलङ्कारास्त्वलङ्कारा: गुणा एव गुणा: सदा । औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम् ।। -क्षेमेन्द्र १७. 'गुणालङ्कारसहितौ शब्दार्थों दोषवजितौ ।' -बिद्यानाथ १८. 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम् ।' -विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १९. यन्नार्थः शब्दो वा तमर्थमुपसर्जनीकृतस्वाथों । व्यङ्क्तः काव्यविशेषः स ध्वनिरिति सूरिभिः कथितः ।। -आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक २०. 'सर्वथा पदमप्येकं न निगाद्यमवद्यवत् । विलक्ष्मणा हि काव्येन दुःसुतेदेव निन्द्यते ॥' -भामह काव्यालङ्कार २१. 'विभावना तु विना हेतुं कार्योत्पत्तिर्यदुच्यते । सति हेतो फलाभावो विशेषोक्तिस्ततो द्विधा । -विश्वनाथ, साहित्यदर्पण २२. 'कीटानुविद्धरत्नादिसाधारण्येन काव्यता। दुष्टेष्वपि मता यत्र रसाधनुगमः स्फुटः ।' -विश्वनाथ, साहित्यदर्पण २३. 'दुर्जनं प्रथमं वन्दे सज्जनं तदनन्तरम् । मुखप्रक्षालनात् पूर्व गुदप्रक्षालनं यथा ।' -मम्मट -~-डा० (कु०) सुनीता जोशी द्वारा श्री, एस. एन. जोशी H-१४९ हल्दी-२७३१४७ जिला-ऊधमसिंह नगर २१० तुलसी प्रज्ञा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान तथा उनके आरोहण-अवरोहण का क्रम अनिलकुमार जैन गुणस्थान जैन धर्मानुसार जीवों के संसार में परिभ्रमण के मुख्य कारण दर्शन मोह, चारित्र तथा योग हैं । साधना (मोक्ष) के लक्ष्य का बोध न होने देने वाली शक्ति को दर्शन-मोह कहते हैं । साधना के लक्ष्य का बोध होते हुए भी जिस शक्ति के कारण स्वरूपाचरण नहीं हो पाता है, उसे चारित्र मोह कहते हैं । तथा मन, वचन और काय की प्रवृत्ति ( हलन चलन क्रिया) को योग कहते हैं । इन तीनों के न्यूनाधिक होते रहने से आत्मा के भावों में भी परिवर्तन होता रहता है । इन्हीं भावों की स्थिति को जैन धर्म में गुणस्थान द्वारा समझाया गया है । गुणस्थान का अर्थ है - आत्मिक ( आध्यात्मिक) गुणों के हिसाब से जीव का स्तर (स्थान) । गुणस्थान को निम्न प्रकार से पारिभाषित किया गया है ' दर्शन मोह, चारित्र मोह तथा योग ( मन, वचन तथा काय की प्रवृत्ति) के निमित्त से होने वाले आत्मा के भावों की तारतम्य रूप अवस्था विशेष को गुणस्थान कहते हैं ।' अतः गुणस्थान जीवों के अन्तरंग परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार-चढ़ावों का दिग्दर्शन कराने वाले होते हैं । कोई जीव आत्मा के विकास के किस स्तर पर है, इसका ज्ञान गुणस्थान से होता है । जैसे-जैसे जीव के कर्मबन्ध के कारणों का विनाश होता जाता है, वैसे-वैसे जीव के स्वाभाविक गुणों में वृद्धि होती है । इस प्रकार गुणस्थान हमें आत्मिक गुणों के क्रमिक विकास का ज्ञान कराते हैं । गुणस्थानों के प्रकार गुणस्थानों को आरोहण क्रम में चौदह श्रेणियों में विभाजित किया गया है ।" ये हैं (१) मिध्यादृष्टि, (२) सासादन - सम्यग् दृष्टि, (३) सम्यग् मिथ्यादृष्टि (मिश्र) (४) असंयत या अविरत - सम्यग् दृष्टि, (५) संयतासंयत (देश संयत), (६) प्रमत्त संयत (७) अप्रमत्त संयत, (८) अपूर्व करण, (९) अनिवृत्ति - बादर - साम्पराय, (१०) सूक्ष्म साम्पराय, (११) उपशांत कषाय वीतराग छद्मस्थ, (१२) क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ, (१३) सयोग केवली तथा (१४) अयोग केवली । इनका संक्षिप्त परिचय परिशिष्ट (इसी अंक में पृष्ठ २१९-२२३) में दिया गया है । खण्ड २३, अंक २ २११ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्यों-ज्यों गुणस्थानों में आरोहण होता जाता है, कर्म बन्ध के पूर्व-पूर्व कारणों का विनाश होता जाता है। सबसेप हले बंध का मूल कारण मिथ्यात्व (दर्शन मोह) दूर होता है । उसके पश्चात् क्रमशः अविरति, प्रमाद और कषाय (चारित्र मोह) दूर होते हैं। अन्तिम गुणस्थान में बन्ध का अन्तिम कारण योग भी दूर हो जाता है । बन्ध के कारणों के दूर होने पर जीव कर्तबन्ध से मुक्त हो जाता है तथा मोक्ष प्राप्त कर लेता है। पहले गुणस्थान से तीसरे गुणस्थान तक मिथ्यात्व न्यूनाधिक रूप में रहता है। छठे गुणस्थान से पूर्व प्रमाद का अस्तित्व है, अत: प्रमत्त है । पहले चार गुणस्थान में औदयिक, पारिणामिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भाव होते हैं । ये चारों दर्शन मोह की अपेक्षा हैं । प्रथम चार गुणस्थानों में चारित्र नहीं है। इनके आगे पांचवे, छठे तथा सातवें गुणस्थानों में क्षायोपशमिक भाव हैं। यहां उपशम क्षय या क्षयोपशम की अपेक्षा चारित्र मोह की प्रधानता से कथन किया गया है । आठवें गुणस्थान में चारित्र मोह की प्रधानता से कथन है । इसमें उपशम तथा क्षपक दो श्रेणियां होती हैं । गुणस्थान के आरोहण-अवरोहणका क्रम जीव गुणस्थानों में क्रमशः चढ़ता चला जाता है, सर्वथा ऐसा नहीं है । अपनी आत्मा के अच्छे-बुरे भावों के हिसाब से वह चढ़ भी सकता है तथा उतर भी सकता है। लेकिन गुणस्थानों में चढ़ने तथा उतरने के कुछ नियम हैं । किसी अमुक गुणस्थानवर्ती जीव कुछ गुणस्थानों में आरोहण कर सकता है तथा कुछ में अवरोहण । जीब आरोहण करेगा या अवरोहण, यह उससे बद्ध-कर्मों या छूटने वाले कर्मों पर निर्भर करेगा। गुणस्थानों के चढ़ने-उतरने के क्रम को याद करने कराने की दृष्टि से कई तरीके अपनाये जाते रहे हैं। एक अमुक गुणस्थान से जीव अन्य कितने गुणस्थानों में जा सकता है, इसे अंकों की सहायता से याद रखने का प्रचलन रहा है। ये अंक हैं४१२, ५५६, इसके बाद २२२ । वायें से पहले स्थान पर ४ लिखा है, अतः पहले गुणस्थान से जीव चार गुणस्थानों में से किसी एक में जा सकता है, ये हैं तीसरा, चौथा, पांचवां तथा सातवां गुणस्थान । दूसरे स्थान पर १ है, अतः दूसरे गुणस्थान से जीव मात्र एक गुणस्थान में जा सकता है, वह है पहला गुणस्थान । तीसरे स्थान पर २ है, अतः तीसरे गुणस्थान से जीव दो में से किसी एक में जा सकता है, ये हैं--पहला तथा चौथा गुणस्थान । चौथे गुणस्थान पर ५ है, अत: चौथे गुणस्थान से पांच में से किसी एक में जा सकता है, ये हैं-पहला, दूसरा, तीसरा, पांचवां तथा सातवां गुणस्थान । पांचवें स्थान पर पुनः ५ है, अतः पांचवें गणास्थान से जीव पांच में से किसी एक गुणस्थान में जा सकता है, ये हैं --- पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा तथा सातवां गुणस्थान । छठे स्थान पर ६ है, अतः छठे गुणस्थान से जीव छह में से किसी एक गुणस्थान में जा सकता है, ये हैं पहले से पांचवें तक तथा सातवां गुणस्थान। इसके आगे तीन बार दो, दो लिखा है, अत: सातवें, आठवें, तथा नौवें गुणास्थान से जीव दो स्थानों में से किसी एक में जा सकता है, एक अपने से ऊपर तथा एक अपने से नीचे । दसवें गुणस्थान से जीव नीचे गिरकर नौवें में जा सकता है । दसवें गुणस्थान से २१२ तुलसी प्रज्ञा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव के ऊपर जाने के दो रास्ते हैं---जीव ग्यारहवें में भी जा सकता है तथा बारहवें गुणस्थान में भी । ग्यारहवें गुणास्थान से जीव नियम से नीचे गिरता है, जबकि वारहवें गुणस्थानवी जीव तेरहवें फिर चौदहवें गुणस्थान में चढ़ता हुआ मोक्ष पद की प्राप्ति करता है। उपर्युक्त कथन सामान्य है । पहले गुणस्थान तथा चौथे गुणस्थान में कुछ विशेष है। चौथे गुणस्थान को तीन भागों में बांटा गया है-औपशमिक सम्यक्दृष्टि क्षायिक सम्यकदष्टि तथा क्षायोपशमिक सम्यकदष्टि । इनका विवरण परिशिष्ट में दिया गया है। पहले गुणस्थान-मिथ्यादृष्टि के दो भेद हैं अनादि मिथ्यादृष्टि तथा सादि मिथ्यादृष्टि । जो व्यक्ति अनादि काल से मिथ्या में पड़ा हुआ है, वह अनादि मिथ्यादृष्टि है तथा जो जीव ऊपर के चौथे आदि गुणस्थान से गिरकर पहले गुणस्थान में आया है, वह सादि मिथ्यादृष्टि है । अनादि मिथ्यादृष्टि चौथे, पांचवें तथा सातवें गुणस्थान में कर्मों का उपशम करके ही पहुंच सकता है, अतः वह औपशमिक सम्यक् दृष्टि हो सकता है। क्षायिक- सम्यक् दृष्टि (चौथे गुणस्थान) वाला जीव कभी नीचे के गुणस्थान में नहीं गिरता है । इन सब बातों सहित गुणस्थान में चढ़ने उतरने के क्रम को क्षुल्लक श्री जिनेन्द्र वर्णीजी ने तालिका रूप में बहुत अच्छी तरह प्रस्तुत किया है। यह तालिका निम्न प्रकार है तालिका : गुणस्थान में आरोहण-अवरोहण का क्रम | नंबर गुणस्थान । आरोहण क्रम | अवरोहण क्रम | विशेष | ४ मिथ्याष्टि अनादि उपशम सम्यक्त्व सहित ४, ५, ७ सादि ३,४,५,७ सासादन मिश्र असंयत उपशम सम्यक दृष्टि सासादन पूर्वक १ क्षायिक क्षायोपशमिक , ३,१ संयतासंयत ४,३,२,१ प्रमत्त संयत ५,४,३,२,१ अप्रमत्त संयत मृत्यु समय अपूर्वकरण में ४ अनिवत्तिकरण सूक्ष्म सांपराय उपशांत कषाय क्षीण कषाय सयोग केवली | १४ | अयोग केवली । सिद्ध । २।। س X Xaa س » x xxx99 222 १० ११ ur 9 vixxx X १४ .खण्ड २३, अंक २ २१३ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानबाजी तथा गुणस्थान श्वेताम्बर परम्परा में 'ज्ञानबाजी' बनाने का प्रवचन बहुत प्राचीन है । चातुर्मास के समय साधु एक ही स्थान पर रहते हैं । कुछ दीक्षार्थी कम उम्र के भी होते रहे हैं। ऐसे दीक्षार्थियों को खेल के साथ-साथ ज्ञान की बातें बताने के लिए सांप-सीढ़ियां बनाई जाती थी । इस प्रकार कमसिन दीक्षार्थियों का मनोरंजन भी होता था तथा ज्ञान की बातें भी सीख लेते थे। चूंकि इस खेल में ज्ञान की बातें सीखने को मिलती हैं, अतः ज्ञान के इस खेल को 'ज्ञानबाजी' कहा जाता है। ____ ज्ञानबाजी वस्तुतः सांप-सीढ़ी का खेल है जिसमें अनेकों वर्ग (खाने) बने होते हैं । कुछ खानों पर अच्छे कार्य दर्शाये होते हैं तथा कुछ खानों पर बुरे कार्य । यदि पासा बहुत अच्छे खाने पर पड़ता है तो सीड़ी चढ़ जाता है और यदि पासा अधिक बुरे काम वाले पर पड़ता है तो सांप द्वारा काटे जाने से नीचे आ जाता है । वस्तुतः इस प्रकार की सांप-सीढियों या ज्ञानबाजियों का मुख्य उद्देश्य अच्छे कार्य का अच्छा फल तथा बुरे कार्य का बुरा फल बताना रहा है । सांप-सीढ़ी हमेशा एक ही प्रकार की बनती रही है, ऐसा नहीं है। अलग-अलग विषयों के लिए अलग-अलग सांप-सीढ़ियां बनती रही हैं। इन सांप-सीढ़ियों में खानों की संख्या में भी परिवर्तन होता रहा है तथा खेलने के नियमों में भी। कई बार सांपसीढ़ियां कठिन विषयों को लेकर भी बनाई जाती थीं । गुणस्थानों के चड़ने तथा उतरने के क्रम को समझाने के लिए भी सांप-सीढ़ियां (ज्ञानबाजी) बनाई जाती रही हैं। इस प्रकार की एक सांप-सीढ़ी (ज्ञानवाजी) 'लालभाई दलपतभाई म्यूजियम' (अहमदाबाद) में मौजूद है । यह ज्ञानबाजी सन् १८११ ई० की है । इसी प्रकार की एक अन्य ज्ञानबाजी अहमदावाद के ही 'कलिको म्यूजियम ऑफ टैक्सटाइल' में मौजूद है जो कि सन् १८३३ ई० की है। इसी प्रकार की कुछ अन्य ज्ञानबाजीयां मौजूद हैं। लेकिन ये सब विषय को अच्छी तरह स्पष्ट नहीं कर पाती है। इन ज्ञानबाजीयों से गुणस्थानों के नाम आदि का प्रारंभिक ज्ञान तो हो पाता हैं, लेकिन गुणस्थानों के चढ़ने-उतरने के क्रम को इनसे समझना आसान नहीं है। माडिया की सांप-सीढ़ी ___ गुणस्थानों के चढ़ने-उतरने के क्रम को समझाने के लिए श्री के० वी० माडिया ने भी एक संशोधित सांप-सीढ़ी बनाई है। इस सांप-सीढ़ी को उन्होंने अपनी पुस्तक "दी साईन्टीफिक फाउंडेशन्स ऑफ जैनिज्म' में प्रकाशित किया है । यह सांप-सीढ़ी अन्य सांप-सीढ़ियों की तुलना में छोटी है, उसमें कुल सोलह खाने हैं । इसके खेलने के नियम भी कुछ भिन्न हैं । इसका पासा धन न होकर सिक्का है जिसमें एक हैड़ (ऊपरी सिरा) तथा दूसरा टेल (निचला सिरा) है । हैड़ आने पर दो अंक प्राप्त होते हैं तथा टेल आने पर एक अंक । इस सांप-सीढ़ी की नकल चित्र (१) में दिखाई गई इस सांप-सीढ़ी के हिसाब से जीव सातवें गुणस्थान से गिरकर दूसरे में, ग्यारहवें तुलसी प्रशा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान से गिरकर छठवें में तथा नौवें गुणस्थान से गिरकर चौथे में आता है । इसी ...] 4A 1 2 3 11 4 [21] रेखाचित्र (१)-माडिया की सांप-सीढ़ी प्रकार पहले गुणस्थान से चढ़कर तीसरे में, पांचवें गुणस्थान से चढ़कर आठवें में तथा दसवें गुणस्थान से चढ़कर बारहवें में जाता है । इस सांप-सीढ़ी में तीसरे खाने तक टेल ही लानी होती है तथा चौथे खाने में प्रवेश की अनुमति नहीं है, अत: उसे छोड़ते हुए आगे बढ़ना होता है । चौथे खाने यानी कि दूसरे गुणस्थान में जीव सातवें गुणस्थान से गिरकर ही आता है बाकी का खेल सामान्य है- यानी कि सिक्के पर हैड़ आने से जीव कहां जायेगा तथा टेल आने पर जीव कहां जायेगा, इसे इस खेल से जाना जा सकता है। यह सांप-सीढ़ी अपेक्षाकृत सरल है, फिर भी एक ही नजर में सब कुछ स्पष्ट नहीं हो पाता है । इसमें चढ़ने-उतरने के कुछ क्रम श्वेताम्बर आम्नाय के हिसाब से भी है। ऊर्जा स्तर एवं गुणस्थान गुणस्थानों को ऊर्जा स्तर के रूप में प्रदर्शित करने पर गुणस्थानों के चढ़नेउतरने के क्रम को समझने में आसानी हो सकती है। इसे समझने से पहले हमें एटम के इलैक्ट्रोन के ऊर्जा स्तरों के बारे में थोड़ा जान लेना अच्छा रहेगा। जैसा कि हम जानते हैं कि प्रत्येक एटम इलैक्ट्रोन, प्रोटोन तथा न्यूट्रोन से मिलकर बना होता है । प्रोटोन तथा न्यूट्रोन नाभिक में रहते हैं तथा इलैक्ट्रोन नाभिक के चारों ओर निश्चित कक्षाओं में चक्कर लगाते रहते हैं । हाइड्रोजन का एटम सबसे हल्का होता है । इसके नाभिक में मात्र एक प्रोटोन होता है, न्यूट्रोन नहीं होता है। इसके नाभिक के चारों ओर एक निश्चित व्यास की कक्षा में एक इलैक्ट्रोन चक्कर लगाता रहता है । यदि इस इलैक्ट्रोन को बाहर से कुछ ऊर्जा प्राप्त हो जाय तो इसका ऊर्जा स्तर (energy level) बढ़ जाता है । लेकिन ये ऊर्जा स्तर भी निश्चित होते खण्ड २३, अंक २ २१५ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। एक निश्चित मात्रा में इलेक्ट्रोन के ऊर्जा प्राप्त करने (absorption) पर इलैक्ट्रोन उस ऊर्जा की मात्रा के अनुसार ही निश्चित कक्षा में जा सकता है । इसके विपरीत, यदि इलेक्ट्रोन अधिक ऊर्जा वाले स्तर से कम ऊर्जा वाले स्तर (high energy level to low energy level) में जब आता है (transition होता है) तो वह कुछ ऊर्जा का विकरण (Emission) करता है। कम ऊर्जा स्तर से अधिक ऊर्जा स्तर तथा अधिक ऊर्जा स्तर में इलेक्ट्रोन के आने पर क्रमश: अधिशोषण स्पैक्ट्रम (Absorption Spectrum) तथा (Emission Spectrum) प्राप्त होते हैं। इन्हें निम्न चित्र (२) a, (२) b तथा (२) 0 में दिखाया गया हैं । चित्र २(a) PROTON ELECTRON | Fig.2(a). HYDROGEN ATOM In=1 Lyman Bokmer Paschan Lyman Balmer Paschan L_Fio. 20): EMISSION SPECRTUM Fig. 20). ABSORPTION SPECTRUM चित्र २(b) __ चित्र २(c) गुणस्थानों के चढ़ने-उतरने (आरोहण-अवरोहण) के क्रम को भी एक गुणस्थान से दूसरे गुणस्थान के मध्य (transitions) के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है । जीव जब आत्मिक गुणों का विकास करता है तब कर्मों की संख्या कम होती जाती है तथा वह गुणस्थान में चढ़ता चला जाता है। और जीव जब रागादिक भावों से ग्रस्त रहता है तो कर्मों की संख्या में वृद्धि होती चली जाती है तथा जीव गुणस्थानों में गिर जाता है । उतरने-चढ़ने के इस क्रम को चित्र (३) में दिखाया गया है। यहां प्रथम गुणस्थान के दो भेद किये गये हैं-अनादि और सादि। इस प्रकार चौथे गुणस्थान (असंयत सम्यकदृष्टि) के तीन भेद दिखाये गये हैं- औपशमिक, क्षायोपशमिक तथा क्षायिक। चित्रात्मक प्रस्तुतीकरण की विशेषता गुणस्थानों के चढ़ने-उतरने के क्रम के इस प्रकार के प्रस्तुतीकरण की कई विशेषतायें २१९ तुलसी प्रशा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं-एक तो समझने में आसानी रहेगी तथा दूसरे एक ही नजर में सभी क्रमों को एक साथ देखा जा सकता है । इसके अतिरिक्त सबसे अधिक एक विशेषता यह है कि इसमें सम्यक्त्व से सम्बन्धित कई बारीकियों को भी सम्मिलित कर लिया गया है। फिर भी कुछ बातें पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाई है। इनका खुलासा अगले अनुच्छेद में कर रहे Ayog Kama Sayog karak Mannkuney... pahent Kanney Sukatmeompnya Animation Amavataran Aprumen-enyat. Pramat-sanye Savyataranyata Kahayk Samyakorenu Kahayepesham Samyakraheb Upahem samyandriane Miune Sasuden. Sad Michael Anadi Mithyadraht POSSIBLE TRANSITIONS BETWEEN SPIRITUAL LEVELS चित्र (३) गुणस्थानों के चढ़ने-उतरने का क्रम सम्यक्त्व के प्रकार सम्यक्त्व के तीन भेद किये गये हैं--(१) औपशमिक, (२) क्षायोपशमिक, (३) क्षायिक । औपशमिक सम्यक् दर्शन दो प्रकार का होता है - (१) प्रथम उपशम सम्यक्त्व तथा (२) द्वितीय उपशम सम्यक्त्व । मिथ्यात्व गुणस्थान (पहले गुणस्थान) में दर्शन मोह का उपशम करने से जो सम्यक्त्व पैदा होता है वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहलाता है । प्रथमोपशम सम्यक्त्व अनादि तथा सादि दोनों मिथ्यादृष्टि को प्राप्त हो सकता है । यह सम्यक्त्व चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक होता है। क्षयोपशम सम्यक्त्व सादि तथा मिश्र गुणस्थानवर्ती को हो सकता है, लेकिन अनादि मिथ्यादृष्टि को नहीं हो सकता है । यह सम्यक्त्व भी चौथे से सातवें गुणस्थान तक होता है। इस सम्यक्त्व के साथ सातवें गुणस्थान में रहते हुये जीव यदि उपशम श्रेणी की ओर उन्मुख होता है तो वह क्षयोपशम सम्यक्त्ब से औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त हो सकता है। इस ओपशमिक सम्यक्त्व को द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं । यह सम्यक्त्व सातवें गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक रहता है । द्वितीय उपशम सम्यक्त्व का धारक जीव जब ऊपर के गुणस्थानों से नीचे छठे, पांचवें या चौथे गुणस्थान में गिरता है, तब भी वह इस सम्यक्त्व के साथ ही होता है। खण २३, अंक २ २१७ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशम सम्यक्त्व का काल पूर्ण होने पर क्षयोपशम सम्यक्त्व होता है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, क्षयोपशम सम्यक्त्व सादि मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व गुणस्थान से चढ़कर सीधे भी हो सकता है । इसी प्रकार यह सम्यक्त्व तीसरे गुणस्थान (मिश्र गुणस्थान) में भी सीधे हो सकता है । क्षयोपशम सम्यक्त्व एक प्रकार का ही होता है । इसे वेदक सम्यक्त्व भी कहते हैं । क्षयोपशम सम्यक्त्व तथा वेदक सम्यक्त्व में कथर का ही अन्तर है । मिथ्यात्व मिश्र मोहनी की मुख्यता करके कहने पर इसे क्षयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं तथा सम्यक्त्व मोहनी की मुख्यता करके कहने पर इसे वेद सम्यक्त्व कहते हैं। चौथे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक क्षयोपशम सम्यक्त्व का धारक क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है। यदि सातवें गुणस्थान तक भी क्षयोपशम सम्यक्त्व का धारक क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सका तो वह सातवें गुणस्थान में उपशम सम्यक्त्व (द्वितीय उपशम) को प्राप्त कर सकता है। ___आठवें गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक या तो उपशम सम्यक्त्व होगा या फिर क्षायिक सम्यक्त्व । क्षायिक सम्यक्दृष्टि जीव गुणस्थानों में निरन्तर वृद्धि करता है, कभी गिरता नहीं है। सातवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक यदि मृत्यु हो जाए तो चतुर्थ गुणस्थान प्राप्त होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुणस्थानों के चढ़ते-उतरने के क्रम का यह चित्रात्मक प्रस्तुतीकरण अपने आप में काफी हद तक पूर्ण है तथा सांप-सीढ़ी या ज्ञानबाजी की तुलना में बहुत सरल भी है। संदर्भ १. “जैन दर्शन में कर्मवाद सिद्धांत : एक अध्ययन; लेखिका-डा० कुमारी मनोरमा __ जैन, पृ० १९१ २. "जैन सिद्धांत'-लेखक सिद्धांताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ० ७० ३. "जैनेन्द्र सिद्धांत कोश" (भाग-२)-क्षु० श्री जिनेन्द्र वर्णी, पृ० २४७ ३. "Jaina Textilas, Manuscripts, Sculpture, Ceremonial objicts and Woodwork: From 'Calico Museum of Textiles, p 11 ४. 'The Scientific Foundation of Jainism by K. V. Mardia p. 107 & 108 ६. "मोक्ष मार्ग प्रकाशक, नवमां अध्याय-पं० टोडरमल । २१५ तुलसी प्रज्ञा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट चीदह गुणस्थान १. मिथ्यात्व गुणस्थान मिथ्यात्व कर्म के उदय से जिन जीवों को मिथ्या श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है ऐसे जीवों को मिथ्यादृष्टि जीव कहा जाता है। ऐसे जीव आत्म स्वभाव विमुख रहते हैं, तथा देह और आत्मा को एक समझते हैं । मिथ्यादृष्टि जीव अनेक प्रकार के कर्मों से बंधे हुए संसार में परिभ्रमण करता रहता है । मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती जीव दर्शन मोहनीय कर्म प्रकृतियों के प्रगाढ़ बंधन में बंधा होने के कारण तत्वार्थ श्रद्धान से विमुख रहता है । २. सासादन गुणस्थान सासादन गुणस्थान, मिथ्यात्व गुणस्थान की अपेक्षा विकास कहा जा सकता है । परन्तु यथार्थ में यह आत्मा की पतनोन्मुख अवस्था का द्योतक है । कोई भी जीव प्रथम गुणस्थान से विकास करके यहां नहीं आता, बल्कि ऊपर की विकासात्मक श्रेणियों से पतित होकर पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त होने से पूर्व इस गुणस्थान को प्राप्त होता है । तीव्र कषाय जागृत होना ही जीव के पतन का कारण है । इस गुणस्थान में गिरने वाले जीव का सम्यक्त्व दृढ़ नहीं होता है । ३. मिश्र गुणस्थान सम्यक् और मिथ्या मिश्रित श्रद्धा और ज्ञान को धारणा करने की अवस्था विशेष ही सम्यग् - मिथ्यात्व या मिश्र गुणस्थान कहलाती है । यह एक अनिश्चय की अवस्था है जिसमें जोव सत्य और असत्य के मध्य भूलता रहता है । वह न तो सत्य की ओर उन्मुख हो पाता है और न ही असत्य को स्वीकार कर पाता है । सम्यक् बोध को प्राप्त चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीवों में जब सम्यक् बोध के प्रति सशय उत्पन्न हो जाता है, उसी समय वे पतित होकर इस अनिश्चय की अवस्था को प्राप्त होते हैं । प्रथम गुणस्थानवर्ती जीव जब सम्यक् बोध की अवस्था विशेष की ओर उन्मुख होता है, उस समय भी मिथ्यात्व को त्यागने और सम्यक्त्व को ग्रहण करने से पहले जीव क्षणभर के लिए इस अनिश्चयात्मक अवस्था को प्राप्त होता है। इस प्रकार इस गुणस्थान से जीव पहले या चौथे गुणस्थान में ही जा सकता है । यह गुणस्थान बहुत कम समय के लिए होता है तथा इसमें मरण नहीं होता है । मोहनीय कर्म की दर्शन मोह की अवस्था में ही मिश्र भावों का उदय होता है जिसे मिश्र मोहनीय कर्म कहते हैं । ४. असंयत सम्यग्दृष्टि पहले या तीसरे गुणस्थानवर्ती जीव जिस समय सम्यक्त्व की ओर उन्मुख होता है तो वह इस चतुर्थ गुणस्थान में आ जाता है । इस गुणस्थान वाले जीव की श्रद्धा खण्ड २३, अंक २ २१९ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् होती है, लेकिन वह संयम धारण नहीं कर पाता है । इसीलिए उसे असंयत सम्यग्दृष्टि कहा जाता है । सम्यग्दृष्टि जीव तीन प्रकार के होते हैं- औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक । ये तीनों अवस्थायें मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियों ( दर्शन मोह की तीन और अनन्तानुबंधी चतुष्क) के प्रशम ( उपशम), क्षय या क्षयोपशम से प्राप्त होती हैं । इन प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक, क्षय से क्षायिक तथा क्षयोपशम से क्षायोपशमिक सम्यकदृष्टि होता है । औपशमिक सम्यकदृष्टि जीव जिस समय दर्शन मोह की प्रकृतियों का उपशम कर या दबाकर आगे बढ़ता है, उस समय उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है । इसकी तुलना ऐसे जल से की जाती है जिसका मल नीचे बैठ गया हो । यद्यपि ऐसा सम्यक्त्व वर्तमान अवस्था में शुद्ध होता है, परन्तु अशुद्ध होने की शीघ्र संभावना होती है । यह सम्यक्त्व चौथे गुणस्थान से प्रारंभ होकर ग्यारहवें गुणस्थान तक रहता है । क्षायिक सम्यक दृष्टि कर्मों का क्षय करने वाला जीव क्षायिक सम्यकदृष्टि होता है । उपर्युक्त सात प्रकृतियों के सर्वथा क्षय या विनाश से जीव क्षायिक सम्यकदृष्टि होता है । यह सम्यक्त्व आगे के सभी गुणस्थानों में स्थिार रहता है तथा कभी विनाश को प्राप्त नहीं होता है । क्षायोपमिक सम्यकदृष्टि जीव जब वासनाओं का आंशिक रूप से क्षय और आंशिक रूप से उपशम करके यथार्थता का बोध करता है, तो उस समय उसे क्षायोपशमिक सम्यक्दृष्टि कहा जाता है । इस सम्यक्त्व में मलिनता रहती है, अतः दमित वासनाओं के पुनः प्रकट होने की संभावना रहती है । क्षायोपशमिक सम्यकृदृष्टि जीव की स्थिति वृद्ध पुरुष जैसी होती है जो शिथिलतापूर्वक लकड़ी पकड़कर चलता है तथा वृद्ध के गिर जाने की संभावना रहती है । क्षायोपशमिक सम्यकदृष्टि जीव चतुर्थ असंयत गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्त गुणस्थान तक रहते हैं । इसके आगे की श्रेणियों में जीव का सम्यक्त्व क्षय अथवा उपशम में से एक श्रेणी को प्राप्त कर लेता है । ५. संयतासंयत गुणस्थान संयम धारण करने वाला संयत कहलाता है और अभ्यास करने की दशा में कुछ संयम और कुछ असंयम अर्थात् देशसंयम धारण करने वाले को संयतासंयत कहते हैं । अतः संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव त्रस जीवों की हिंसा से संयत होते हुए भी स्थावर जीवों की हिंसा से संयत नहीं होता है । इस गुणस्थान की प्राप्ति के लिए 'अप्रत्याख्यानावरणीय' नामक चार कषायों पर नियन्त्रण करना होता है । इन कषायों के दूर होने पर ही श्रावक देश आचरण करने में समर्थ होता है । इस गुणस्थान से आगे प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ का बन्ध नहीं होता है । २२० तुलसी प्रशा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. प्रमत्त संयत गुणस्थान प्रमत्त (प्रमाद या आलस्य से मुक्त) होते हुए भी जो जीव संयम को प्राप्त होते हैं, उन्हें प्रमत्त गुणस्थानवर्ती कहते हैं । इस गुणस्थान में जीव का संयम एक देश न होकर पूर्ण है हिंसादि पांच पापों का यहां त्याग हो जाता है । इस गुणस्थानवी जीव अनन्तानुबंधी, प्रत्याख्यान और अप्रत्याख्यान कषायों को उपशमित कर चुका होता है, परन्तु संज्वलन नामक मन्द कपाय और हास्यादि नौ नोकषाय उदय में होते हैं। इन कषायों को ही प्रमाद कहा जाता है । प्रमाद के रहने से संयम नष्ट नहीं होता है, परन्तु संयम में दोष आ जाता है। इस गुणस्थान में जीव बहुत कम समय के लिए होता है । इसका अल्पतम काल एक समय तथा अधिकतम काल एक मुहूर्त है । इस काल के पश्चात् जीव यदि प्रमाद पर विजय प्राप्त कर ले तो सातवें, अन्यथा पांचवें गुणस्थान में आ जाता है। ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान इस गुणस्थान में जीव में प्रमाद जनित कर्मों (पन्द्रह प्रमादों) का अभाव हो जाता है अर्थात् संज्वलन कषायें तथा नोकषायें समाप्त हो जाती हैं । अप्रमत्तसंयत जीव में यदि किसी कारणवश संक्लेश परिणामों की वृद्धि हो जाये तो वह प्रमत्त गुणस्थान में, और यदि विशुद्ध परिणामों की वृद्धि हो जाये तो वह आगे के 'अपूर्व कारण गुणस्थान' में चला जाता है । परन्तु मृत्यु के समय जीव चतुर्थ गुणस्थान में आ जाता इस गुणस्थान से आगे जीव दो रूपों में कर्मों पर विजय प्राप्त करता है जिसे श्रेणी कहा जाता है । ये हैं उपशम श्रेणी तथा क्षपक श्रेणी । उपशम श्रेणी __इसमें चारित्र मोहनीय कर्म का समूल नाश नहीं होता है बल्कि दमन मात्र होता है । इस श्रेणी से चढ़ता हुआ जीव मात्र ग्यारहवें गुणस्थान तक जाता है तथा फिर वह निश्चित रूप से नीचे गिरता है। क्षपक श्रेणी जब जीव चारित्र मोहनीय कर्म को समूल नष्ट करता हुआ आगे बढ़ता है तब उसे क्षपक श्रेणी वाला कहा जाता है । क्षयक श्रेणी द्वारा आगे बढ़ने वाला जीव अंतिम गुणस्थान तक पहुंच जाता है । ८. अपूर्वकरण गुणस्थान इस गुणस्थान में चारित्र मोह के आवरण दूर हो जाते हैं तथा संज्वलन कषाय शेष रह जाती हैं। अन्य कषायों को उपशम श्रेणी वाला जीव उपशमित कर देता है । तथा क्षपक श्रेणी वाला जीव क्षय (नष्ट) कर देता है । चारित्र मोह के आवरण के के अत्यन्त मन्द हो जाने से आत्मा में एक विशिष्ट प्रकार की अपूर्व शक्ति उत्पन्न हो जाती है, इसीलिए इस गुणस्थान को अपूर्वकरण कहा जाता है । खण्ड २३, अंक २ २२१ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. अनिवृत्तिकरण बादर साम्पराय गुणस्थान जिन परिणामों की निवृत्ति नहीं होती उन्हें अनिवृत्ति तथा स्थूल कषायों की बादर साम्पराय कहते हैं । इस प्रकार अनिवृत्ति रूप स्थूल कषायों को अनिवृत्ति बादर साम्पराय कहते हैं । इस गुणस्थान वाले जीब के तीनों प्रकार के भेद (स्त्री, पुरुष और नपुंसक) तथा क्रोध, मान, माया और स्थूल लोभ का पूर्णरूपेण क्षय या उपशम हो जाता है । इस गुणस्थान के आगे सूक्ष्म लोभ को छोड़कर संज्वलन कषायों तथा भेद का बंध नहीं होता है । १०. सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान इस गुणस्थान की प्राप्ति चारित्र मोह की अट्ठाईस कर्म प्रकृतियों में से सत्ताईस के क्षय अथवा उपशम से होती है । एक मात्र सूक्ष्म रूप से संज्वलन लोभ शेष रह जाता है। इस गुणस्थान के आगे पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पांच अन्तराय, यशःकीति और उच्च गोत्र इन सोलह प्रकृतियों का बंध नहीं होता है । इस गुणस्थान तक वेदनीय कर्म की साता प्रकृति को छोड़कर शेष सभी की बंध व्युच्छित्ति हो जाती है । इस गुणस्थान से जीव ग्यारहवें या बारहवें गुणस्थान में से एक में आरोहण कर सकता है, या फिर नोवे गुणस्थान में गिर सकता है। ११. उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान जिन जीवों के कषाय उपशांत हो गए है और राग विनष्ट हो गया है, परन्तु ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मों के सूक्ष्म आवरण से जो आवत्त हैं, वे जीव उपशांत कषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान वर्ती कहे जाते हैं । अतः इस गुणस्थान में केवल उपशांत कषाय वाला जीव ही आरोहण करता है तथा अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक रहने के बाद पुनः नीचे गिर जाता है । १२. क्षीण कषाय वीतराग छमस्थ गुणस्थान क्षपक श्रेणी वाला जीव ग्यारहवें गुणस्थान में न जाकर दसवें से सीधे बारहवें गुणस्थान में आता है । सबसे प्रबल माने जाने वाला मोहनीय कर्म का आवरण इस गुणस्थान में पूर्णतया नष्ट हो जाता है । परन्तु ज्ञान और दर्शन के किंचित् मात्र आवरण शेष रह जाते हैं इस गुणस्थान में आकर जीव फिर नीचे नहीं गिरता है। यह चारित्र की उच्चतम अवस्था है । १३. सयोग केवली गुणस्थान इस गुणस्थान में जीव के चारों घातिया कर्म नष्ट हो जाते हैं । कर्म बंध के पांच कारणों (मिथ्यात्व, अबिरति, प्रमाद, कषाय तथा योग) में से योग को छोड़कर शेष चार कारण भी नष्ट हो जाते हैं तथा केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाती है । योग के कारण इस गुणस्थानवी जीव को सयोग केवली कहा जाता है। २२२ तुलसी प्रज्ञा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. अयोग केवली गुणस्थान ___ इस गुणस्थान में कर्म बंध का अन्तिम कारण योग भी नष्ट हो जाता है । अघातिया कर्म भी क्षीण हो जाते हैं । इस गुणस्थान में जीव बहुत कम समय के लिए रहता है तथा आयु पूर्ण होने के बाद मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है । मोक्ष प्राप्त हो जाने पर कोई गुणस्थान नहीं रहता है। -डा० अनिलकुमार जैन १२, शारदा कृपा सोसाइटी पो० चांदखेड़ा, अहमदाबाद-३८२४२४ खण्ड २३, अंक २ २२३ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सृष्टि' पर एक दृष्टिपात - प्रतापसिंह [प्रो० प्रतापसिंह 'तुलसी प्रज्ञा' के सुधी पाठकों के जाने पहचाने लेखक हैं। वयोवृद्ध प्रोफेसर ने प्रस्तुत आलेख में जैन और जेनेतर-वैदिक दृष्टिकोण से सृष्टि पर एक विहंगम दृष्टिपात किया है। -संपादक] आध्यात्मिक क्षेत्र में मुख्य रूप से दो ही वर्ग सामने आते हैं-आस्तिक और नास्तिक । एक वे जो वेदान्त सूत्र (१-१-२)-- जन्माद्यस्य यतः के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयं कर्ता एक परमात्मा को मानते हैं। इन्हें आस्तिक कहते हैं । दूसरे वे जो ऐसा नहीं मानते हैं, वे नास्तिक वर्ग में आते हैं। परन्तु मनु महाराज कहते हैं-'नास्तिको वेद निन्दकः' जो वेद की निन्दा करता है वह नास्तिक है। इतने पर भी हमारे सामने दो और रूप-द्वैतवाद और अद्वैतवाद आते हैं। चेतन अद्वैतवाद एक चेतन परमात्मा से चेतन आत्मा और जड़ सष्टि दोनों का जन्म मानता है कि जड़ और चेतन सृष्टि दोनों परमात्मा का अंश है और प्रलय या मोक्ष पर दोनों परमात्मा में विलीन हो जाते हैं । जड़ अद्वैतवाद जड़ व चेतन दोनों का जन्म जड़ से मानता है। किसी विशेष स्थिति या अवस्था में जड़ सृष्टि में रसायनिक प्रक्रिया से चेतन उत्पन्न हो जाता है और किसी विशेष अवस्था में ऐसी रसायनिक प्रक्रिया से चेतन नष्ट हो जाता है तो जड़ ही जड़ रह जाता है। कुछ द्वैतवादी इस सृष्टि को सदा से ऐसी ही चली आ रही मानते हैं। इसका कोई सर्वज्ञ सर्वव्यापी सत्ता-कर्ता परमात्मा नहीं है। यह जड़ चेतन सृष्टि अनादि अनन्त है । इसी वर्ग में जैन समाज आता है। इस प्रकार अनेकों भेद प्रभेद हैं। इनमें एक वैतवादी भी है जो प्रकृति, आत्मा और परमात्मा तीनों को अनादि अनंत स्वतंत्र सत्ताएं मानते हैं । चेतन अद्वतवादी और तवादी दोनों अपने आपको वेदवादी कहते हैं। मैंने अपने इस लेख-सृष्टि पर दृष्टिपात में तवादी और जैन समाज के दृष्टिकोणों को अपने स्वाध्याय के आधार पर स्पष्ट करने का प्रयास किया है। जैन दृष्टि में सृष्टि अनादि अनन्त है। सृष्टि सदा से ऐसी ही चली आ रही है और चलती रहेगी। सष्टि का न कभी जन्म हुआ है, न कभी विनाश होगा, सृष्टि शाश्वत है । वैदिक दृष्टि भी वही है परन्तु दृष्टिकोण में अन्तर है । वैदिक दृष्टि सृष्टि का प्रलय, विनाश और अन्त भी मानती है। सृष्टि और प्रलय दोनों को वैदिक दृष्टि सांत एक-एक कल्प की अवधि का मानती है कि सृष्टि के पश्चात् प्रलय, प्रलय के खंड-२३, अंक-२ २२५ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चात् सृष्टि का चक्र, अनादि अनन्त होते हुए प्रवाह से शाश्वत है। यही वैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि सृष्टि में पदार्थ व ऊर्जा की मात्रा स्थिर है। इनका कभी विनाश नहीं होता, अवस्था में परिवर्तन होता है। कभी न घटती है, न बढ़ती है। वैदिक और जैन दृष्टिकोण में यह अन्तर है कि जैन दृष्टि सृष्टि को शाश्वत मानती है, प्रलय को नहीं मानती है । वैदिक दृष्टि सृष्टि को प्रवाह से शाश्वत मानती है और प्रलय को भी सृष्टि समान अवधि एक-एक कल्प का मानती है। एक कल्प की सृष्टि, एक कल्प का प्रलय की अवधि को ब्रह्मा का दिन रातअहोरात्र वैदिक दृष्टि है । ३० ब्राह्म अहोरात्र का एक ब्राह्म मास, १२ ब्राह्म मास का एक ब्राह्म वर्ष तथा १०० ब्राह्म वर्ष (सूर्य सिद्धान्त १-२१) ब्रह्मा की आयु है। वर्तमान २९वां श्वेत वाराह कल्प ब्राह्म मास का प्रथम दिन है। इससे पहले २८ कल्प व्यतीत हो चुके हैं। इस प्रकार का उल्लेख भारतीय शास्त्रों में पाया गया है (डॉ० सोलंकी)। ब्रह्मा की आयु ही मोक्ष की अवधि है, इसे मुण्डक उपनिषद् (३-२-६) महाकल्प या परान्तकाल कहता है। मेरे विचार से इस सीमित आयु वाला ब्रह्मा सृष्टि व प्रलय कर्ता नहीं हो सकता है । सृष्टि, प्रलय, वेदकर्ता तो कोई अजर, अमर, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, अनादि, अनन्त, सर्व शक्तिमान् स्रष्टा ही हो सकता है जिसे वैदिक दृष्टि परमात्मा आदि नामों से पुकारती है । गणित की परिभाषा में परमात्मा, God, खुदा आदि नाम वाले की परिभाषा है कि परमात्मा एक वृत्त के समान है जिसका केन्द्र सब जगह पर है परन्तु उसकी परिधि कहीं नहीं है। वह अनन्त है। सर्वव्यापी है, कणकण वासी है, ज₹-जर्रे में निहां है । विज्ञान मानता है कि सृष्टि परिवर्तनशील है। ऋग्वेद मंत्र (१०-५०-५) कहता देवस्य पश्य काव्यं महित्वाऽद्या ममार स ह्यः समान । कि परमात्मा की कृति सृष्टि को देख जो आज मरती है कल जन्म लेती है। सृष्टि में जन्म-मृत्यु का चक्र चल रहा है । सृष्टि की हर अवस्था, हर रूप में हर समय परिवर्तन दिखाई दे रहा है। दिन के पश्चात् रात, रात के पश्चात् दिन, परिवर्तन का यह चक्र चल रहा है । अहोरात्र का यह चक्र अनादि अनन्त, जैन दृष्टि है। वैदिक दृष्टि इस अहोरात्र के चक्र को प्रवाह से अनादि अनन्त शाश्वत कहती है । विज्ञान की यह मान्यता है कि जहां परिवर्तन है, वह कभी न कभी प्रारम्भ हुआ होगा तथा उसका अन्त भी होगा। अहोरात्र सूर्य से होते हैं तो सूर्य भी सांत है। वर्तमान से पहले १९६०८५३०९७ वर्ष पूर्व श्वेत वाराह कल्प, सष्टि कल्प २९वां कल्प, चैत्र शुक्ला प्रतिपदा रविवार के दिन सूर्योदय के क्षण शुरू हुआ था। वर्तमान में सृष्टि दिन का दोपहर नहीं हुआ है, होने वाला है। प्रलय होने में अभी दो प्रहर से कुछ अधिक समय शेष है (संकल्प सूत्र)। वैदिक दृष्टि जड़ सृष्टि के दो रूप मानती है, व्यक्त और अव्यक्त, सृष्टि और प्रलय, दृश्य और अदृश्य, कार्य और कारण । जो कुछ हमारी ज्ञानेन्द्रियों से अनुभव होता है, जो प्रत्यक्ष है, जो दृष्टि में है, कुछ पास है, कुछ दूर है, कुछ परोक्ष है, कुछ २२६ तुलसी प्रज्ञा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमाणुरूप अति सूक्ष्म है, कुछ सूर्य आदि ग्रहों के समान दीर्घाकार है जिसे कठोपनिषद् -- अणोऽणीयान महतो महीयान कहता है । वैदिक दृष्टि इस सबको — इदम् सर्वम्, जगत्यां जगत् - यजु. (४० - १ ) मंत्र में कहता है । गीता इसे क्षरः सर्वाणि भूतानि कहती है । दर्शन इसे जड़ जगत् कहता है । वैदिक दृष्टि इन सबके तीन रूप मानती है--- स्थूल, सूक्ष्म और कारण । स्थूल सृष्टि आप हम सबके सामने है । सूक्ष्म सृष्टि अदृश्य है । यह परमाणु रूप अवस्था है । परमाणु को दर्शन व रसायनशास्त्र अदृश्य, अकाट्य पदार्थ के छोटे से छोटे कणों को कहता है जिसमें पदार्थ के गुण विद्यमान हों और रसायनिक प्रक्रिया में भाग लेते हों । परन्तु भौतिकी (Physics) ने इस परमाणु (atom) को तीन मूल कणों प्रटोन, न्यूट्रोन तथा इल्क ट्रोन में विखण्डित कर दिया है । अब पदार्थ परमाणु इन तीन सूक्ष्म कणों का संघात माना जाता है। सांख्य दर्शन परमाणु को सत्, रजस्, तमस् रूप कणों या गुणों का संघात कहता है । वैदिक दृष्टिकोण पदार्थ के परमाणुओं के इन तीन सूक्ष्म कणों सत्, रजस् व तमस् को कारण सृष्टि कहता है । इन तीनों की साम्यावस्था (Balanced state) को वैदिक दृष्टि प्रकृति, माया, अदिति आदि नामों से पुकारती है। प्रकृति ही सृष्टि की कारण अवस्था है । इसी का दूसरा नाम प्रलय अवस्था है । इस सूक्ष्म अवस्था के कण परमाणु (atom) की नाभि ( nucleus ) में प्रोटोन और न्यूट्रोन्स होते हैं । इस नाभिक की परिक्रमा इल्कट्रोन्स करते हैं जैसे हमारी पृथ्वी आदि ग्रह उपग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं । वैदिक दृष्टि का दूसरा पक्ष आस्तिक कोण है । यह सृष्टि में सृष्टि कर्ता, कृति कर्त्ता को देखता है। जैन दृष्टि में ऐसी कोई सृष्टि कर्त्ता, नियामक, नियन्ता, सर्वज्ञ सर्वव्यापी सत्ता नहीं है। जैन दृष्टि में सृष्टि सदा से ऐसी ही चली आ रही है तथा चलती रहेगी । सरसरी दृष्टि में यह धारणा वैज्ञानिक जड़त्व नियम (Law of Inertia) पर आधारित प्रतीत होती है। विज्ञान इस जड़त्व के नियम को इस प्रकार कहता है कि सृष्टि में कोई वस्तु जिस क्षितिज या गतिज किसी अवस्था में है, वह वस्तु अपनी उस अवस्था में बनी रहती है जब तक कोई बाहरी बल उसमें विक्षोभ उत्पन्न न करे । इस नियमानुसार सतही दृष्टि से सृष्टि अपनी इस अवस्था में बनी रहेगी । यह जैन दृष्टिकोण है । अतः सृष्टि शाश्वत प्रतीत होती है। सृष्टि के जड़त्व नियम के दूसरे भाग बाहि बल पर जैन दृष्टि नहीं पहुंची है । सृष्टि की हर क्रिया-प्रक्रिया में हर समय बुद्धि पूर्वक क्रमबद्ध व्यवस्था पर दृष्टि पड़ती है । आस्तिक मान्यता है कि सृष्टि में इस बुद्धि पूर्वक व्यवस्था में किसी सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सर्व नियन्ता, नियामक सत्ता के दर्शन हो रहे हैं । आध्यात्मिक कोण से इस सर्वव्यापी बाहि बल को परमात्मा माना गया है । ऋतं च सत्यं च अभिद्धावत् तथै उपजायते (ऋ. १०--- - १९० ) मंत्र की सृष्टि ऋतं सत्यं रूप है । जिस तत्व में अस्तित्व है, सत्ता, आकार आकृति परिमाण मात्रा है वह सत्य कहलाती है । जगत् के सब भौतिक पदार्थ सत्य हैं । प्रत्येक सत्य वस्तु में शक्ति, ऊर्जा, तेज, अग्नि होती है । सत्य और ऋत् का खंड २३, अंक २ २२७ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाश्वत् संबंध है । ये सृष्टि में कभी एक दूसरे से अलग नहीं होते हैं । सत्य वस्तु नाना रूपों आकारों मात्राओं में पायी जाती है । सत्य में ऋत् सदा निहित रहता है । विज्ञान इसे ही (matter and energy) कहता है जो शाश्वत् है वेद कहता है कि सत्य ऋत् के साथ शिव (सुरक्षित) है। बिना ऋत् के सत्य शव है, नष्टप्राय: है। विभिन्नता सत्य में नाना ऋत् रूप होते हैं। वह कठोपनिषद सूत्र (२-२-९) अग्निरथको भुवनं प्रविष्टो रुपं रुपं प्रतिरूपो बभूव ॥ लम्बे चौड़े गोल छोटे बड़े आकार आकृति वाले पदार्थों में अग्नि-ऊर्जा व्यापक होकर तदाकार दिखाई देती है और उससे पृथक भी है। विज्ञान इस ऊर्जा शक्ति के मुख्य दो रूप स्थितिज व गतिज (Potential and kinetic) कहता है। महाशय आइन्सटीन ने इस ऋत् सत्य (matter and energy) के सम्बन्ध को E=mc. समीकरण से प्रदर्शित किया है । m किसी कण की मात्रा, जो प्रकाश वेग C से गतिशील है तो वह ऊर्जा E के बराबर होगा । जब समस्त दृश्य सृष्टि प्रलयावस्था में होती है तो सत, रजस्, तमस सबकी साम्यावस्था (Balanced state) में परमात्मा के आश्रय में सुप्त पड़ी होती है कोई हलचल नहीं होती है जैसा यजु. (३२-८) मंत्र कहता है-यत्र विश्वं भवत्येकनीडम् कि जैसे पक्षी दिन भर अपने दाना-पानी के लिए मारा मारा फिरता है तो संध्या समय अपने घोंसले में विश्राम पाता है। इस प्रकार सृष्टि के पश्चात् सृष्टि प्रलयावस्था में परमात्मा के आश्रय में सुप्त पड़ी रहती है। उस अवस्था में कोई दृश्यमान पदार्थ नहीं होता है। केवल कारण रूप में ऊर्जा ही ऊर्जा (स्थितिज-Potential energy) होती है। क्योंकि सुप्त अवस्था है, गतिज ऊर्जा नहीं होती है। यही गति हीन अवस्था प्रलयावस्था है। सृष्टि काल में सत् और ऋत दोनों का जोड़ा होता है । इस ऋत् व सत्य को प्रश्नोपनिषद् रयि और प्राण कहता है । इसी स्तर से प्रश्नोपनिषद् दृश्य सृष्टि की उत्पत्ति की व्याख्या करता है। विज्ञान और वैदिक दर्शन दोनों मानते हैं कि स्थूल सृष्टि का प्रथम रूप वायु थी। जो अन्तरिक्ष में समुद्रोणवः अरीता हुआ वायु कणों का समुद्र सा था जो तीव्र गति से घूर्णन कर रहा था। घूर्णन के कारण कणों में घर्षण होने से विशाल ताप उत्पन्न हो गया तो सब गैस पुंज प्रज्ज्वलित गैसों का गोला हो गया जिसे वेद हिरण्यगर्भ सूर्य कहता है । इस गैसीय ब्रह्माण्ड से सौर मण्डल के ग्रह उपग्रह शनैः-शनैः उत्पन्न हुए तो यह हिरण्यगर्भ सूर्य छोटा होता गया। आज भी वैदिक ज्योतिष बता रही है कि सूर्य में माठर, कपिल और दण्ड नामक तीन ग्रह बन रहे हैं। इनके सूर्य से पृथक होने पर सूर्य का अस्तित्व ही नहीं रहेगा। जिससे सौर मण्डल का सन्तुलन नष्ट हो जाएगा और सब परस्पर टकरा कर नष्ट हो जायेंगे। प्रलय हो जाएगा जैसे इस कल्प की समाप्ति पर होना है। इसीलिए-सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च कि सूर्य सबका आत्मा है। यह सूर्य हो-येन चौरपा पृथ्वी च बढ़ा-सबको अन्तरिक्ष में दृढ़ता से पकड़े हुए था। इसीलिए परमात्मा का एक नाम सूर्य भी है। जड़त्व के नियम का दूसरा भाग बाहि बल ही अध्यात्मिक दृष्टि से, आस्तिक दृष्टि से परमात्मा कहा है। १२८ तुलसी प्रज्ञा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दृष्टि में ऐसी कोई सर्वश सर्वव्यापक सत्ता नहीं है । ऐसा ही आस्तिक संकेत शायर देता है वह कौन है जो जरे जमीं इसे गुदगुदाता है। कि हर कली मुस्कराती हुई निकलती है ॥ जड़ कभी कर्ता नहीं होता। दर्शन या विज्ञान चेतन को ही स्वतंत्र कर्ता मानते हैं जिसे ऋ. मंत्र (१-१६४-४६)-एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति कहता है कि विद्वान् जन जिसे परमात्मा, ब्रह्मा, God, खुदा, स्वयंभू आदि नामों से अपने देश काल संस्कृति पर्यावरण के अनुसार एक मानते हुए बहु नामों से पुकारते हैं। घड़ी को देख कर उसके बनाने वाले का ध्यान स्वयं आ जाता है। घड़ी बनाने वाले कर्ता या घड़ी बनने के नियमों की तरफ बलात् ही ध्यान जाता है। घड़ी के बनाने व चलने के कुछ नियम हैं तथा कोई कर्ता है। क्या घड़ी आपकी मेज पर, आपकी कलाई पर, आपके कमरे की दीवार पर, क्या सदा से लगी आ रही है। शिशु शकुन्तला को मेनका द्वारा ऋषि विश्वामित्र को सौंपने का चित्र, क्या प्रसिद्ध चित्रकार रवि वर्मा की याद ताजा नहीं करता है । क्या रंग-बिरंगे ब्रुश कहीं से कूद-कूद कर चित्र बना गए हैं। जहां कृति है वहां कर्ता है। सूर्य चन्द्रमा नक्षत्र आदि महान् घड़ियां क्या उसके कर्ता परमात्मा की ओर नहीं ले जाती है? दर्शन, उपनिषद् आदि सब उसी की शरण में जाने की प्रेरणा देते हैं। कोई मानव चोरी आदि पाप कर्म कर क्या अपने आप जेल जाता है ? भेजा जाता है । कोई भेजने वाला है, नियामक है, नियन्ता है, कर्मफल प्रदाता है जो हर जीव को उसके कर्मानुसार नाना योनियों में जन्म देता है। जिसे योग दर्शन सूत्र —ईश्वरः कारणं पुरुष कर्मफल्य वर्शनम् कहता है कि ईश्वर जीव का कर्मफल प्रदाता है। इसी न्याय व्यवस्था को देखकर शायर कहता है मरकर भी कभी फटी है वे हयात । मगर फर्क इतना है कि जज़ीर बदल जाती है । जैन दृष्टि में पुद्गल जड़ परमाणु हैं। कर्म पौदलिक द्रव्य रूप है। कर्म जड़ द्रव्य है । पुराने जैन ग्रन्थों में आत्मा शब्द प्राप्त नहीं है । जीव शन्द ही काम में आता था । सदेह आत्मा को जीव कहते हैं। आत्मा+पुद्गल =जीव जैन दृष्टि है। वैदिक दृष्टि भी ऐसी ही है आत्मा पर पंच भौतिक सृष्टि अर्थात् भौतिक स्थूल शरीर का जब प्रध्यारोपण होता है तो आत्मा+शरीर-जीव कहलाता है। आत्मा अमूर्त चेतन है कर्म पुद्गल के संश्लेषण से जीव कहलाता है। इसे बन्ध कहते हैं। इन्द्रियां व इनके विषय मूर्तमान हैं । जीव अपमे मन, वचन, काय प्रवृत्तियों से जड़ पुद्गलों को आकर्षित करता है। यह प्रवृत्तियां बन्ध जीव में होती हैं। सकर्म कर्ता ही बन्ध है। यह बन्ध किसी निश्चित अवधि के लिए होता है । आत्मा के बद्ध कर्मों का नाश मोक्ष है। कृत्सन् कर्म क्षयो मोक्षः-तत्वार्थ सूत्र (१०-३) कहता है। जैन दृष्टि आत्मा को शरीर परिमाण का मानता है । चींटी की योनि में संकुचित होकर तथा जब हाथी की योनि में जाती है तो हाथी के शरीर परिणाम की हो जाती है, ताकि हर सूक्ष्म अंग बर २३, षक २ २२९ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का ज्ञान प्राप्त कर सके । वैदिक दृष्टि में भी आत्मा अशरीरी ही नहीं वरन् अभौतिक भी है, अणु है। मस्तिष्क गत हृदय देश पुरी वत् त्रिविष्ठ पर बैठी है। सूक्ष्म शरीर इसे आवेष्ठित किए रहता है। जिन ज्ञानेन्द्रियों के साथ मन संयुक्त होता है, उसीउसी विषय का ज्ञान क्रमवत् होता है। भौतिक जड़ पुद्गल अमूर्त अभौतिक आत्मा से आकर्षित नहीं हो सकते, यह अवैज्ञानिक है । आकर्षण तो जड़ कणों पिण्डों में होता है जिसे न्यूटन ने विज्ञान जगत् को दिया जिसे गुरुत्वाकर्षण बल (Gravitional force of attraction) कहते हैं । जो अभौतिक तत्वों पर नहीं होता है। अतः कर्म पुद्गल अभौतिक आत्मा पर न चिपकते हैं, न छोड़ जाते हैं। कर्म तो क्रिया है जो अपना प्रभाव आत्मा पर डालते हैं । इसे ही संस्कार कहते हैं जो इसी जन्म वा पुनर्जन्म में आत्मा से लगा रहता है । आयुर्वेद, ऐलोपैथी, मनोविज्ञान आदि नस-नाड़ियों के जाल शरीर की चीर फाड़ कर वा चित्रों से डॉक्टरों, वैद्यों आदि को दिखाते हैं। मानव रीढ़ के ८ चेतन केन्द्रआज्ञा चक्र से सब परिचित हैं। जड़ अकर्ता अभोक्ता है । जड़ परार्थ है, वह भोग्य है। चेतन आत्मा अन्ताद् तो जड़ उसका अन्त है। जड़ पुद्गल स्वयं नहीं चिपक सकते, न छोड़ सकते हैं फिर फल प्रदाता कैसे हो सकते हैं । परमात्मा ही सृष्टि कर्ता, कर्म फल प्रदाता है, स्वयं अभोक्ता साक्षी चेतन प्रलयकर्ता है । जड़ चेतन में स्वधर्म भेद है, अवस्था भेद नहीं है। जड़ में चेतन और चेतन में जड़ के गुण नहीं होते हैं। जड़ पुद्गल को स्वयं कर्मफल भोक्ता वा कर्मफल प्रदाता मानने पर स्वधर्म परिवर्तन होगा अर्थात् जड़ से चेतन या चेतन से जड़ उत्पन्न होगा। यह विचार अवैज्ञानिक अदार्शनिक है क्योंकि जड़ से जड़ बनता है, चेतन से चेतन जन्म लेता है। चेतन जड़ का भोक्ता है, जड़ चेतन का भोग्य है । यही योग दर्शन सूत्र (२-१८) कहता है-'भोगापवर्गार्थ दृश्यम्' कि सृष्टि जीव के भोगार्थ व उन्नति के लिए है । सृष्टि परार्थ है। परमात्मा की दूसरी काव्य कृति वेद है जैसा अथर्ववेद मंत्र (१०-८-३२) कहता है-देवस्य यश्य काव्यं न ममार न जीरयति । वेद ज्ञान शाश्वत् है, न कभी पुराना होता है, न कभी मरता है । परमात्मा ने मनुष्य के ज्ञान व्यवहार के लिए उसके जन्म के साथ ही दिए हैं । जैसा यजुर्वेद मंत्र (४०-८) कहता है कि परमात्मा अपनी जीव रूप सनातन अनादि प्रजा को अपनी सनातन विद्या से यथावत् अर्थों का बोध वेद द्वारा कराता है कि मानव जन्म ही से सत् कर्म व्यवहार कर सके। ___ अथर्ववेद मंत्र (८-२-२१) सृष्टि की आयु ४३२४१०° मानव वर्ष १ कल्प१००० चतुर्युग देता है । यही अवधि प्रलय की भी है। सूर्य सिद्धान्त सूत्र (१-२०) भी वही कहता है। युगों का अनुपात भी ४:३:२:१ देता है जिसके आधार पर कलि ४३२०००, द्वापर ८६४०००, त्रेता १२९६०००, सत् १७१८००० वर्ष होता है । चारों का योग भी १० कलि, ४३२०००० वर्ष होता है। जिसे महायुग या चतुर्युग कहते हैं । १ कल्प-१००० चतुर्युग । वर्तमान सृष्टि कल्प को श्वेत वाराह कल्प कहते हैं। इससे २३० तुलसी प्रशा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले वृहत् कल्प प्रलय था । प्रलय की समाप्ति क्षण वर्तमान श्वेत वाराह कल्प प्रारम्भ हुआ। इसी क्षण को ज्योतिष हिमाद्रि ग्रन्थ अथवा ज्योतिषाचार्य भास्कर कृत सिद्धान्त शिरोमणि ग्रन्थ में चैत्र शुक्ला प्रतिपदा रविवार सूर्योदय क्षण कहा है परमात्मा ने-- सोऽकामयत । बहुस्यां प्रजायेति---श्वेता. उप. (२-६) सूत्र अनुसार मैं बहुत होऊं, बहुत प्रजावान होऊ - की कामना की, तत् ईक्षत, तत् तपः तप्ता। उस परमात्मा ने सुप्त पड़ी प्रकृति में ज्ञान पूर्वक प्रेरणा दी तो सत्, रजस् वा तमस् की साम्यावस्था प्रकृति में विक्षोभ उत्पन्न हुआ और इन कणों में परस्पर आकर्षण विकर्षण से अन्योन्य मिथुनीकरण की प्रक्रिया होने लगी। जो परमात्मा के तप नियंत्रण में चलती रही । कुछ काल पश्चात् अपेक्षाकृत कुछ संघनन हुआ। इस सूक्ष्म अवस्था को महत्तत्व सांख्य सूत्र (१-६१) कहता है। इसका जो भाग मानव शरीर में आया उसे बुद्धि कहते हैं। सृष्टि आरम्भ से इस महत्तत्व अवस्था तक की अवधि को अनिर्देश्य कहा गया है । इस संघनन प्रक्रिया के कुछ और बाद जो अवस्था हुई उसे अहंकार कहा है । इस क्रम में प्रथम स्थूल द्वयणुक रूप वायु उत्पन्न हुई। इस अवधि की भी कहीं चर्चा नहीं है । इस स्थूल वायु तक के समय को सूर्य सिद्धान्त (१-२४) ४७४०० दिव्य वर्ष देता है । इसके पश्चात् सूर्य, ग्रह आदि की उत्पत्ति हुई। सातवें मनु में अमैथुनी मानब सृष्टि का जन्म हुआ जिसका काल निर्धारण संकल्प सूत्र १९६०८५३०९७ वर्ष करता है । इसे ही सृष्टि संवत् कहते हैं। द्वथणुक वायु प्रथम स्थूल अवस्था थी। यह गैसीय अवस्था थी जिसमें गैसीय दाव (Pressure) सब दिशाओं में सम होता है। इस कारण खगोल सृष्टि सब गोलाकार थी। पृथ्वी भी गोलाकार थी। पृथ्वी कक्षा भी वृत्ताकार थी। इसी आधार पर ऋ. मंत्र (१-१६४-४८) पृथ्वी व पृथ्वी कक्षा वृत्ताकार को बैलगाड़ी के लकड़ी के पहिए के समान कहता है जिसमें १२ राशियों रूपी १२ पुठी (प्रधयः) १२ मास, ३६० अरे समान ३६० अहोरात्र होते हैं। ____ अथर्ववेद मंत्र ९-९-८ कहता है कि पहले पृथ्वी सूर्य का अंग थी। फिर शनैःशनैः नियमानुसार सूर्य से पृथक् हुई फिर भी सूर्य गुरुत्वाकर्षण बल से बन्धी सौर परिक्रमा कर रही है। पृथक होते समय पृथ्वी भी सूर्य समान प्रज्ज्वलित गैसों का पुंज थी। बृहदा. उप. (३-७-२) सूत्र कहता है कि पथ्वी आदि आकाशीय पिण्डों को उनकी अक्ष (axis) पर अदृश्य प्रवाह वायु घुमाती है। दूसरी अदृश्य परिणाह वायु पृथ्वी आदि को उनकी कक्षा में परिक्रमा कराती है। इस गैसीय अवस्था से पृथ्वी शन:-शनैः ठण्डी हुई तो संघनन के कारण गुरुत्वाकर्षण बल अधिक होता गया। परन्तु पृथ्वी की तीव्र घूर्णन गति के कारण अभिकेन्द्रीय बल और अधिक बढ़ गया तो पृथ्वी अण्डाकार होती गई। विज्ञानशाला में मैं विद्यार्थियों को यह परिवर्तन एक सरल यंत्र से दिखाता था। यंत्र की गति के साथ वृत्ताकार से अण्डाकार होने का सुन्दर दृश्य होता था। इसी दशा को ऋग्वेद मंत्र (१-३७-८) तथा वृहदा. उप. (३-७-२) कहते हैं कि जैसे वृद्धावस्था में गृहस्थी के भार से सन्तानपति बृद्ध खण्ड २३, अंक २ २३१ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशक्त हो कमर झुक जाती है। उसी प्रकार पवनों के ढकोलों के भय से यह पृथ्वी २४ अंश झुक गई। इस प्रकार पृथ्वी की अण्डाकार आकृति अण्डाकार कक्षा, पृथ्वी का अपनी कीली पर झुकाव का वैज्ञानिक समाधान है। वृत्ताकार कक्षा में पृथ्वी की गति सम होती है। परन्तु अण्डाकार कक्षा में पृथ्वी की गति असम होती है। वर्षों से मैं गणितज्ञों, वैज्ञानिकों से पूछता आ रहा हूं कि समकोण में ९० अंश (degree) क्यों और कैसे होते हैं ? वर्ष में १२ मास, ३० अहोरात्र का मास, अहोरात्र में ८ प्रहर, ६ ऋतुएं का क्या आधार है ? सबका समान एक ही उत्तर था कि ऐसा माना गया है । परन्तु क्यों और कैसे ? किसी ने भी समाधान नहीं किया । वेद, दर्शन आदि के स्वाध्याय से मैंने पाया कि वेद ४, ब्राह्मण ४, वर्ण ४, आश्रम ४, पुरुषार्थ ४, आदि में अंक ४ की व्यापकता है। ऋ. मंत्र (१-१६४-४८) तथा अथर्ववेद मंत्र (१०-८-४) समान हैं जो कहते हैं कि पृथ्वी की गैसीय अवस्था में पृथ्वी तथा पृथ्वी की सौर कक्षा वृत्ताकार थी जो यह मंत्र बैलगाड़ी के लकड़ी के पहिए के समान उपरिलिखित है । ३६०-४४९०, ६x६०, ८४४५, १२४३० में विभाजित कर ४ समकोण, ६ ऋतुएं, ८ दिशाएं, १२ मास के रूप में गणना को कितना सरल बना दिया है। सौर परिक्रमा में पृथ्वी लगभग ३६६ अहोरात्र, चन्द्रमा ३५४ अहोरात्र तो २६६ १३५० =३६० औसत भी वेद मंत्र का समर्थन करता है । क्योंकि ३६६ और ३५४ अंशों में पृथ्वी कक्षा को किसी गणितीय वैज्ञानिक विधि से बांटना संभव नहीं है। इस जटिलता को वेद मंत्र सरलता में बदल देता है। ... खगोल में दूरियां इतनी विशाल है कि वृत्ताकार और अण्डाकार गणना में प्रतिशत अशुद्धि इतनी न्यून होती है कि नगण्य है। यहां वैदिक ज्योतिष के सरलीकरण की महानता है । अथर्ववेद मंत्र (४-२५-६) कहता है-अस्मिन् वेदः निहिता विश्व रूपा कि वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना सब मनुष्यों का परम धर्म है। ऐसा ही शतपथ ब्राह्मण कहता है-अनन्ता: वै वेदाः कि वेद ज्ञान अनन्त है। जो वेद में है वही सृष्टि में है। जो सृष्टि में देखते हैं वही वेद में लिखा है। वेद सृष्टि की पाठ्य पुस्तक है तो सृष्टि वेद की प्रयोग शाला है। प्रकृति में पृथ्वी की कक्षा अण्डाकार का होना अपना वैशिष्ट्य प्रभाव है। प्रकृति में अभिकेन्द्रीय बल का अपना वैशिष्ट्य है। आपने सामान्य जीवन में इस बल के करिश्मे देखे होंगे। सरकस में बन्द गोलाकार पिंजड़े में मोटर साइकिल का करतब । जब मोटर साइकिल सवार पिंजड़े की छत पर उलटा लटका होता है परन्तु गिरता नहीं है। छत से चिपका सा रहता है। मोटर साइकिल व सवार के भार से उस पर लगे अभिकेन्द्रीय बल कहीं ज्यादा होता जो उसे बल से चिपकाए रहता है। एक लोटा पानी भरा डोर में बन्धा जब ऊर्ध्वाधर वृत्त में घुमाते हैं तो लोटा सिर पर उलटा होता है परन्तु एक बूंद पानी नीचे नहीं गिरता है। जैसे आप सीधी सड़क पर से किसी मोड़ पर जाते हैं साईकिल स्वतः अन्दर की ओर झुक जाती है। मोटर, रेल, २३२ तुलसी प्रशा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 वायुयान आदि जब मुड़ते हैं तो मोड़ की अन्दर की तरफ झुक जाते हैं। बाहर वाले पहिए कुछ उठ जाते हैं। सोचने पर यह सब अचरज सा प्रतीत होता है। वक्रता पर झुकना प्रकृति सिखाती है। वक्र मोड़ पर = १० स्थिरांक (Consraut) जब V तथा R, वेग व वक्रता की त्रिज्या दोनों सेन्टीमीटर में हों इस नियम का पालन करना होता है । यदि वेग V अधिक है तो R भी अधिक होना चाहिए। मोड़ पर इस नियम का पालन न करते ही दुर्घटना होगी। जीवन पथ में वक्र मोड़ पर प्रकृति झुकना सिखाती है । प्रकृति की अनुकूलता में ही सुख है, विपरीतता में कष्ट है, दुःख है, दुर्घटना है। शायर चेतावनी देता है यही आईने कुदरत है, यही दस्तूरे गुलशन है। लचक जिनमें नहीं होती, वह शाखें टूट जाती हैं । -(प्रोफेसर प्रतापसिंह) १३६ सहेली नगर उदयपुर (राज.) पिन-३१३००१ खण्ड २३, अंक २ २३३ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिदास का "रामगिरि" कहां है ? . रमाशङ्कर तिवारी सुविख्यात गीतिकाव्य "मेघदूत" के प्रथम खण्ड “पूर्वमेघ" के प्रथम श्लोक में महाकवि ने बताया है कि कर्तव्य-स्खलन के कारण अलकापुरी के अधीश्वर कुबेर ने यक्ष को शाप दे दिया कि वह एक वर्ष तक अपनी प्रियतमा से वियुक्त रहे । इसी अभिशाप से ग्रस्त यक्ष ने रामगिरि के आश्रमों के मध्य अपना निवास रचाया "कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः। यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु स्निग्धच्छायातरुषु वसति रामगिर्याश्रमेषु ॥" यहां प्रश्न उल्लसित होता है कि यह रामगिरि कहां था ? प्रचुर विचार-मंथन के बाद विद्वानों ने यह स्थिर किया है कि नागपुर के समीपस्थ आधुनिक रामटेक ही रामगिरि है । "टेक" का अर्थ कोष के अनुसार ऊंचा "टीला" भी होता है, अर्थात् रामटेक छोटी पहाड़ी है, जो महाराष्ट्र में नागपुर के निकट अवस्थित है । इसी प्रकार, "मेघदूत" का आम्रकूट पंचमढ़ी का पर्वत है, यह भी प्रतिपादित हुआ है "त्वामासार प्रशमितवनोपप्लवं साधु मूर्ना वक्ष्यत्यध्वश्रमपरिगतं सानुमानाम्रकूट: ।" (१११७) पटना के तत्कालीन कमिश्नर स्व० एस०बी० सोहनी ने आकाशवाणी, पटना, से "मेघदूत' के ऊपर एक वार्ता प्रसारित की जो २ मई, १९६१ ई०, के हिन्दी दैनिक "आर्यावर्त" में प्रकाशित हुई। इसमें उन्होंने यह प्रतिपादित किया है कि रामगिरि रामटेक की पहाड़ी ही है। इसके लिए उन्होंने "पूर्वमेघ" के सोलहवें श्लोक की चौथी पंक्ति "किञ्चित् पश्चात् ब्रज लघुगतिर्भूय एवोत्तरेण" को उद्धृत किया है। इसकी ऊपरी तीसरी पंक्ति है "सद्यः सौरोत्कर्षणसुरभि क्षेत्रमा मालं।" इन पंक्तियों का सीधा-सामान्य अर्थ यह है कि "माल क्षेत्र" के ऊपर से जाते हुए तुम इस प्रकार से उमड़कर बरसना कि हल से तत्काल जुती हुई भूमि सुगंध से भर जाय। तब कुछ देर बाद तुम तनिक तीव्र गति से पुन: उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान कर देना । "स्मरणीय है कि "लघु" का अर्थ "चंचल" अथवा "ती" भी होता है। सोहनीजी का तर्क है कि "माल" कोई विशिष्ट भू-क्षेत्र का अंचल-विशेष नहीं है, अपितु "माल" का अर्थ है-ऊंची जमीन- “उन्नतंभूतलम्"। उनका यह खण्ड २३, अंक २ २३५ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनका प्रतिपाद्य है कि यक्ष का अभीष्ट था कि मेघ मालभूमि से उस दिशा में आगे बढ़े जो अधिकांशतः उत्तर तथा किचित् पश्चिम की ओर मुड़ने से निश्चित होगी । सिद्धान्त है कि मालभूमि से विदिशा तक जाने का मार्ग ( यक्ष को रामगिरि से विदिशा भी पहुंचना है) एक सीधी रेखा बन जानी चाहिए और वह मार्ग उसी दिशा में निर्मित हो सकता है जो अधिकांशतः उत्तर तथा तनिक पश्चिम मुड़ने से प्राप्त होगी । उन्होंने यह भी निरूपित किया है कि हाथी के शरीर पर श्रृंगार की आकृति समान दिखाई पड़ने वाला नर्मदा का प्रवाह हुशंगाबाद जिले में स्थित शोभापुर नामक स्थान है जिससे कुछ मील दूर वायव्य दिशा में नर्मदा के एक तीर पर पानी से सटे हुए पहाड़ दिखायी पड़ेंगे और दूसरे तीर पर समतल भूमि दीख पड़ेगी । इस प्रकार, सोहनीजी कर्कणा है कि मालभूमि, आम्रकूट (पंचमढ़ी) के पर्वत तथा शोभापुर के समीप नर्मदा एवं विदिशा ये चारों स्थान एक सीधी रेखा में पड़ते हैं साथ भी, एक ही दिशा में सीधे पड़ेंगे, अतएव रामगिरि रामटेक ही है । जो पुनः रामटेक के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सोहनीजी ने उक्त स्थानों की भौगोलिक स्थिति को महत्त्व दिया है और रामटेक के रूप में रामगिरि की पहचान है। किन्तु, प्रश्नों का प्रश्न यह उल्लसित होता है श्रीराम के चरणचिह्नों से अंकित ढालू चट्टानों " वन्द्यैः पुंसां रघुपतिपदैरङ्कितं मेखलासु" (११२) तथा प्रथम श्लोक में ही उल्लिखित सीताजी के स्नान से पवित्रीभूत "उदकों" का । अर्थात्, अयोध्या छोड़ने के बाद सीता-राम ऐसे ऊंचे स्थल पर निवास करते रहे जहां चट्टानों भरी स्वच्छ जलराशि उपलब्ध थी; पुनः उनका उस स्थान पर कुछ काल तक रहना भी आवश्यक था क्योंकि तभी तो राम चट्टानों पर टहलते होंगे तथा सीता नियमितरूपेण वहां स्नान करती होगी । यही मौलिक गवेषणा का विषय है । मेघ का मार्ग सीधी रेखा में पड़ता हो अथवा वक्र रेखा में - यह प्रश्न गौण है, कारण स्पष्ट है : कालिदास को यक्ष के मुख से अपने प्रिय स्थानों का निर्देश कराना है, जहां-जहां मेघ प्रवृत्ति - वाहन के यात्राक्रम में जायेगा और उसी ब्याज से कवि अपनी प्रिय-नगरियों का वर्णन करेगा । यदि मेघ के लिए सीधा मार्ग निर्दिष्ट करना ही कवि को अभीष्ट होता तो वह मेघ को पश्चिम की ओर मुड़ने की सलाह क्यों देता ? अतएव, मौलिक प्रश्न है : श्रीराम के चरणचिह्नों से अंकित शिलाओं की तथा सीता के नैत्यिक मज्जन करने वाले "उदकों" की पहचान करने का ? इस संदर्भ में यह भी कह देना वांछनीय प्रतीत होता है कि "उदकेषु " ( जलेषु ) का विद्वानों ने लक्ष्यार्थ ग्रहण किया है, "जलीकुण्ड " । अर्थात्, सीता उस स्थान में प्राप्त जल - कुण्डों में स्नान करती थीं । वर्तमान लेखक का प्रश्न है : "उदकेषु" का अभिधेयार्थ ही क्यों नहीं ग्रहण किया जाय, यानी, “जलराशि" या " जलप्रवाह" ? इस प्रसंग में एक विचारणीय तथ्य आदिकवि ने क्यों रामगिरि का उल्लेख २३६ ख यह भी उपस्थित होता है कि रामायण में नहीं किया ? ( कालिदास ने भी " पूर्वमेघ " तुलसी प्रज्ञा . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोड़कर "रघुवंश' में ही दण्डकारण्य, जन-स्थान तथा पंचवटी की चर्चा तो की है, किन्तु रामगिरि की क्यों नहीं की ? ) इस सन्देह का उत्तर यों प्राप्त किया जा सकता है कि वह संबद्ध स्थान बाद में, पश्चात्काल में, राम के नाम से जुड़ कर लोक में प्रसिद्ध हो गया होगा । इस संदर्भ में सर्वाधिक विचारणीय बिन्दु है कि रामगिरि ऐसा - पहाड़ या पहाड़ी होना चाहिए जहां, जैसा पूर्व कथित है- - राम ने सीता- लक्ष्मण के साथ अयोध्या छोड़ने के अनन्तर कुछ काल तक अवश्य निवास किया हो । ऐसे स्थल दो ही हो सकते हैं : चित्रकूट तथा पंचवटी । इनमें रामसीता का सम्बन्ध चित्रकूट से ही अपेक्षया अधिकालिक रहा है, पंचवटी में तो अल्पकाल में ही सीता का अपहरण हो गया था । अब आप वाल्मीकि की ओर तनिक देखें | लक्ष्मण और सीता के साथ श्रीराम प्रयाग में गंगा-यमुना-संगम के समीप भरद्वाज आश्रम में जाते हैं और उनका सत्कार करने के बाद भारद्वाज उन्हें चित्रकूट पर्वत पर ठहरने का आदेश देते हैं और इसी सातत्य में चित्रकूट की महिमा तथा प्राकृतिक शोभा का भी वर्णन करते हैं । वे चित्रकूट को महर्षियों द्वारा सेवित, सुन्दर तथा पवित्र पर्वत बताते हैं " महर्षिसेवितः पुण्यपर्वतः शुभदर्शनः ।" वहां बहुत से ऋषि, जिनके सिर के बाल वृद्धावस्था के कारण खोपड़ी की भांति सफेद हो गये थे, तपस्या द्वारा सैकड़ों वर्षों तक विहार करने के पश्चात् स्वर्गलोक को चले गये हैं 'ऋषयस्तत्र बहवो विहृत्य शरदां शतम् । तपसा दिवमारूढाः कपालशिरसा सह ॥' "" खण्ड २३, अंक २ " चित्रकूट में पहुंचकर श्रीरामादि वाल्मीकि का दर्शन करते हैं और राम के आदेश लक्ष्मण पर्णशाला का निर्माण करते हैं । भरत की चित्रकूट यात्रा के व्यवधान के बाद, श्रीराम द्वारा सीता को चित्रकूट की छटा दिखने तथा मन्दाकिनी की शोभा निर्दिष्ट करने का वर्णन आदिकवि ने किया है। उसने स्पष्ट कहा है कि श्रीराम वह पर्वत अत्यन्त प्रिय लगता था और वे वहां बहुत दिनों से रह रहे थे“दीर्घकालोषितस्तस्मिन् गिरौ गिरिवरप्रियः । " _____ सीता के प्रति चित्रकूट की प्राकृतिक सुरम्यता का वर्णन करते हुए श्रीराम कहते - ( अयो० वाल्मीकि०, ५४।२८ - ३१ ) "शाखावसक्तान् खङ्गाश्च प्रवराण्यम्बराणि च । पश्य विद्याधरस्त्रीणां क्रीडोद्देशान मनोरमान् ॥ जलप्रपातैरुद्धे दैनिष्पन्दैश्च क्वचित् क्वचिता । स्रवदिगर्भात्ययं शैलः स्रवन्मद इव द्विपः ॥ २३७ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुहासमरिणो गन्धान् नानापुष्पभवान् बहून् । घ्राणतर्पणमभ्येत्य के नरं न प्रहर्षयेत् ॥ xxx शिलाः शैलस्य शोभन्ते विशालाः शतशोऽभितः । बहुला बहुसैर्व नीलपीतसितारूणः ॥" -(अयोध्या० काण्ड, ९४।१२-१४; २०) —'इन किन्नरों के खङ्ग पेड़ों की डालियों पर लटक रहे हैं। इधर विद्याधरों की स्त्रियों के मनोरम क्रीड़ा-स्थलों तथा वक्षों की शाखाओं पर रखे हुए उनके सुन्दर वस्त्रों की ओर भी देखो। इसके ऊपर कहीं-ऊंचाई से झरने गिर रहे हैं; कहीं जमीन के भीतर से सोते निकल रहे हैं और कहीं-कहीं छोटे-छोटे स्रोत प्रवाहित हो रहे हैं। इन सबके द्वारा यह पर्वत मद की धारा बहाने वाले हाथी के समान शोभा पा रहा है । गुफाओं से निकली वायु नाना प्रकार के पुष्पों की प्रचुर गंध लेकर नासिका को तृप्त करती हुई किसका हर्ष नहीं बढ़ाती।x x x चारों ओर इस पर्वत की सैकड़ों शिलाएं शोभित हो रही हैं जो नीले, पीले, सफेद, लाल इत्यादि विविध रंगों से युक्त अनेकविध दिखायी पड़ रही हैं।' ९५वें सर्ग में श्रीराम ने सीता से मन्दाकिनी नदी की शोभा का वर्णन करते हुए यह बताया है कि इसके स्वच्छ जल में सिद्धजन तथा तपःपूत सिद्ध महात्मा लोग अवगाहन करते हैं और उसी क्रम में सीता से कहा है, "चलो, मेरे साथ तुम भी इसमें स्नान करो। x x x x x एक सखी दूसरी सखी के साथ जैसे क्रीडा करती है, वैसे ही मन्दाकिनी में उतरकर, इसके लाल-श्वेत कमलों को जल में डुबोती हुई इसमें स्नान-विहार करो "x x x x x विगाहस्व मया सह ॥ सखीवच्च विगाहस्व सीते मन्दाकिनीनदीम् । कमलान्यवमज्जन्ती पुष्कराणि च माभिनि ॥" -(वही, ९५।१३-१४) इसी सातत्य में श्रीराम ने मन्दाकिनी के जल को हाथियों, सिंहों तथा वानरों द्वारा मथित करने तथा पीने का उल्लेख किया है ___ "इमां हि रम्यां गजयूथलोडतां निपीततोयां राजसिंहवानरैः ।" राम ने सीता के साथ मन्दाकिनी में तीनों काल स्नान कर, मधुर फलमूल का आहार करते हुए, अयोध्या नहीं लौटने की कामना भी व्यक्त की है । (९५।१७) । इन उद्धरणों के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि चित्रकूट के प्रति श्रीराम के हृदय में परम अनुराग था और मन्दाकिनी में वे सीता-सहित नित्य स्नान किया करते थे। वनवास की अवधि में मुनि सुतीक्ष्ण के आश्रम के अतिरिक्त स्वल्पकाल व्यतीत करने का उनका प्रमुख स्थान गोदावरीतट-स्थित पंचवटी थी, जहां वे महर्षि अगस्त्य के आदेश से चले गये थे। पंचवटी के वर्णन में वह तन्मयता लक्षित नहीं होती जो चित्रकूट के वर्णन में। २३८ तुलसीप्रशा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपरिगत विवेचन के आलोक में रामगिरि की खोज की जा सकती है। यहां सबसे बड़ी बाधा यही है कि कालिदास ने "रघुवंश" में इसका उल्लेख नहीं किया । वहां तो रामकथा इतनी संक्षिप्त है कि सीता-विवाह (एकादश सर्ग) के पश्चात् की तमाम घटनाएं रावण-वध वाले द्वादश सर्ग में समेट दी गयी हैं। तब कालिदास ने 'मेघदूत' में रामगिरि की पहचान के लिए केवल दो संक्षिप्त कथन-- प्रथम श्लोक में "जनकतनयास्नानोदकेषु" तथा बारहवें श्लोक में "रघुपतिपदैरङ्कितं मेखलासु"-कर उलझन उत्पन्न कर दी है। अनुकूल दिशा में वायु के बहने की बात भी कही गयी है-- "मन्दं मन्दं नुदति पवनश्चानुकुलो यथा त्वां।” (१/९) __ अनुकूल पवन तथा अलका तक संबद्ध स्थलों की एक सीधी रेखा में अवस्थितिइसी को सर्वातिशायी आधार मानकर रामगिरि को नागपुर के समीपस्थ आधुनिक रामटेक की पहाड़ी निरूपित किया गया है । इस पृष्ठभूमि में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा उल्लिखित "रामर्शल" विचारणीय बन जाता है। 'मानस' के अयोध्याकाण्ड के २३६वें दोहे में राम के शैल को देखकर भरत के हृदय में अतिशय प्रेम के उपप्लाव का कथन तुलसी ने किया है "राम सैल सोभा निरखि भरत हृदयं अति प्रेम । तापस तप फल चार जिमि सुखी सिराने नेमु ॥" ___ यहां चित्रकूट का वर्णन रामायण के चित्रकूट-वर्णन से घनिष्ट साम्य रखता है, यथा "झरना झरहिं मत्तगज गाजहिं । मनहुँ निसान विविध विधि बाहिं ॥" -~~-इत्यादि। तब क्या "पूर्वमेघ" का रामगिरि "मानस" का "रामशैल" नहीं समझा जा सकता ? प्रश्न को यों-ही टाला नहीं जा सकता। "पूर्वमेघ' का दूसरा श्लोक यहां निभालनीय है "आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिस्टसानुम । वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ।" -'आषाढ़ (शुक्लपक्ष) के पहले दिन विरह-कातर यक्ष ने पहाड़ की चोटी पर झुके हुए मेघ को देखा तो जान पड़ा जैसे कोई हाथी मिट्टी का टीला गिराने की क्रीडा कर रहा हो। इस उपमा पर आप विचार करें और रामायण में प्राप्त चित्रकूट की शोभावर्णन के संदर्भ में यह उपमा देखें-"शैलःस्रवन्मदः इव द्विपः।" क्या ऐसा समझना *[मेघदूत के कवि कालिदास एवं रघुवंश के कवि कालिदास दो पृथक्-पृथक् व्यक्ति हैं। ---संपादक] खण्ड २३, अंक २ २३९ Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्तिसंगत नहीं होगा कि वाल्मीकि की इसी उपमा से कालिदास को "वप्रकीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं" का प्रभावकारी बिम्ब सूझा होगा ? पुन:, रामायण में मन्दाकिनी के पवित्र जल में श्रीराम-सीता के युगपत् स्नान करने का कथन हुआ है-जो हम पहले दिखा चुके हैं। इसी की ध्वनि “सीतास्नानपुण्योदकेषु" में श्रूयमाण है। "पुण्योदकेषु' का सीधा अभिधेयार्थ, मन्दाकिनी की पवित्र जल-राशि, क्यों नहीं ग्रहण किया जाय ? जलकुण्डों का कोई उल्लेख संबद्ध प्रसंग में आदिकवि ने नहीं किया है। तुलसी ने भी जलकुण्डों की कोई चर्चा नहीं की है। पुनः, चित्रकूट पर अनेक शिलाओं की वर्तमानता का वर्णन रामायण में उपलब्ध है जिन पर राम के चरणचिह्न अंकित हो गये होंगे --- "शिला: शैलस्य शोभन्ते विशालाः शतशोऽमित:।" अतः, "पूर्वमेघ" में उल्लिखित "रघुपतिपदैवङ्कितं मेखला" की पूर्ण संगति यहां स्थापित हो जाती है। तदपि, भौगोलिक स्थिति (रामगिरि से अलका तक) भी महत्त्वमयी बन गयी है । मेघ को मुख्यतः उत्तरदिशा में ही जाना है जहां विरह-संतप्त यक्ष का मूल निवास है । तब, यदि चित्रकूट को रामगिरि (रामशैल) माना जाय, तो मेघ की सम्पूर्ण यात्रा अर्थहीन बन जाती है क्योंकि उसे कालिदास द्वारा निर्दिष्ट नगरियों, विशेषत: उज्जैन स्थित महाकाल का मन्दिर, से होते हुए उत्तर दिशा में स्थित गन्तव्य स्थल तक पहुंचना है । प्रश्न का उलझाव प्रत्यक्ष है। - उपरिमत विवेचन के आलोक में यह मानने की प्रेरणा मिलती है कि रामगिरि के विषय में कालिदास के काल में कोई ऐसी ही स्थिर जनश्रुति रही होगी जिसका प्रश्रवण कर उनकी कारयित्री प्रतिभा ने "मेघदूत' का ललित-ललाम काव्य-वितान रचा होगा। रामसीता के वनवास की अवधि में ऐसे स्थल की गवेषणा अभीष्ट होनी चाहिए, जहां वे कुछ काल-पर्यन्त निष्कण्टक भाव से अवश्य निवास कर रहे होंगे और जिसकी पूर्ण संगति आदिकवि के वर्णनों से स्थापित हो जाय । विद्वान् इस तथ्य को ध्यानस्थ रखते हुए रामगिरि की पुनः पहचान का प्रयत्न करें-ऐसा वर्तमान लेखक का अनुरोध है। यह भी विचारणीय बनता है कि संपूर्ण ‘मेघदूत' में, प्रथम श्लोक के अतिरिक्त, अन्यत्र “आश्रम" शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, ऋषि-मुनियों के निवास-रूप में; अपितु आद्योपान्त एकाकीपन का भाव व्याप्त है। अतएव, “आश्रमेषु" का अर्थ (रामगिरि के) गुहाओं के बीच क्यों नहीं ग्रहण किया जाय, तब जब कोश में 'आश्रम' का एक अर्थ 'गुहा' भी दिया है ? -(डॉ. रमाशंकर तिवारी) २०, लक्ष्मणपुरी अयोध्या, फैजाबाद (उत्तर प्रदेश) तुलसी प्रज्ञा २४० Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरुधरा के पेड़-पौधे में स्वरों का निवास डा. जयचन्द शर्मा मरुधरा की लोक-संस्कृति का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना कि इस प्रदेश में मानव का निवास । अपने जीवन एवं परिवार को सुख समृद्ध करने की दृष्टि से यहां के मानव ने चेतन एवं अचेतन पदर्थों की पूजा कर अचेतन पदार्थों में पत्थर, तांबा आदि अनेक धातुओं तथा मिट्टी की मूर्तियां भी बनाई। घरों की दीवारों पर शक्तियों की प्रतीकात्मक आकृतियां बनाकर उनकी उपासना की गई, उनके गीत गाये गए, रतजगे किये गये तथा विविध प्रकार के मिष्ठान्नों द्वारा उनके भोग चढ़ाये गए । चेतन पदार्थों के साथ अपने जीवन को जोड़ते हुए मानव ने उनसे भी वरदान मांगा । पेड़-पौधों में दैविक शक्ति का निवास मानकर उनकी रक्षा की तथा पशु-पक्षी उसके जीवन साथी रहे। मरुधरा की लोक-संस्कृति की सुरक्षा यहां की महिलाओं ने की और कर रही हैं। उन्होंने स्वयं को चेतन एवं अचेतन पदार्थों को समर्पित कर जीना सीखा है। विविध संस्कारों को इन अनपढ़ महिलाओं ने देवी-देवता के तौर पर रखा है और प्रकृति के साथ अपना जीवन जोड़ रखा है। इस साधना से वे किसी प्रकार भी विलग नहीं हुई। ईश्वर कहां है ? ईश्वर से साक्षात्कार करने के लिए अनेक मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरजाघर आदि उपासना स्थल बने हैं और बनते जा रहे हैं। परन्तु मरूधरा की नारी कहती है कि मेरा ईश्वर प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ में मौजूद है चाहे व चेतन हो या अचेतन । यही कारण है कि वह पेड़-पौधों में भी उतनी शक्ति मानती है जितनी की देवी-देवताओं में । वह वक्षों की एक इष्ट-देव के तौर पर पूजा करती है । इसीलिए उनके द्वारा गाये गये गीत-लोक गीत शब्द ब्रह्म, स्वर ब्रह्म के साथ नाद ब्रह्म से संबन्ध स्थापित कराने की अभूतपूर्व शक्ति रखते हैं। पेड़-पौधों को प्रभावित करने वाले रागों में यहां की माड, पहाड़ी, सोरठ, सारंग, मल्हार, देशी आदि रागें तथा जल्ला, मूमल, पणिहारी, पीपली आदि लोक धुनें प्रमुख हैं। क्या इन सप्त-स्वरों का निवास पेड़-पौधों में है ? इस सम्बन्ध में विचार किया जा रहा है । ब्रह्मांड में निनादित होने वाली नाद तरंगें चेतन एवं अचेतन पदार्थों पर प्रभाव डालती हैं। चेतन पदार्थों के तीन रूप देखने में आते है जिन्हें जीवधारी कहते हैं। सर्वप्रथम पेड़-पौधे, द्वितीय स्थान पशु-पक्षी, तृतीय स्थान मानव का है । पेड़-पौधे खण्ड २३, अंक २ २४१ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने स्थान पर स्थायी जीवन जीते हैं ये अधोमुखी जीव हैं इनको अपनी खुराक धरती के भीतरी भाग से मिलती है। मरूधरा पर अनेक प्रकार की वनस्पतियों पाई जाती हैं, जिनका उपयोग मानव शरीर को स्वस्थ रखने की दृष्टि से होता है । पशु-पक्षियों की खुराक भी ये वनस्पतियां आदि हैं । अधोमुखी पेड़-पौधों को खुराक के साथ जल की आवश्यकता रहती है । जंगल में उगे पेड़-पौधों को केवल बरसात का जल ही उपलब्ध होता है परन्तु इनमें इतनी शक्ति होती है कि यह अपनी प्यास बुझाने के लिए साठ-सत्तर हाथ जमीन के नीचे से भी पानी को खींच लेते हैं । सूर्य की शक्ति इन्हें जीवन दान देती है। ऋतु के अनुसार इनकी डालियां पत्तियां हरी भरी हो जाती हैं तथा फल अथवा फलियां देती हैं, जिनका उपयोग मानव अपने भोजन के रूप में करता है। पेड़-पौधों का एक आहार संगीत भी है ये संगीत की मधुर स्वर लहरियों का आनन्द प्राप्त करते रहते हैं । प्रकृति ने इन्हें चलने-फिरने एवं बोलने की शक्ति नहीं दी परन्तु श्रवण शक्ति इन्हें प्राप्त हैं । यही एक ऐसी अदृश्य शक्ति है जिसके सहारे ये अपनी मस्ती में झूमते रहते है। संगीत कला की लयात्मक स्वर लहरी का आनन्द जिस प्रकार पशु-पक्षी प्राप्त करते है, उसी प्रकार पेड़-पौधे भी निरन्तर उसका आनन्द लेते हैं, और अपने भाव व्यक्त करते हैं। उन भावों को समझता है उनके साथ रहने वाला व्यक्ति (माली, किसान) तथा पशु पक्षी । जब वे अपने भावों को प्रकट करते है तो पशु उसके पास आ जाते हैं पक्षी उनकी टहनियों पर बैठकर आनन्दित होते हैं। मन्द-मन्द वायु के झौंकों के साथ उनकी टहनियां झूमती हैं, जो विश्व के संगीत की लय है। प्रकृति के इस महान रहस्य को समझने के लिए नाद योग की साधना आवश्यक है। विद्वानों की मान्यता है कि नाद से शब्द उत्पत्ति हुई है जिसे "ॐ" कहा जाता है। मेरे विचार से ब्रह्मांड में निनादित होने वाली ध्वनि शब्द नाद नहीं वह स्वर नाद है । स्वर की ध्वनि स्थिर होती है। उसका आंदोलन निरन्तर समान रहता है । शब्द की आंदोलन संख्या कम अधिक होती है । ब्रह्मांड में निनादित नाद तरंगें स्थिर हैं। वे स्वर का बोध कराती हैं। हिन्दी वर्णमाला में "ओ" अक्षर को स्वर और "म" का व्यञ्जन कहा जाता है। अत: "ॐ" ध्वनि पहले स्वर है और बाद में व्यञ्जन । "ओ" की ध्वनि ब्रह्मांड में निरन्तर निश्चित आंदोलन संख्यानुसार निनादित होती हुई जब किसी नक्षत्र से टकराती हैं, तब वह ध्वनि "म" कहलाती है। "म" ध्वनि नाद प वर्ग की पांचवां अक्षर है, जिसका सम्बन्ध मानव के होठों से है। यह सप्तस्वरों में चौथे स्थान पर मध्यम स्वर नाम से प्रचलित है । संगीत के विद्वानों ने इस ध्वनि को सर्वाधिक महत्व दिया है । सामवेद गीतियां उदात्ताति स्वरों में गाई जाती थीं। वे स्वर 'मध्यम ग्राम' के थे जिनका श्रुत्यन्तर निम्न प्रकार है---- मध्यम ग्राम-स्वर सा रे ग म प ध नि श्रुत्यान्तर-४३ २४३४२-२२ इस सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी हेतु पढ़ें-- "वैदिक छन्दों में निहित है सप्स स्वर" शीर्षक लेख । (संगीत अक्टूबर १९९६) २४२ तुलसी प्रज्ञा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वानों ने तीन की संख्या को अति महत्वपूर्ण माना है, यथा तीन देव, तीन महाशक्तियां, तीन स्वर, तीन लोक, तीन ग्राम, नृत्याक्षा तीन, त्रिभंगी मुद्रा आदि । तीनों लोकों नाम हैं -अन्तरिक्ष लोक, भू लोक मानव लोक । मानव लोक के स्वर मध्य सप्तक अन्तरिक्ष लोक के तार सप्तक और भू लोक के मन्द्र सप्तक के है । काया पिण्ड में स्थित है । सजीव पदार्थों में पेड़-पौधों का सम्बन्ध भू लोक से पशु पक्षियों का का सम्बन्ध अन्तरिक्ष लोक से तथा मध्य सप्तक का सम्बन्ध मानव लोक से है । मानव शरीर की तीन स्थितियों पर विचार करते है तो उनसे ध्वनियों का सम्बन्ध निम्न प्रकार पाया जाता है काया कंठ से मस्तिष्क तक मानव दस वर्ष के बाद की अवस्था जागृतावस्था स्वप्नावस्था इन तीनों अवस्थाओं में स्वर लहरी का प्रभाव मानव शरीर पर पड़ता है । इसी प्रकार संगीत का प्रभाव पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों पर भी होना निश्चित है । जंगल में खड़े पेड़-पौधों को लोक-संगीत की स्वर लहरी सुनने को विशेष तौर पर मिलती है । जैसे यात्रा गीत ( बणजारा, रामू, चनणा, किसानों के गीत, साधु-संतों के गीत ) आदि । लोक-संगीत की स्वर लहरी अपने चारों ओर के वातावरण प्रदूषण को दूर करती है । पेड़-पौधों को प्रभावित करने वाले स्वर वंशी की टेर, अलगोजो की गूंज, सपेरे की बीन, रावणहत्था आदि है । इनके अतिरिक्त शंख, नगारा, ढोल, ढोलक, भेर आदि ताल एवं स्वर वाद्यों की ध्वनियां भी प्रभवित करती है । आभामंडल मार्ग द्वारा एक शहर से दूसरे शहर को आकशवाणी, दूरदर्शन आदि साधनों द्वारा प्रसारित की जाने वाली स्वर लहरी को पेड़-पौधों में अपनी तरफ खींचने अभूतपूर्व शक्ति होती है । वे अपने मन पसन्द की धुनों को ग्रहण कर उसका आनन्द प्राप्त करते रहते हैं । उन्हें पशुओं के गने में बन्धी घंटियों के अतिरिक्त सुबहशाम पक्षियों का मधुर संगीत भी प्रभावित करता है। चिड़ियों की चहचहाट सम्बन्धी ध्वनि का आनन्द मानव के साथ-साथ पेड़-पौधे भी लेते हैं । मरूधरा के पेड़-पौधों का गहराई से अध्ययन करने पर पाया जाता है कि जिस प्रकार इनमें देवी-देवताओं का निवास है, उसी प्रकार सप्त स्वरों का भी निवास हैषडज ऋषभ गंधार मध्यम पंचम धवत निषाद खेजड़ा नीम जाल तुलसी बोरटी स्वर पेड़ पौधे मतीरा फोग देवी देवता भैरव विष्णू गोगाजी लक्ष्मी देवी (शक्ति) इंद्र गवरजा शास्त्रीय संगीत के विद्वानों ने स्वरों का निवास जिन पेड़-पौधों में माना है, खण्ड २३, अंक २ २४३ अवस्था पांव पेड़ तालिका कमर से कंठ तक गर्भावस्था ३ वर्ष तक निद्रावस्था पशु गर्भ से बाहर १० वर्ष तक Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे राग-रागनियों से सम्बन्धित है । उनका सम्बन्ध उस भू-भाग से है, जहां पेड़-पौधे विशेष तौर पर पाये जाते हैं । प्रकृति वातावरण एवं ऋतुओं आदि के अनुसार धोरों की धरती पर स्थित पेड़-पौधों का मूल रूप से सम्बन्ध मरूधरा के स्वर एवं लय ताल से है । इस भू-भाग का मानव जिस लोक-संस्कृति से संबन्धित होकर जी रहा है, उस धरती का संगीत जीव जन्य और जड़-जन्य के रोम-रोम एवं कण-कण में व्याप्त होना स्वाभाविक है शास्त्रीय संगीत के विद्वानों के मतानुसार पेड़-पौधों में स्वरों का निवास निम्न प्रकार हैआम खजूर केला जामुन दाडिम द्राक्षा युनाग रे ग म प धनि निवास वृक्ष- चूत्तखर्जूरकदली जंम्बीरं दाडिमी तथा द्राक्षायुभागवृक्षाच्च षडजारीवोप्रकीर्तिताः ॥भ। म.।। मरूधरा की लोक-धुनें जब तक अपने मूल रूप में प्रचलित हैं, तभी तक यहां के अचेतन और चेतन पदार्थ शक्तिशाली बने रहेंगे । इस विषय पर ध्यान देने की अति आवश्यकता है। ध्यान रहे पेड़-पौधों को जो राग एवं धुन प्रिय होते है, उन्हीं स्वर-लहरियों पर संस-कवियों ने अपने गीतों की रचना की है। सा डा० जयचन्द शर्मा श्री संगीत भारती, रानी बाजार, बीकानेर-३३४०.१ २४४ तुलसी प्रज्ञा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अहिंसा परमोधर्मः' की लोक गाथा मैं तो मरू मेरी आई। तू क्यूमरै पराई जाई॥ मनोहर शर्मा राजस्थान में अगणित कहावतें लोक-प्रचलित हैं, जो जीवन व्यवहार के प्राय: सभी प्रसंगों से संबंधित हैं। लोग यथा-प्रसंग इनका प्रयोग करके अपने कथन को रंजक एवं प्रमाण-पुष्ट बनाते हैं। ये कहावतें गद्य-पद्यात्मक दोनों प्रकार की हैं और साथ ही प्रेरणादायक भी हैं। इनमें कई कहावतें ऐसी हैं, जिनके पीछे कोई छोटी या बड़ी 'बात' है। राजस्थान में कहानी के लिए 'बात' शब्द प्रचलित है। यहां लोक-कथा को भी 'बात' ही कहा जाता है। ___साथ ही ध्यान रखना चाहिए कि राजस्थानी जनसाधारण में बात', 'कहाणी' और 'कथा' में थोड़ा अन्तर भी है। महिला-समाज में प्रचलित व्रत-कथाओं को 'कहाणी' कहा जाता है, जैसे-'सूरज नारायण की कहाणी', 'विनायकजी की कहाणी' आदि । 'कथा' के साथ धार्मिक वातावरण रहता है और वह आयोजन के साथ कही तथा सुनी जाती है। परन्तु 'बात' में सरसता रहती है। यह उसका विशेष गुण है। ___ सहस्राधिक बातें पुरानी हस्त-प्रतियों में सुरक्षित हैं। उनमें अनेक चित्रित हैं, जो बड़ी मूल्यवान हैं। इनके अतिरिक्त लोक-प्रचलित 'बातों' की तो कोई गिनती ही नहीं। इनमें अनेक बातें ऐसी हैं, जो किसी कहावत से सम्बन्धित होती हैं। लोग उस कहावत का प्रयोग करते रहते हैं, परन्तु उसके पीछे छोटा या बड़ा जो कथा-सूत्र है, उसकी उन्हें जानकारी नहीं होती। फलतः उस कहावत का अभिप्राय भलीभांति प्रकट नहीं हो पाता। ऐसी कहावती-बातों के तीन 'शतक' प्रकाशित करवाए जा चुके हैं, जिनमें से दो 'वरदा' (बिसाऊ) में प्रकाशित हुए हैं और एक 'शतक' पिलानी की शोध-पत्रिका 'मरु-भारती' में क्रमश: छपा है। इनके अलावा अन्य भी ऐसी अनेक कहावतें लोक-प्रचलन में हैं, जिनसे सम्बधित बातें' प्रकाश में नहीं आ पाई हैं और उनको लिपिबद्ध किए जाने नी नितान्त आवश्यकता है। यहां एक ऐसी ही कहावती 'बात' पर विवेचनात्मक प्रकाश डालने का प्रयास किया जाता है जो अनेक प्रकार से अपना विशेष रहत्त्व रखती है। कहावत पद्यात्मक खण्ड २३, अंक २ २४५ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "मैं तो मखं मेरी आई । तूं क्यूं मरे पराई जाई ।।' जब कोई व्यक्ति विपत्ति में होता है और दूसरा व्यक्ति उसकी आपदा दूर करने के लिए सामने आता है तो संकटग्रस्त व्यक्ति इस कहावत का प्रयोग करता है और उसे अलग ही रहने के लिए कहता है । इस कथन के पीछे एक लम्बी 'बात' है, जो बड़ी रंजक और सरस है । आगे उस 'बात' की संक्षिप्त कथावस्तु दी जाती है, इस प्रकार है एक राजा को मांसाहार का बुरा व्यसन था। वह प्रतिदिन जंगल जाता और वहां जानवरों की शिकार करता । इस शिकार में कई वन्य जीव मारे जाते और अनेक घायल होकर पीड़ा भोगते । ऐसी स्थिति में जंगल के जानवरों ने एक दिन सभा जोड़कर निश्चय किया कि राजा के सामने कोई ऐसा प्रस्ताव रखा जावे, जिससे यह पीड़ा मिट सके । तदनुसार उन्होंने तय किया कि बारी-बारी से प्रतिदिन एक जानवर स्वयं ही राजद्वार पर पहुंच जावे और राजा को वन में मृगया हेतु आना ही न पड़े । यह प्रस्ताव राजा की सेवा में पहुंचाया गया तो उसने इसे स्वीकार कर लिया और प्रतिदिन अपनी बारी से एक जानवर राजद्वार पर स्वयं ही पहुंचने लगा । कुछ समय बीता । एक दिन एक हरिण की राजद्वार पर जाने की बारी आई । वह पैर से लंगड़ा था । अतः वह सांझ पड़ते ही जंगल से रवाना होकर राजधानी के रास्ते पर चल पड़ा, जिससे कि प्रातःकाल वहां पहुच सके । थोड़ी रात गुजरी कि तेज वर्षा प्रारंभ हो गई। ऐसी स्थिति में वह हरिण एक पेड़ के नीचे आकर रुक गया और वर्षा बंद होने की प्रतीक्षा करने लगा । इसी समय एक हरिणी भी पानी से पीड़ित होकर वहीं पेड़ -तले आ पहुंची । हरिणी ने हरिण से कहा कि वे आपस में विवाह कर लें तो उत्तम होगा। इस पर हरिण ने अपनी सारी स्थिति उसके सामने प्रकट की और कहा कि वह तो दिन उगते ही आत्म-बलिदान हेतु राजद्वार पर उपस्थित होगा । हरिणी ने उत्तर दिया कि 'सुख तो घड़ी भर को ही चोखो ।' फल यह हुआ कि वे पति-पत्नी के रूप में सम्बन्धित हो गए । जब वर्षा बंद हुई तो हरिण अपने मार्ग पर चल पड़ा । पीछे चलने लगी । प्रातःकाल वे दोनों के स्थान पर दो जानवर खड़े देखे तो प्रकट किया कि वह स्वयं अपनी बारी के 'जोड़ायत' है । राजद्वार पर पहुंच गए। वह चकित हो गया अनुसार वहां आया है । afधक को इस पर कोई एतराज न था । परन्तु हरिणी ने उसे कहा कि अपने पति की एवज में वह स्वयं प्राण देगी । उसे छोड़ दिया जावे । परन्तु हरिण न माना और उसने उसे कहा "मैं तो मरूं मेरी आई तू क्यू मरं पराई - जाई ?" फिर भी हरिणी ने अपना हठ न छोड़ा। ऐसी स्थिति में वधित चकित था । वह कोई निर्णय नहीं कर सका और उसने सारा हाल राजा की सेवा में पहुचा दिया राजा चकित होकर उस स्थान पर आया तो हरिणी । फूट-फूट कर रोने लगी । यह किस्सा रानी के कानों में भी उसी समय पहुंच गया । उसने हरिणी की करुणा २४६ तुलसी प्रशा हरिणी भी उसके पीछेवहां वधिक ने एक इस पर हरिण ने और साथ में उसकी Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनक स्थिति पर विचार किया और उसी क्षण अपनी दासी को राजाजी के पास भेजा। दासी ने राजाजी के सामने रोते हुए प्रकट किया कि बड़ा ही बुरा हुआ । रानीजी महल में बने 'चहबचे' (छोटे सरोवर) में नहाते समय डूब गई। ___ इतना सुनते ही राजा ने हरिण-हरिणी को वहीं छोड़ दिया और दौड़कर वह राजमहल में आये। रानी उसे अत्यंत प्रिय थी। उसके लिए राजा बुरी तरह विलाप करने लगा। इस पर दासी ने प्रकट किश कि वह रानीजी को वापिस जीवित करके सामने ला सकती है। परन्तु शर्त यह है कि उन्हें रानीजी की बात स्वीकार करनी होगी। राजा इसके लिए तैयार हो गया और दासी ने भीतरी महल में जाकर वहां छिपी हुई रानी को राजा के सामने उपस्थित कर दिया। रानी ने अपने पति से कहा, "जिस प्रकार आप पत्नी के वियोग में दुःख का अनुभव कर रहे थे, वैसी ही पीड़ा बिचारी जंगल की हरिणी को अपने पति के लिए हो रही है। आप अपने अनुभव के अनुसार उन दोनों को मुक्त कर दें और आगे के लिए शिकार का दुव्यसन एकदम छोड़ दें। राजा ने यह बात मान ली। दोनों वन्य-जीव छोड़ दिए गए और राज्य भर में आज्ञा प्रसारित करवा दी गई कि आगे से अब कोई भी व्यक्ति जानवरों का शिकार नहीं करेगा। राजस्थान की उपर्युक्त कहावती लोककथा की 'वस्तु' संक्षिप्त रूप में इतनी ही है परन्तु इस पर गहराई के साथ विचार करने से कई महत्त्वपूर्ण तत्त्व सामने आते हैं, जो इस प्रकार है १. प्राचीनकाल से चली आ रही 'बोध-कथाओं' अथवा 'नीति-कथाओं में पशुपक्षी आदि पात्र प्रकट होते हैं और वे मानवोचित व्यवहार करते हैं। इसी प्रकार अनेक कथाओं में मनुष्यों के साथ भी पशु-पक्षी देखे जाते हैं परन्तु वे पाठकों अथवा श्रोताओं के लिए अविश्वसनीय नहीं होते । 'जातक कथाओं', 'पंचतन्त्र की नीति-कथाओं' तथा ईसप की बोध-कथाओं में ऐसा अनेकशः दृष्टि-गोचर होता है। २. रचना-शिल्प के विचार से इस कहानी पर ध्यान दिया जाए तो प्रारंभ में यह एक नीति-कथा प्रतीत होती है, जो सहज ही 'बुद्धिमान शशक और सिंह' विषयक प्रसिद्ध लोक-कथा को स्मरण करवा देती है । इसके बाद यह एक शृंगार रसात्मक कहानी का रूप धारण करती है और इसकी समाप्ति एक धर्म-कथा के रूप में होती है। एक ही कथा-वस्तु में ये तीन रंग बड़े रंजक रूप में प्रकट होते हैं, जो अन्यत्र कम ही देखे जाते हैं। ३. इस कथानक में दाम्पत्य प्रेम की महिमा प्रकाशमान है, प्रथम हरिण-हरिणी के जोड़े में और इसके बाद राज-दम्पती में । हरिणी प्रेम की उज्ज्वल प्रतिमा है तो राजरानी अत्यंत संवेदनशीला होने के साथ-साथ विशेष रूप से बुद्धिमती भी है। उसकी चतुराई से ही इस कथा की सुखान्त-समाप्ति हुई है । अन्य भी, अनेक राजस्थानी लोक-कथाओं में नारी के चातुर्य को सुन्दर रूप में चित्रित किया गया है, जो अत्यंत आकर्षक एवं श्लाघ्य है। ऐसी कहा नियों में जन-साधारण की विशेष अभिरुचि देखी जाती है । र २१, अंक २ २० Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. अनेक लोक-कथाओं को नीति-कथाओं अथवा धार्मिक-कथाओं का रूप दिया गया है । ये 'प्रवचन' के अवसर पर दृष्टांत के रूप में बड़ी प्रभावशाली सिद्ध होती हैं । जन-साधारण में सिद्धांत-वाक्यों पर इतना ध्यान नहीं दिया। जाता, जितना कि इन दृष्टांतों पर। ये दृष्टांत नीति-तत्त्व अथवा धर्म-तत्त्व को रोचक रूप देने में अत्यंत सहायक हैं। यही कारण है कि ऐसे दृष्टान्तों के अनेक उपयोगी संकलन तैयार होते रहे हैं, जो हस्त-प्रतियों में सुरक्षित हैं। ५. इस लोक-कथा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संदेश है --'अहिंसा परमो धर्मः।' इसमें हिंसा पर अहिंसा की विजय प्रकट की गई है, जिसे सम्राट अशोक ने अनेक शिलाओं पर अंकित करवा कर संतोष अनुभव किया था। इसका सार-तत्व है 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।। प्रस्तुत राजस्थानी लोक-कथा में यही तत्त्व चरितार्थ हुआ है, जो विशेष रूप से ध्यातव्य है। --(डॉ. मनोहर शर्मा) कैलाश निकुंज, भारती बगीची रानी बाजार, बीकानेर (राजस्थान) २४८ तुलसी प्रकार Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक-समीक्षा जागतीजोतो (कविता संग्रह)-श्री गिरिधारीसिंह पड़िहार, प्रकाशक-पड़िहार प्रकाशन, कोरियों का मोहल्ला, बीकानेर-३३४००१ मूल्यतीस रुपए, संस्करण-१९९७ । विक्रम संवत्सर की इक्कीसवीं सदी के शुभारंभ पर आज से लगभग ६० वर्ष पूर्व राजस्थानी कविता के प्रति देश में एक उत्साहवर्धक ललक जन्मी थीं। उसका दूसरा वेगवान् प्रवाह सन् १९५७-५८ के आसपास आया। इस दूसरे प्रवाह में क्षेत्रीय स्तर पर बीकानेर के अनेकों युवकों की वाणी मुखर हुई और उन्हें प्रोत्साहन भी खूब मिला। ___श्री गिरधारीसिंह पड़िहार को उनके अनुज की धर्मपत्नी ने प्रेरणा दी और रानी लक्ष्मीकुमारीजी की 'मांझल रात' को पढ़कर वे इन कविताओं का सृजन कर सके-यह अनूठी बात है। वे लिखते हैं कि 'स्वाभिमान अर आजादी २ वास्त जूझण आले मोट्यारां पर कुंयी इतिहास, पुराण-अर लोक गीतां रो आधार लेर * कवितावां लिखी है।' इसलिए इन में इतिहास की पारदर्शिता, कल्पना भी अनठी उड़ान और रंजक भावों की अतिशयता न भी हो तो देश और समाज में वीरों के प्रशस्तिगान को समृद्ध बनाने में ये कविताएं समर्थ दीख पड़ती हैं । कवि की कतिपय उक्तियां बेजोड़ बन पड़ी हैं१. 'मेघनाद' - कविता में लक्ष्मण को कही मेघनाद की कटूक्ति देखिए ओ राख भरोसो तूं लिक्षमण, सीता नै सोरी राखांला । रघुवस्यां हलकी करी जियां, म्हे कान नाक नयीं काटाला॥ २. मेघनाथ-की दूसरी कटूक्ति अपने चाचा विभीषण के लिए है, देखिए हो राजमुकट रो कोड घणो, काका तूं पहली के देतो। हूं कर देतो युवराज तने, अधिकार म्हारलो ले लेतो॥ ३. 'पाबूजी' - कविता में अध ब्याही अपनी रानी द्वारा सहनाणी मांगने पर पाबूजी का कहना कि थारै मनड़े रो सुवटियो, म्हारोड़ो सुख दुख कह देसी। आ सैनाणी दुःख में मुरझे, सुख में सोरी सांसां लेसी। बनकर Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. गोविन्द गर रा टाबरियां' कविता में गुरु गोविन्दसिंह के दोनों कमरों की तूं कतल करा, भीता पुणवा; फांसी चढ़स्या, विष पीवाला । म्हे धरम रूखाला धरम छोड़, कायर ज्यूं कदै न जीवांला ॥ ५. 'घड़कोट'-- कविता में जाटवीरों द्वारा फिरंगी फौजों के मुकाबिले पर कवि की उक्तिकर जोर घणाई जूझया पण, छेकड़ गोरां रो बल थाल्यो। धन-धन तू धरा भरतपुर की, हिंद वाणे रो पाणी राख्यो ।। दो मास हुयो संगरामजबर, नयी खबर रात दिन री लागे । गोरा फीटा बण घड़ी-घड़ी, कूटीजे डर पूठा भागे । इसी प्रकार की इंगजी ज्वारजी- कविता में निम्न उक्ति देखिए सन् सत्तावन स्यूं पैली ही, जोत जगावण वाला हा । आजादी वाले दिवले री, वलती लो रा रखवाला हा॥ जा जगां-जगां छापा माऱ्या, सिरकार कंपनी धूर्जा ही। गोरां री जात हरी बहड़ी, ईसा मरियम नै पूजै ही। वस्तुतः सन् १९६२ और १९६५ के विदेशी आक्रमणों के पहले राजस्थानी कवियों ने जो विड़दगान किया उसी के फलस्वरूप राजस्थान के अनेकों परमवीर, महावीर और वीर जवानों ने अपने प्राण न्यौछावर करके भारतमाता के भाल पर कंकम तिलक किया था। ___ हर्ष का विषय है कि स्व० कवि गिरिधारीसिंहजी का परिवार उनकी कविताओं को पुनः प्रकशित कर रहा है । सस्ते मूल्य में साफ सुथरे प्रकाशन और नयनाभिराम प्रस्तुति के लिए प्रकाशक बन्धु बधाई के पात्र हैं। -परमेश्वर सोलंकी २५. तुलसी प्रसा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकम् श्री जिनवल्लभसूरि प्रणीत महावीर - चरित्र -परमेश्वर सोलंकी Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनवल्लभसूरि प्रणीत महावीर-चरित्र • जैन विश्व भारती संस्थान, मान्य विश्वविद्यालय, लाडनूं के हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रह-वर्द्धमान ग्रन्यालय में श्री जिनवल्लभ सूरि प्रणीत महावीर-चरित्र का हस्तलेख सुरक्षित है। यह हस्तलेख पं० अभय माणिक्य मुनि द्वारा गुजरात के वेन्नातटनगर में लिखा गया था। पांच पत्रकों पर लिखा यह हस्तलेख सुवाच्य अक्षरों में लिखा हुआ है । ४४ श्लोकों में सम्पूर्ण इस चरित्र काव्य का प्रथम श्लोक मालती छन्द में है और अन्तिम श्लोक शार्दूलविक्रीडित छन्द में है । शेष सभी गाथाएं आर्या छन्द में हैं। • मूल पाठ के साथ दूसरी कलम से गुजराती टीका लिखी है जो गाथा अनुवर्ती है। प्रस्तुत् प्रत् में लेखन-समय नहीं है और न ही गुजराती टीकाकार का नामोल्लेख है। केवल. अन्तिम पुष्पिका में प्रतिलिपिकार ने लेखन-स्थान के साथ अपना नामोल्लेख करते हुए इस महावीर-चरित्र को श्री जिनवल्लभ सूरि की कृति होना प्रमाणित किया है जो स्वयं कृतिकार ने भी काव्य के अन्तिम छन्द में-जाइज्जा जिणवल्लहो मह सया पायप्पणामो तुह-कह कर स्पष्ट कर दिया है। कवि-परिचय • श्री जिनवल्लभ सूरि गुजरात के राजा कर्ण सोलंकी के समय एक गणि के रूप में उल्लिखित हैं किन्तु सिद्धराज जयसिंह के शासन-काल में उनकी गणना प्रसिद्ध ग्रंथकारों में की गई है। शुरू में वे चैत्यवासी जिनेश्वर के शिष्य थे। उन्होंने, उन्हें पाटन के आचार्य अभय देव सूरि (सं० १०७२११३५) के यहां शास्त्राध्ययन को भेजा, जहां उन्हें श्वेतांबराचार्य भट्टारक मल्लधारी हेमचन्द्र सूरि के सान्निध्य में अध्ययन का अवसर मिला। इस अध्ययन से उनका चैत्यवास मत छूट गया और वे शास्त्रीय रीति से पुनः दीक्षित हुए। फिर उन्होंने चैत्यों में शास्त्र-विरुद्ध हो रहे कार्यों को रोकने के लिए श्लोकबद्ध रचनाएं कीं और चैत्यों में लगाई।। • कालान्तर में श्री जिनवल्लभ सूरि खरतरगच्छ के आचार्य बनें और आपने अनेकों गौत्रों का प्रवर्तन किया। कांकरिया, चोपड़ा, बड़ेर, बांठिया, ललवाणी, बरमेचा, हरकावत, मल्लावत, साहसोलंकी और सिंघी गोत्रों के प्रवर्तक श्री जिनवल्लभसूरि ही माने जाते हैं। बंड-२३, अंक-२ २५३ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • चैत्यों में शुद्ध आचरण और परिष्कार के लिए श्री जिनवल्लभ सूरि मेवाड़ आये और वहां उन्होंने चित्तोड़ में दो नये चैत्यों की विधिवत प्रतिष्ठा कराई। फिर आप बागड़ गए और फिर धारा नगरी पहुंचे, जहां उस समय (सं० ११६१) नर वर्मा का शासन था। नागौर में आपने नेमि-जिनालय की प्रतिष्ठा कराई । आपका स्वर्गवास सं० ११६७ में हुआ। श्री जिनवल्लभ सूरि को सूरिपद आचार्य देवभद्र ने प्रदान किया था। आपके द्वारा रचित ग्रंथों की सूचि इस प्रकार है १. पिंडविशुद्धि प्रकरण २. गणधर सार्ध शतक ३. आगमिक वस्तुविचारसार ४. पौषध विधि प्रकरण ५. संघ पट्टक प्रतिक्रमण समाचारी ६. धर्म शिक्षा ७. धर्मोपदेशमय द्वादश कूलकरूपप्रकरण ८. प्रश्नोत्तर शतक ९. शृंगार शतक १०. स्वप्नाष्टक विचार ११. चित्र काव्य १२. अजित शांति स्तव १३. भवारिवारण स्तोत्र १४. जिनकल्याण स्तोत्र १५. जिन चरित्र मय जिन स्तोत्र १६. महावीर चरित्र मय वीर स्तव एक उल्लेख के अनुसार इन ग्रन्थों में से धर्म शिक्षा और संघपट्टक प्रकरण को चित्तौड़, नागौर आदि के जिनालयों में शिलांकित भी कराया गया था। प्रस्तुत कृति महावीर-चरित्र संभवतः उपरि लिखित १६ कृतियों में अन्तिम 'महावीर चरित्र मय वीर स्तव' की प्रतिलिपि है, किन्तु प्रतिलिपिकर्ता पं० अभय माणिक्य मुनि ने वेनातट नगर में जव इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि की तो उन्हें मिली आदर्श प्रति में संभवतः वीर स्तव नहीं था, अन्यथा वे उसकी भी प्रतिलिपि करते। इस महावीर-चरित्र की अन्तिम गाथा (क्रमांक-४४) निम्न प्रकार है एवं वीर जिणे सणेसर तुमं, मोहंधविद्धं सणं । भव्वंभोरुह बोह सोह जणयं दोसायरच्छेयणं ।। थोउं जं कुसलाणुबंधि कुसलं पत्तोम्हि किंची तओ । जाइज्जा जिणवल्लहो मह सया पायप्पणामो तुह ।। तुमसी प्रक्षा Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस छन्द (शार्दल विक्रीडितम् ) में कवि ने अपना नामोल्लेख किया है और भगवान महावीर को मोह के नाशकर्ता, भव्य जीव रूपी कमल के विकास कर्ता और दोष समूह के नाशकर्ता बताकर उनकी स्तुति की है ताकि कवि को भी कुशलानुबन्धी पुण्य की प्राप्ति हो सके । इस प्रकार यह कृति पूर्ण है और प्रतिलिपिकर्ता के कथनानुसार भी श्री जिनवल्लभ सूरि की ही रचना है। • प्रस्तुत प्रतिलिपिकर्ता पं० अभय माणिक्य मुनि ने महावीर-चरित्र के मूल पाठ के साथ एक गुजराती टीका की भी प्रतिलिपि की है जो अलग से प्रकाशित की जा रही है । यह गुजराती टीका प्रतिलिपिकार की कृति नहीं है-ऐसाउसके द्वारा पत्रक-३ पर दिये अनुपूर्ति संकेतों से ज्ञात होता है । • इस चरित्र काव्य का निर्माण काल क्या है ? इस संबंध में कृतिकार और गुजराती टीकाकार दोनों ही मौन हैं। कृतिकार ने संक्षेप नय से यह चरित्र काव्य लिखा है जिसमें भगवान् के २० पूर्वभवों का वर्णन है। दीक्षावाद के उत्सर्ग और कष्टों का भी नामोल्लेख है और भगवान् के 'वर्धमान' नाम के संबंध में गर्भस्थ शिशु द्वारा पर्वत को प्रकंपित कर अपना सामर्थ्य प्रकट किया गया-ऐसा विवरण है । कृतिकार ने रानी त्रिशला को चेटक की बहिन कहा है-चेडगनि व भगणीए तिसला देवी इ किन्तु गुजराती टीकाकार-जे सिद्धार्थ राजा तेहनी भार्या चेडाराय नी बेटी त्रिसला-उसे चेटक की पुत्री कहता है। • इसी प्रकार इस कृति में (गाथा नं० ३३ में) भगवान् द्वारा रात्रि में ३२ योजन दूर पावा नगरी में जाकर वहां चतुर्विध तीर्थ स्थापना का उल्लेख है जिसे गुजराती टीकाकार ने ४८ कोश की दूरी बताया है। भाषा की दृष्टि से भी श्लोक संख्या-८ में आये पद-वीसयराओ में वीस और सयराओ के दो सकारों में एक ही रह गया है। श्लोक संख्या १०, १४ और २२ में गामे के स्थान पर ग्रामे लिखा है। इसी प्रकार श्लोक संख्या ३० का दिवसुट्ठ द्वसया–पद तथा श्लोक-४४ का मोहंधविद्वंस णं--पद भी चिन्तनीय है । ० फिर भी जैसा कि कवि ने स्वयं कहा है - चरियमिह समूलं किंचि कित्तेमि थूलं-कि चरित्र समूल है किन्तु वह उसे स्थूल रूप में कह रहे हैं। इस स्थूल रूप में भी कवि ने अनेक तथ्यपूर्ण बातें कहीं है १. भगवान महावीर ७२ वर्ष की वय में कार्तिक अमावस्या को स्वाति नक्षत्र में मुक्त हुए। उस समय भगवान् पार्श्वनाथ को मुक्त हुए २५० वर्ष बीत चुके थे। २. भगवान् महावीर को जम्भि का नगरी में ऋजुबालिका नदी के किनारे शालिवृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ल दशमी को केवलज्ञान हुआ। खम २३, अंक २ २५५ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. उन्होंने दीक्षा-दिन से बारह वर्ष और तेरह पक्ष बीतने तक कुल ३४९ पारणे किए अर्थात् एक पाण्मासिक, दो चातुर्मासिक, तीन त्रैमासिक, छह द्विमासिक, बारह एक मासिक, दो डेढ मासिक तथा दो अड्ढाई मासिक तप किए । इत्यादि। प्रस्तुत हस्तलिखित पत्र की प्राप्ति मुनिवर्य श्री सुमेरमल 'सुदर्शन' की शोध का परिणाम है और इस लघु कृति का हिन्दी अनुवाद मुनि श्री विमलकुमार ने किया है। उनकी इस महती अनुकंपा के लिए हम सबके आभारी हैं । -परमेश्वर सोलंकी तुलसी प्रण Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर चरितं दुरिय रय समीरं मोहपंकोहनीरं, पणमिय जिणवीरं निज्जियाणंग वीरं । भवभडपडिकूलं तस्स मुक्खाणुकूलं, चरियमिह समूलं किंचि कित्तेमि थूलं ॥१॥ जो पापरूपी रज को दूर करने के लिए वायु-तुल्य और मोहरूपी कीचड़ को धोने के लिए जल-सदृश है, उस महावीर ने कामरूपी सुभट को जीतकर जिनेश्वर का पद पा लिया है। मैं उसे प्रणाम करता हूं और समूल चरित्र को जो संसारी सुभट के लिए प्रतिकूल व मुमुक्षु जन के लिए अनुकूल है, उस चरित्र को मैं स्थूल रूप में कहता किर गामचितगभवे, सम्मत्तं लहिय रहिय सोहम्मे । चवियं भविउं मिरिई, लइउं चइउं च चरणभरं ॥२॥ ग्राम चिन्तक के भव में भगवान महावीर के जीव को सम्यकत्व की प्राप्ति हुई जिससे उन्हें सौधर्म लोक मिला। वहां से च्युत होकर वे मरीचि के रूप में जन्में । उन्होंने चारित्र को ग्रहण किया और फिर उसे छोड़ दिया। उस्सुत्त लेसदेसणा, कय सागर कोडि कोडि सागर भवभवमणो । तह पढम, वासुदेवो, भविय तिविट्ठ जिणु दिट्ठो ॥३॥ उत्सूत्र की लेशमात्र प्ररूपणा करके मरीचि ने अपना भवभ्रमण कोडाकोड़ सागर परिमित कर लिया। यह देखकर जिन भगवान् ने कहा कि यह जीव त्रिपृष्ठ नामक प्रथम वासुदेव होगा। संसरिय भवे जाओ, अवर विदेहमि मूयनयरीए । धारिणि धणंजयसुओ, पियमित्तो नाम चक्कहरो ॥४॥ सांसारिक भव में भ्रमण करके मरीचि का जीव मूकानगरी में प्रियमित्र चक्रवर्ती के रूप में पैदा हुआ। उसकी माता धारिणी और पिता धनञ्जय थे। तुडियंगाऊ पालिय, पव्वज्जं वास कोडिमुववन्नो । महसुक्के परमाऊ, सव्वद्वेवरविमाणंमि ॥५॥ अपनी आयुष्य पूर्ण कर कोटि वास प्रव्रज्या पालन से वह सर्वार्थ सिद्ध विमान के महाशुक्र लोक में पैदा हुआ। बण्ड २३, अंक २ २५७ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो जंबूदीव भरहे, भहाजिय सत्तरायअंगरुहो । छत्तगाइ पुरीए, अहेसि तं नंदणो राया ॥६॥ - वहां से च्यवन कर वह जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में छत्रानगरी के राजा जितशत्रु की रानी भद्रा के पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ और नंद नाम का राजा बना । चउबीस वास लक्खे, वसिय गिहे सुगुरुपोट्टिलसमीवे । निक्खे मियवासलखं, खविय सया मासखवणेहिं ।।७।। चौबीस लाख वास पर्यन्त गहवास करके नन्द राजा ने पोटिलाचार्य के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर एक लाख वास तक मास क्षपण तपस्या की। असयं सेविय वोसं, ठाणे अज्जिणिय तित्थयरनामं । वीसय राओ जाओ, पाणय पुष्पोत्तरे देवो ॥६॥ बीस स्थानों का आसेवन करके उसने तीर्थंकर नामकर्म का अर्जन किया और बीस बार जन्म-मृत्यु को जीतकर पुष्पोत्तर विमान के प्राणत लोक में देव पद पाया। छम्मासवास साऊ, पुन्नखए मोहमिति इयर सरा । आसन्नपुन्नपुंजा, तित्थयर सुरा उ दिप्पंति ॥९॥ छह मास आयुष्य रहने पर देवों का पुण्य क्षीण होता है तो दूसरे देव उनके प्रति मोह करते हैं किन्तु तीर्थकर होने वाले देव का पुण्य क्षीण नहीं होता और वह दीप्तिमान बना रहता है। माहणकुंडग्रामे, अवयरिओ सियासाढछट्ठीए। विप्पो सहदत्तगिहे, देवाणं दाइ उमरंमि ॥१०॥ वह देव आषाढ सुदी छ8 के दिन ब्राह्मणकुंड ग्राम में ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवनन्दा के उदर में आया। अहबासीइदिणंते, चउदस सुमिणेहि इंतजंतेहि । हत्थुत्तर कय कल्लाण, पणग अच्छरिय चरिय तओ ॥११॥ वियासी दिन बीत जाने पर देवनन्दा ने चवदह स्वप्नों को जाते हुए देखा । हस्तोत्तर नक्षत्र में उसके पांच कल्याणक हुए। इस प्रकार उसका चरित्र आश्चर्यजनक है। जणवायनायखत्तिय, पसिद्द सिद्धत्थ पत्थिव पयाए । चेडगनिवभगणीए, तिसलादेवीइ कुच्छीए ।।१२।। क्षत्रिय जाति प्रसिद्ध थी। राजा सिद्धार्थ क्षत्रिय जाति के थे। उनकी पत्नी रानी त्रिशला चेटक राजा की बहिन थी और उसकी कुक्षी पवित्र थी। २५८ तुलसी प्रज्ञा. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्कभणिएण हरिणेगमेसणा गब्भविण मिउं काउं। आसोयकसिणतेरसि, निसायतं नाहं साहरिउ ॥१३॥ इसलिए इन्द्र ने हरिणगमेषी देव को गर्भ-विनियम करने को कहा और आसोज कृष्णा त्रयोदशी रात्रि को उसने प्रभु का संहरण कर गर्भ विनिमय कर दिया। खत्तियकुंडग्रामे, जाओ चित्तसियतेरसि निसद्धे । कासवगुत्ते कणगाभ कन्नरासीइ सीहं को ।।१४।। फिर वह देव क्षत्रिय कुंड ग्राम में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी रात्रि को उत्पन्न हुआ तो उस सिंह चिह्नित बालक का गौत्र कश्यप, वर्ण सुवर्ण और जन्म राशि कन्या थी। जिण चिंतामणि तुमए, अवइन्ने रयण जणधण कणेहिं । बुढित्था नायकुलंति, वद्धमाणो त्ति तोसि फुडं ॥१५॥ हे जिन ! आप चिन्तामणि रत्न के समान हैं। आपके अवतरित होने से ज्ञातकुल में रत्न, जन, धन, धान्य की वृद्धि हुई है। इसलिए आप वर्द्धमान नाम से प्रसिद्ध हुए। तं जम्मज्जण खणंमि, सक्क कुवियप्पसंकु मुक्खणिउ। जेण महंतमवि गिरि, मीरत्थ तओ महावीरो ॥१६॥ जन्म-मज्जन समय इन्द्र ने शंका की कि यह बालक कैसे मज्जन-स्नान को सह पायेगा-इस कुविकल्प को प्रभावहीन करने के लिए जिसने बड़े पर्वत को कंपित किया वह प्रभू ! देवताओं द्वारा 'महावीर' कहा गया। पियरमरणे वि तं जिट्ट, भाउवयणेण ठासि वासदुगं । गिहवासि च्चिय निरवज्ज वित्तिणा निच्छिय मुणिव्व ॥१७॥ माता-पिता की मृत्यु के बाद भी बड़े भाई के कथन पर महावीर दो वर्ष और गृहवास में रहे किन्तु उस दौरान वे मुनि की तरह निरवद्य वृत्ति से जीवन-यापन करते रहे। सत्तकरदेह गेहंमि, अच्छिउं तीस वच्छरे कुमरो। लोगंतिय तोरेविओ संवच्छरमिच्छियं दाउं ॥१८॥ उनका शरीर सात हाथ का था। वे तीस वर्ष तक घर में रहे। फिर लोकतांत्रिक देवों से प्रेरित होकर उन्होंने संवत्सरी दान किया। सुरनर वय कय बहु विह, जलन्हवणो सुरविलेवण विलितो। रुइरालंकार धरो, चउदेव निकाय समणगओ ॥१९॥ क २ सब २३ २१९ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारों निकायदेवों ने उन्हें अनेक प्रकार के जल स्नान कराये। शरीर पर विलेपन किया और सुन्दर वस्त्राभूषण पहनाएं जब उन्होंने श्रमण दीक्षा ली। चंदप्पहसिबियाए, मग्गसिरे कसिण दसमि अवरह्न । पढमवए पव्वइओ, छट्टेणं नायसंडवणे ॥२०॥ फिर वे चन्द्रप्रभ शिविका में बैठकर ज्ञातखण्ड वन में आये । इस प्रकार मृगसर कृष्णा दशमी को अपराह्न में भगवान महावीर ने प्रथम वय में प्रव्रज्या ली और छठी तप किया। कम्मार गामबाहि, वय पढम निसाइएय किर सक्को। वारइ गोवं वागरई, निरूवसग्गं करे भंते ।।२१।। प्रथम वय में प्रव्रज्या ग्रहण कर भगवान् महावीर कर्मार ग्राम के बाहर आये तो इंद्र ने प्रार्थना की कि हे भन्ते ! बारइ गोवालिया कोई उत्सर्ग न करें-ऐसी व्यवस्था करने की मुझे अनुमति प्रदान करें। तमणिच्छिय तुह निच्छिय, मइणो विहरंत कोल्लयग्रामे । बल भवणे बीयदिणे, पारणयं पायसेणासि ॥२२॥ भगवान ने वह प्रार्थना अस्वीकार कर दी। वे विहार करते हुए कोल्लाग ग्राम आये वहां बल नामक ब्राह्मण के घर उन्होंने छठी तप का पारणा किया। सुरकय विलेवणाई वि, साहिय चउमासमासिते दुहयं । भमराइ कयच्छण तरुण यच्छण थीजणच्छणओ ॥२३॥ दीक्षा समय देवताओं द्वारा किए गए विलेपन ने भगवान् को चार मास से अधिक समय तक दुःख दिया। भंवरों ने शरीर पर बैठकर पीड़ा पहुंचाई। ग्रामीण यवकों ने उसकी मांग की और तरुण स्त्रियों ने कामासक्त होकर प्रार्थना की। पडिकूलसूलपाणि, चंडक्किय चंडकोसिय महिंच। अगणिय नियतणुपीड, पडिबोहियव्वं तुमं भवयं ॥२४॥ हे भगवन् ! तुमने अपने शरीर की पीड़ा को गौण करके प्रतिकूल बने शूलपाणि यक्ष और क्रूरकर्मा चंडकौशिक सर्प को प्रतिबोध दिया । एगरयणीइ वीसं, छहिं मासेहिं विविह उवसग्गे । तुह करिय हरिय सुरस संगमो संगमो जाओ ॥२५॥ भगवान् को एक रात्रि में बीस उपसर्ग दिए गए। छह मास तक विविध कष्ट दिए गए किन्तु उन्होंने संयम का पालन किया और इन्द्र ने उन कष्टों का निवारण किया। तुलसी प्रज्ञा Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्ने सुकड सलागा, पवेसगे अभिनिवेसगे गावे । - खरगेयतदुद्धरगे, तुह तुल्ला चेव मण वित्ती ।।२६।। कानों में शलाका डालने वाले गवालियों के प्रति भगवान् को क्रोध नहीं आया और उन शलाकाओं को निकालने वाले खर वैद्य के प्रति उनके मन में राग भी पैदा नहीं हुआ । दोनों स्थितियों में भगवान् की मनोवृत्ति एक जैसी रही। छ चउति दुगेगमासे, दुगनव दु छक्क बारसम अकासी। अद्ददिवढड्डाई मासे बावत्तरी दो दो ॥२७॥ भगवान् ने एक पाण्मासिक, दो चातुर्मासिक, तीन त्रैमासिक, छह द्विमासिक, बारह एक मासिक, दो डेढ़ मासिक तथा दो ढाई मासिक तप किए। कुछ ७२ पक्ष (पखवाड़े) तप किया। दुचउदसदिणा पडिमा, भद्दमहाभद्द सव्वओ भद्दा । कासि अछिन्ना तह, बारसेग राइ ति देवसिया ॥२८॥ भगवान् ने भद्र, महाभद्र और सर्वतोभद्र प्रतिमाएं बनाई। भद्र प्रतिमा दो दिन, महाभद्र चार दिन और सर्वतोभद्र प्रतिमा दस दिन की होती हैं। उन्होंने तीन दिन प्रमाण एक रात्रि की प्रतिमा बारह बार की। अर्थात् तेले की तपस्या में कायोत्सर्ग किया। पंचादिणण छ मासिय खवणं कोसंबिए तुम मकासी । दुन्निसए गुणतीसे, अकासितं छठ खवणाणं ॥२९॥ उन्होंने कौशाम्बी में पांच दिन कम पाण्मासिक तप किया। कुल २२९ छठी तप (दो दिन के बेले) किए। दिवसट्टसया पारणया पढमवयदिणं चेगं । इय तेरस पक्खाहिय बारस बरिसावसाणे ते ॥३०॥ भगवान् ने दीक्षा दिवस से बारह वर्ष और तेरह पक्ष बीतने तक कुल ३४९ पारणे किए। जंभिय बहिरज्जुवालिय, तीरवयसाहसियदसमि पहरविगे। छठेणुक्कुडिय ठियस्स, केवलं आसि सालितले ॥३१॥ उन्हें जम्भिका नगरी के बाहर ऋजुबालिका नदी के किनारे शालिवृक्ष के नीचे ऊकडू आसन (वीरासन) में बैठे वैशाख शुक्ला दशमी को दिन के तीसरे प्रहर में केवलज्ञान का लाभ हुआ। बन्द २३, अंक २ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरकयं ओसरणे ठाउमीस कप्पो त्तिकाउ धम्मकहं । घुवमच्छरियं जाणियं वरचरण अभावियं परिसं ॥३२॥ फिर देवकृत समवशरण पर बैठकर उन्होंने आचार विषयक धर्मकथा कही किंतु देशविरति तथा सर्वविरति से यह प्रवचन अप्रभावी रहा । बहु तियस कोडिसहिओ, निसि बारस जोयणेहिं पावपुरि। गंतुं महसेणवणे चउविहतित्थं पइद्वित्था ॥३३॥ वहां से भगवान् रात्रि में विहार कर कोटि देवों सहित बारह योजन दूर पावापुरी पहुंचे और वही महासेन वन में चतुविध तीर्थ की स्थापना की। साहु सहस्सा चउदस, छत्तीसं साहुणी सहस्साणि । सेगूणट्ठिसहस्सा लक्खं सड्ढा दुगुण सड्डी ॥३४॥ चतुर्विधि तीर्थ में १४ हजार साधु, ३६ हजार साध्वी, १ लाख ५९ हजार श्रावक और ३ लाख १८ हजार श्राविकाएं थीं। चउदस पुव्वी वाई मणपज्जविणो य तिचउ पंचसया। सत्तसया केवलियो विउविणो तत्तिया तुज्झ ।।३५॥ चतुर्विध तीर्थ में ३०० चौदहपूर्वी, ४०० वादी, ५०९ मनः पर्ययज्ञानी, ७०० केवलज्ञानी तथा ७०० वैक्रिय लन्धि धारी साधु थे। पंच जम धम्मदेसग एक्कारस गणहरा नव गणा ते । तेरस ओहि जिणसया अट्ठसयाणुत्तर गई णं ॥३६॥ भगवान् पंचयाम धर्म देशक थे । उनके ११ गणधर और नौ गण थे। साधुओं में १३०० अवधिज्ञानी तथा ८०० अनुत्तर गति को पाने वाले थे । पंचतराय हासाइ छक्क मिच्छित्तमविरइमनाणं । अट्ठारस दोसा रागदोस निद्दा य मयणो य ॥३७॥ भगवान् ने दानान्तराय, लाभान्सराय, भोगान्तराय, वीर्यान्तराय, उपभोगान्तराय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मित्थात्व, अविरति, अज्ञान, राग, द्वेष, निद्रा, कंदर्प-१८ दोषों को नष्ट कर दिया था। इय नट्ठारसदोसदाह, चउतीसं अइसयसणाह । पणतीस बुद्धवयणाइ, सेस अच्छाह जयनाहा ।।३।। २६२ तुलसी प्रज्ञा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार १८ दोषों को नष्ट कर भगवान् अशेष गुणों के निधान बन गए। उनके २४ अतिशय और पंतीस वचनातिशय थे। नत्थि भवियव्वनासो, जं गोसालो तुमं पि तिजयपहुं। अक्कोसिय हा हा तुह, पुरो महेसी दहेसीय ॥३९।। होनहार का नाश नहीं होता। त्रिजगत् के प्रभु पर गोशालक ने आक्रोश किया और उनके सामने ही उनके दो साधुओं को भस्म कर दिया। जत्थ निवसंति संतो, खणं पितं किर कुणंति सुकयत्थं । इय नूणमुसभदत्तं, देवाणं वंचने सि सि ॥४०॥ फिर भी जहां संत निवास करते हैं, सब क्षण एक जैसे नहीं होते। इसीलिए भगवान् की कृपा से ऋषभदत्त और देवनंदा मोक्ष को प्राप्त हुए। सेणिय निव सिद्धाइय, देवो मायंगजक्खकयसेवा । नवतत्तसत्तभंगिं, पयडसि देसूणतोस समा ॥४१॥ राजा श्रेणिक, सिद्धायिकादेवी तथा मातंग यक्ष ने भगवान को नमन किया। भगवान् ने उस समय तक नव तत्त्व तथा सप्तभंगी का तीस वर्ष से कुछ कम (११ पक्ष कम) प्ररूपण किया । मज्झिम पावाए हत्थिवाल, भूवालसुक्क सालाए। पज्जंकठियासाओ वासदसए गए सड्ढे ॥४२॥ भगवान् महावीर मध्यम पाया नगरी में राजा हस्थिपाल की दानशाला में बैठे पे जब भगवान् पाश्र्वनाथ की मुक्ति को २५० वर्ष पूरे हुए। कत्तिय अमावसाए, गोसे छठेण साइनक्खत्ते । एगुच्चिय बावत्तरि, वरसाऊं तं सिवं पत्तो ॥४३॥ कार्तिक अमावस्या को प्रभात समय स्वाति नक्षत्र में जब भगवान् ने षष्ठी तप पूरा किया तो उनकी आयु के ७२ वर्ष पूरे हुए और उन्होंने मोक्ष पाया । एवं वोरजिणे सणेसर तुमं, मोहंधविद्धसणं । भव्वं भोरुह बोह सोह जणयं दोसायर च्छेयणं ।। थोउं जं कुसलाणु बंधि कुसलं पत्तो म्हि किंची तओ। जाइज्जा जिण वल्लहो मह सया पायप्पणामो तुह ॥४४॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार हे वीर जिन सूर्य ! तुम मोहरूपी अन्धकार का नाश करने वाले हो, भव्य जीव रूप कमल की शोभा बढ़ाने वाले हो और उसके दोष समूह का उच्छेद करने वाले हो वैसे ही तुम्हारी स्तुति करने से मुझे कुशलानुबधि पुण्य की प्राप्ति हुई है। मैं उसकी पुन:-पुनः याचना करता हूं। मैं जिनवल्लभ सदा तुम्हारे चरणों में नमस्कार क इति श्री महावीर चरित्रं समाप्तं ॥ कृतिरियं श्री जिनवल्लभ सूरीणां । शुभंभवतु । कल्याणमस्तु । पं० अभय माणिक्य मुनिना लेखि वेन्नातट नगरे ॥ तुलसो प्रक्षा Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती टीका १. दुरित क. (कहतां) पाप तद्रूपि यउरज तिहां वायु। मोहरूप पंक० कादम तेहनो ओघ समूह तिहां नीरसमान । प्रणाम करी तीर्थंकर महावीर प्रतइ । जीत उद्दइऽणंग क० कंदर्प्य रूप सुभट जिणइ। संसार रूप सुभट थीऊ फरावउ । ते महावीर में मोक्ष नइ साम्ह उ । चरित्रं इहां समकि तलाधा थी। थोडं सुं कहुं मोटका २० भंव ।। मालती छंद । २. सत्य ग्रामना कण बारिया नयसार नइ भवि। समकित लही नइ रही नइ सौधर्म देव लोकइ । चवीनई तिहाथी हुइ नइ मरीचि नामा भरतनउ पुत्र । पहिली लेइ पद्दइ छोडी चरित्र नउ भाव । ३. कपिल इहां पणि धर्म छइ पहवा उत्सूत्र तेहना लेस नउ परूपण । तिण की छइ सागरोपम कोडाकोडि भव भ्रमण जिणइ । वली पहिलउ वासुदेव पोतन पुराधिप प्रजापति मृगावती पुत्र हुई नइ । त्रिपृष्ठ नामा ऋषभदेव इ कहयउं हुं तउ। ४. नरकादिक गति बइ विषय भमीनइ हुयु पश्चिम महाविदेह इ मूकानाम नगरी नइ विषय । धारिणी माता धनंजय पिता तेहनउ पुत्र। प्रियमित्र नामा चक्रवर्ती । ५. चउरासी पूर्व लाख आउ खुं पालीनइ छइ जेहनु । दीक्षा प्रति कोडिवरससीम पाली नइ । सातमइ देवलोक कि १७ सागरोपम आयु षउ । सरवार्थ नामइ प्रधान विमान नइ विषय । ६. तिवर पछी जंबूदीवइ भरत क्षेत्रि। भद्दा नाम राणी जितसत्तु नाम राजा तेहनउ पुत्र। छत्रा ग्राम नो पुरी नइ विषय । हुयउ तुं नंदण नाम राजा। ७. चउबीस लाख वरस सीम। वसी नइ घर नइ विषय सद्गुरु पोट्टलाचार्य पासि । दीक्षा लेइ नइ लाख वरस सीम खपावी नइ नित्यइ मास खमणे करी। ८. बारबार सेवीनइ बीस स्थानक । उपार्जी नइ तीर्थंकर नाम कर्म । बीस सागरोपम नइ आयुषइ हुयउ। प्राणत नाम १० देवलोक पुप्फोत्तर नाम विमानइ। ९. छह मास आयुषइ थाकते इ थाकइ । पुण्ण नइ क्षयइ मोह प्रति पांमइ बीजा देवता । दूकडु छइ पुण्य नउ पुंज जियानइ । तीर्थंकर देवता दीपइ । १०. ब्राह्मण कुंडग्राम नइ विषय । अपतरयउ सुदि आसाढ छठिनइ । ब्राह्मण ऋषभदत्र नइ घरे । देवाणंदानी कुक्षि नइ विषय गर्भइ अपतरया । चण्ड २३, बंक २ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. अथ ब्यासी दिन गया पछी। चउदह सुपन त्रिसला देखतां। देवणंदा जाता देखतां । उत्तरफल्गुनी नक्षत्र कीधा छइ कल्याण जिणइ पांच । आचार्य करी छइ चरित्र जेहनउ। १२. लोक नइ विषय प्रसिद्ध जाति क्षत्रिय जाति । विख्यात य जाति जे सिद्धार्थ राजा तेहनी भार्या चेडाराय नी बेटी। त्रिसला क्षत्रियाणी नी कुक्षि नइ विषय । १३. इंद्र नइ आदेस इ हरिणेगमेषी देवता यइ। गर्भ नव विपर्यय करी नइ । आसोज वदि नी तेरस नी रात्रि नइ विषय तुं हे नाथ साहरिय उ संक्रमाण्यो। १४. क्षत्रियकुंड ग्राम नइ विषय जायउ चेत्रसुदि तेरसिनी आधी राति । काश्यप गोत्र छइ जेह नउ सुवर्ण वर्ण छइ जेहनी। कन्या रासि छइ जेहनी सीह अंक चिह्न छइ जेह नउ । १५. लोक नइ विषय चिंतामणि रत्न समान तुम्हे । अवतरय इथ कइ रत्न जन लोक धनधान्ये करी नइ थध्यउ-ज्ञातकुल ते भणी। वर्द्धमान नाम मा-बाप ना दीधा तु हुय उ प्रगट तुं। १६. जन्म मज्जन क्षणइ । जन्म महोत्सव इ ए बालक किम कलसां ना नीर सह स्पइ एहवउ इं इन उ कुविकल्प रूप खील उ उषा णिवसणी । जिण भगवंत मोट उ अवि पर्वत कंपायउ । ते भणी देवता ए महावीर नाम दीधउ । १७. २८ वरसे मा बाप परलोकि पहुंता पछी वडउ भाई नंदिवर्द्धन नइ वचनि आग्रह करी रह्य उ बिवरस सीम। गृहस्थावास इ निरवद्य वृत्ति सूझतउ आहार लेतउ । भाव चारतिया नी परि महामुनीश्वर नी परि। १८. सात हाथ देह छइ ऊंची जेहनी गृहस्थावास इ। रही नइ जीस ३० वरस सीम राज्य पदवी लीधी भोगवी। नव लोकांतिक देवता ए प्रेरयउ थकउ.... वरस सीम संवच्छरी दान देई नइ । १९. देवता ए राज ए कीधी छउ अनेके प्रकारे जल स्नान दीक्षाभिषेक देवता ना कीधा विलेपन तिण विलिप्त गात्र छइ जेह नउ। मनोहर अलंकार धरया छइ जिण इ । च्यार निकाय ना देवता तिण इ सहित । दिन प्रति । एक कोडि । आठ लाख । सोनहिया । मध्याह्न सीम दीजइ । वरसी दान । तीन सय कोडि । अठ्यासी कोडि । असी लाख । २०. चन्द्रप्रभा नाम सिबिका इं बइसीनइ, मगसिर मास नी दसमि वदि दिवइ चउप्पहरि, प्रधान वय इं दीक्षा लीधी जोवन वय इं, छठ तप कीधा हुंता ज्ञात खंद नाम वनइ। २१. करिनाम ग्राम नइ बाहिर । दीक्षा लीधी तेहिज रात्रि थइनइ वि आवइ सत्ये इंद्रइ उपसर्ग करता नइ वारइ गोवालिया नइ वीनती करइ । उपसर्ग रहित करूं हरेज्य उपसर्ग उपजता वारुं । २२. ते इंद्र नं वचन अमानीत इ तुं नइ निश्चयमति छइ जेहनी विचरत इ नइ २६६ तुलसी प्रज्ञा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोल्लाग ग्राम इ । बल नाम ब्राह्मण ने घरे दीक्षा था बीजइ दिन। पारणे क्षीर करी नइ थउं। २३. दीक्षा समय देवता ए कीधउ जे विलेपन ते पणि। साधिक चउमासे सीम थयउं तुं नइ दुखदायी। विलेपन माटइ भमरे कदर्थना कीधी। ग्राम्य तरुणे विलेपन नी प्रार्थना कीधी । तरुण स्रीया काम निमित्त प्रार्थना कीधी। २४. भगवंत थी उफराठउ सूल पाणि नामा यक्ष। क्रूरकर्मा अथवा क्रूरप्रकृति चंडकोसिक नामा साप प्रतइ । गणी नही आपणा शरीर नी पीडा । प्रतिबोधत उ हुयउ तुं हे भगवन् । २५. एक रात्रि नइ विषइ वीसं २० उपसर्ग कीधा संगम इ। छमास सीम नानां प्रकार ना उपसर्ग तुं नइ करी नइ निवारयो छइ इंद्र इ । सुर नउ अनइ स्वर्ग नउ संगम जेहनो । एहवो संगमो हुयउ। २६. काने कास नी सिलाका नउ घालणहार मिथ्यात्वी अथवा गोवालिय इ ऊपरि क्रोधी । खरक नामा वैद्य ते सिलाका नउ काढणहार। ताहरी बिहुं ऊपरि सरिखी मनि नी वृत्ति । २७. एक छव मासी नव । चउमासी। बि त्रिमासी। छ बिमासी। बारह एक मासी भगवंत तइ तप कीधा । कीधा ७२ पक्ष । २ दऊढ मासी। २ अढाई मासी वली कीधा भगवंत इ। २८. बि दिन प्रमाण भद्र प्रतिमा। चार दिन प्र० महाभद्र प्र० न प्रतिमा सर्वतो भद्र प्र० चिहुं ही दिसे च्यार २ प्रहर काउसग्ग। चिहुं ही दिसे एक २ अहोरात्र काउसग्ग २ । दश दि दसे एक अहोरात्रि काउ० करत उ हयउ निरंतर । त्रिण दिन प्रमाण एक रात्रिकी प्रतिमा बारइ कीधी अष्टम नइ अंत इ । अंत्य रात्रि काउसग्ग कीजइ । २९. पांचे दिने ऊणउ ६ मासी एक चंदना अभिग्रह पूरघउ ते मास खमण कोसंबी नगरी नह विषय करत उ हुयउ तुं । वि सयए गुणत्तीस २२९ करत उ हुयउ तुं छठें तप । ३०. एके दिन ऊणसाढा त्रिण सय ३४९ पारणा सर्व पहिल उ दीक्षा नउ दिन इम गणतां तेरे पक्षे अधिक बारस वरस नइ छेहड इ । तुं नइ । ३१. जंभिका नाम नगरी नइ बाहरि ऋजुवालिका नाम नदी नइ तीरि वइसाख सुदि दसम नइ त्रीज इ प्रहरि । छठे इ उकुडु आसन इ बइठां केवलज्ञान उपनुं साल नाम रुख नइ तलं इ। ३२. देवता ए कीधो जे समोसरण तिहां बइसी नइ हे ईस। एकल्या आचार करी नइ धर्म कथा निश्चय अद्देर उ जाणी नइ । वर प्रधान देश विरति सर्व विरत करी अभावितो पर्षदा। ३३. घणी देवता नी कोडि करी सहित । रात्रि नइ विषय बारे जोयणे ४८ कोसे पापा नाय नगरी प्रति जाई नइ महसेन नाम वन इ चतुर्विध संघ स्थाप तउ हुययउ। सन २३, अंक २ २६७ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. गौतमादिक १४ हजार साधु थया। चंदन प्रमुख ३६ हजार साधवी हुईजा। संख पुखली प्रमुख एक लाख उगणसठ्ठि हजार श्रावक । सुलसा रेवती प्रमुख ३ लाख, १८ हजार श्रविका। ३५. चउद १४ पूर्वी त्रिण सय वादी च्यार सय । मनः पर्याय ज्ञानी पांच सय ३ ३,४,५, शत सय । सात सय उ केवल ज्ञानी। वैक्रिय लब्धि ना धरणहार पणि उ सय ताइ। ३६. पांच जम कहतां व्रत रूप धर्म ना देशक । गौतमादि ११ गणधर नव गच्छ ताह रइ हूया । तेरइ सय अवधिज्ञान ११३ । अट्ठासय साधु अनुत्तरगति गया। ३७. दानांतराय १ लाभांतराय ३ वीर्या० ३ भोगा० ४ उपभोग० ५ हास्य १ रति २ अरति ३ शोक ४ भय ५ जुगुप्सा ६ मिथ्यात्व अविरति अज्ञान अठारह दोष राग द्वेष निद्रा कंदर्प । ३८. एम गया छइ अठार दोष रूप दाह जेह थी। चउतीस अतिशय सहिता पइंत्रीस वचनातिशय तिए करी। सेख अच्छाह लच्छ मधी जयवंतो वर्ति हे नाथ । ३९. नही । हुणहार वात नउ नास । जे भणी गोसाल उ तुं नइ पणि त्रिभुवन स्वामी प्रति । आक्रोस करत उ हुयउ तुं प्रतिखेद भगवंतो आगइ। सर्वानुभूति अनइ-सुनक्षत्र मोटा ऋषि प्रति वालते उ हयउ । ४०. जिहां वास उ वसइ महांत क्षण एक सी तेह नइ म । सत्ये करइ कृतार्थ निहाल ते भणी। निश्चय ऋषभदत्त ब्राह्मण नइ देवाणंदा ब्राह्मणी पहुंचाउ तउ मोक्ष प्रतइ हयंउ। ४१. श्रेणिक नाम राजा सिद्धायका देवी मातंग यक्ष ती ए कीधी छइ सेवा जेहनी। जीवादि नवतत्व नी सात भंगा प्ररूपित उ हुयउ केवलम । १३ पक्षे ऊणांत्रीस वरसां सीम। ४२. मध्यम पापा नगरी नइ विषय हस्तिपाल राजा नी दांन नी मांड ही नइ विषय । पद्मासन इ बइठां श्री पार्श्वनाथ थी अढीसय २५० वरसे गए थके। ४३. काती नी अमावस नइ विषय। प्रभात समय छठ तप इ स्वाति नाम नक्षत्र चंद्रमा योग वर्ततां। एकला बहुत्तरि वरस आउ छइ जेह न उ तुं मोक्ष इ पहुतउ। ४४. इण परि हे महावीर रूप सूर्य ! तुं प्रति मोहरूप अंधकार नउ गमावणहार भव्यजीव रूप कमल न उ विकासन तेहनी सोभा नउ करणहार। दूषणना समूह नउ उच्छेदणहार (सूर्य पक्षे चंद्रनउ निवास कारक) स्तवी नइ जे पुण्यानुबंधियउ पुण्य पाम्यउ छु हु कांई ते भणी हुइज्यो। हे जिन वाल्हउ मुंनइ सदा पादप्रणाम ताहर उ । इति महावीर चरित्रं समाप्तं २६८ तुलसी प्रज्ञा Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ English Section Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Second Convocation : 23.12.96 CONVOCATION ADDRESS JAIN VISHWABHARATI INSTITUTE, LADNUN, RAJASTHAN Shri Jagat Singh Mehta I am honured to be invited to address the graduates of the Anuvrat University. The first convocation of this University was addressed by H. H. The Dalai Lama. I am conscious of the lack of spiritual or academic merit to earn this privilege. I acceptod this invitation because for me Anuvrat is a kind of pilgrimage where even a casual contact may be like a dip in a Holy River. It gives you the exhilaration of feeling cleansed and fortified for greater unselfishness and responsibility to society at large. Anuvrat, the birth place of Ganadhipati Tulsi has come to be seen as a symbol not just of Faith, but of involvement in the challenges of the modern world. We are of course reminded of the abiding hold of Jainism but this place does not, I would guess, teach you that individual's salvation lies in escape but in the drive and search for the solutions of societal problems. Jainism emphasizes respect for life, it implies a firm rejection of militarism. This looks more and more prophetic in a needlessly over militarised world. The world is boset with conflicts but there is a grounds well of pro-test against weapons of destruction. Apuvrat also symbolises a special quality of leadership. Sages like Ganadhipati Tutsi, Acharya Mahaprajya show that they command respect not because they have any political authority but because they are living examples of moral strength. This kind of leadership promises no rewards. These are leaders whose life style embodies their message of self-discipline, renunciation, rejection of material comfort. Unlike the old Rishis and many other contemporary religious leaders they are vocal and earnest for peace. Jain Vishwabharati Institute in this heart land of Rajasthan has become a haven for inspiration for the message of peace. The existence of Vishwabharati is also a proof that hore in Independent India there is freedom of faith and a catholicity to allow many paths to the Godhead. Our functioning democracy guarantees secularism. We have never excommunicated the agnos Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 TULSI-PRAJNA tic or the non-believen I believe that we do not sufficiently take pride and trouble to nurture the deirocracy which gives us such freedom. India and the United States of America are the only two countries who had pledged themselves to democracy even before their aspira. tions for independence was realised. In December 1946 when our Constituent Assembly met, it affirmed that India shall be a democratic republic and that was before the transfer of power and partition. Our struggle to Independence became a path-setter and an inspiration to mony other countries and indeed started the whole process of decolanisation of Empires. The Indian National Congress was founded in 1885. The Chinese revolution came in 1911, but even Sun Yat Sen had no thought of imperialist exploitation of other countries. No doubt it imbibed ideas from the liberal political thinkers of Britain and Europe, the tradition of toleration and of pluralism is indigenous to the Indian civilization. It is only in the Hindu and Jain traditions that there is such a basic respect for multiplicity of faiths and a kind of in-built revulsion against proselytizing and religious militancy. Incidentally I found acknowledgment of this feature of our civilization in an article by Prof. Samuel Huntington in the current issue of Foreign Affairs, possibly the world's most influential jourpal. This article itself is a sequal to his essay two years ago where he had argued that the future conflicts wil be in the nature of clash of civilizations. In the latest essay he says, Only in Hindu civilization, are religion and politics kept separate. In Islam God is Caesar: in China and Japan Caesar is God" tington claims that in the western history the Church and later man churches existed separate from the State, but this assertion has a selective reference to the post-reformation phenomenon of Protestantism. It dates back only to the 16th century. For the previous millennia the Catholic Church, the official religion, alone provided temporal authority. A ruler derived legitimacy only from the consecratson by the Pope. Huntington overlooks the militancy of the Crusades. The point I wish to make is that our civilization had the ingredients for tolerance and plurality of faith which are now considered essential attributes of modern governance. Jainism in its focus on the sanctity of life has always displayed a revulsion against wars. This provides the moral basis of what is now called individualism. Revolutions for political transformation be, it against foreign domination or for internal social change, have been violent and bloody. America had to fight a war of independence, the October Revolution in Russia was bloody and vengeful. It is only in India tbat a political revolution was wrought through moral persuasion, Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 2 In this respect the long and determined struggle under Manatma Gandhi's leadership was unique. The instrument of civil disobedience and of non-cooperation by openly breaking the law but accepting punishment without being provoked to anger or retaliation was in essence the reflection of the faith in moral persuasion and asking for a change of heart of the oppressor and the adversary. Gandhiji's whole life's message shows the influence of Jain philosophy of disciplined and selfless courage of persuasion by individual in his example, of appeal to the conscience. There is no parallel of hostility turning into friendship as between the Indian people and British rulers. It was only because Gandhiji had the unique emphasis on ends and means The parade scheduled at India Gate on 15th August 1947 was the greatest even of the British Empire. I was there. It was great because the parade could not take place as the people overran the grounds around Rajpath near India Gate shouting, "Gandhiji Ki Jai", "Mountbatten Ki Jai". The old hostility against British rule had evaporated over-night and transformed the complexion of the relations between India and U.K. into equality and friendship. I remember also going to Dublin with Shrimati Vijay Lakshmi Pandit in 1956. The president of Ireland said to her that they admired everything about polices of India and specially the leadership of her brother, Jawaharlal Nehru, but they could not understand how he and India could stop hating the British! Ireland had suffered like India but the Jain and Hindu philosophy was not part of Ireland's heritage. 45 Today we do not see the moral values which characterised our freedom struggle. Terrorism, killing, hijacking, hate and hostility are seen as instruments of national and sub national protest and advancement of political goals. We are witnessing political militancy in the Punjab, in Kashmir, in Bodoland, in Telengana and in the Hindu-Muslim tensions. What a contrast to hundreds and thousands who sought to go to jail under the civil disobedience movement with no word of reproach against the Indian Sub-Inspector who arrested them. Gandhiji's example directly inspired Martin Luther King and Nelson Mandela. It is exemplified today in the determined uncompromising defiance of Aung San Sue Kyi in Myanmar. In a lesser way many in the Human Rights movement are examples of principle and conscience as the defiant instrument of persuasion. This kind of political activism shows the abiding vitality and inspiration of Gandhiji. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 TULSI-PRAJNA Our constitution embodies the enlightened principles of democracy-of fundamental human rights, of the sanctity of the rule of law. of judicial independence but the special heritage of India of superior public morality, of toleration of plurality of faiths : politics without resort to violence and retaliation is now almost held in contempt. The Indian people as a whole are feeling a brooding sense of anxiety about the Nation's tryst with destiny. People's faith in democracy is not yet dead but too many have lost hope of social justice through the constitutional and legal processes. Politicians are seen as not concerned with public welfare but with making personal aggrandizement their primary aim. There is rampant abuse of authority, extravagant appropriation of public funds and cynical disregard for the neglected agenda of poverty. We sense a near fatal moral hemorrhage of a nation, which fifty years ago had the promise to be the moral mentor of the world. In 1946 Dean Acheson in a statement on the eve of Panditji and Jinnah's visit to London appealed to India to seize the opportunity as the peace of the world would depend on this country. No one in the world today grants India as holding the high ground and example of peace. No one accepts India as a model of enlightened internationalism. The entire degeneration in the body politic can be traced to a departure from adherence to principles which were of our civilisational heritage. We too have yielded to the corrupting temptation of power. Nehru questioned Gandhiji's philosophy of self-reliant development of Khadi; he chose to go the way of building-dams and factories and stimulate the gallop towards industrialisation around the socialist pattern. He called them modern temples. The Socialist utopia stands rejected by people of the socialist countries themselves. But Nehru had a vision, he was a true humanist and democrat. He was transparently dedicated to bend every ounce of the national energy to build a better tomorrow. He did not anticipate that power would corrupt absolutely; he did not foresce the bureaucratization of the country sapping the vitality of the people. His idealism got deflected by partition. History will not be kind to him for not having joined Gandhiji in remaining principled against the vivisection of the unity of the sub-Himalayan civilization. Nehru also proved wrong in thinking that after the end of imperialism, nationalism of the newly independent countries will be constructive and there will be no conflicts between the liberated nations. He did Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 2 47 rearmament. not expect a conflict with China. But at least he respected the independence of Nepal, Bhutan, Sri Lanka and the separate personality of Sikkim. The fundamental of non-alignment was always on the reliance of people's development and peole's confidence in their own chosen path in international affairs. While we continue to pay homage to non-alignment, after Nehru we started to imitate the big powers which were giving primacy to military and nuclear weapons' sophistication. For the great powers for 40 years, disarmament was a "Game" of public relations and a cover for continuing and rapid We were in the vanguard to expose these fallacies, but now when the world has shifted to recognize the primacy of economics, trade and development and the relevance of people's participation for real security, India is turning to militarism at the expense of people's welfare. We stand isolated in the world by insisting on the right to build nuclear weapons. We have refused to join in the steps towards comprehensive ban on the weapon testing. This is to my mind a moral repudiation of our civilisational heritage. We are risking losing the right to speak for the poor and the weak nations of the world. We will lose our standing with enlightened democratic countries like those of Scandinavia. If Vietnam, after having suffered total destruction by a great power like United States, and actual experience of a punitive attack from nuclear China in 1979, can renounce the nuclear option, how can we morally hold our head in front of 180 odd nations of the world who have signed away the nuclear option. Such unprincipled exceptionalism will jeopardize our international credibility and our moral heritage. It is not even a rationale for security. We would not reach the stage of having a plausible deterrent for 10, 20, 30, 50 years and in the meanwhile we would have been politically marginalised and put morally on the defensive. All this was avoidable if we had clutched to our civilisational values. We must learn our lessons from the collapse of Soviet Union which remains militarily a giant but has become politically a pygmy. It is ironical that Russia is now dependent on the handouts from the World Bank and the U.S.A. finds it in its interest to prevent the collapse of the old mortal enemy. I know what I am saying is a cry in the wilderness but here in the forum of the Anuvrat, I cannot but speak my mind. It is not pleasant to criticise one's country but the strength of democracy demands citizen's responsibility for national future. I may add that I see some positive signs in the international approach Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 TOLSI-PRAJNA of the present government in Delhi. The agreement recently signed with Bangladesh on the sharing of Ganga water and the earlier agreement on the Mahakali Basin in Nepal are positive achievements. They are positive because they are generous to our small neighbours and they implicity recognize that our national interest are best safeguarded in actually contributing towards the prosperity and stability of our neighbours. Like us they are dependent on the same Himalayan watershed. They share the heritage of the Indian civili ation. My experience tells me that winning trust and friendship through diplomacy is possible : on the other hand frightening our neighbours into docility has proved and will prove counter productive. We must give our neighbour the same respect that we demand from a great power like the United States. But enough of the departure from the principles in our interna. tional relations. Our real strength and security depends on whether we can give a better life to our own people. Can we build what Galbraith in his last book calls “the Humane Society", a society where power is Bot abused and civil society is not at the mercy of corruption ? Fot the first time he says, there is no tangible manifestation of imperialism. A good society must be transparently responsible to its own people, for the welfare of its own citizens. A humane and just society in today's world must also be geared to meet the ecological crisis facing the world. We in India thought we were too poor to pollute-indeed some in India, claimed the right to pollute as a method of ephancing our importance. This is a kind of post-cold war method of blackmail and attracting foreign aid. But the worst aspects of pollution crisis of breathing and of water is now on our door-step. They affect only our people. The waters of lakes in Udaipur are not potable: the roads of Delhi are promoting slow death in our capital. Many nations have taken effective steps but India with its gigantic problem of health is only now making up its mind to take steps. Our future, good or bad is largsly in our hands. Crises are all arround us ; it is international, ecological and national. All these put together are, however, part of the moral crisis of the modern world. The real tragedy is that India's civilisational heritage for which our ancient sages had bequeathed prophetic answers was damaged if not jottisoned by modern day India after Independence. The respect for life, discipline, revulsion against extravagance, strong protest against corruption and against Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 2 the callous abuse of power are all inscribed in our sacred texts. We in Gandhiji's India did not need the Club of Rome to tell us of the Limits to Growth But we abandoned the principles which gave our civilization strength and success in our quest for freedom. We of Nehru's India, should have had the moral courage to temper militarisation and give due emphasis and priority to people's rigbt to better life. I am associated with two volaptary organisations in Udaipur. Seva Mandir and Vidya Bhawan. Seva Mandir works in 400 tribal villages with the philosophy that people must participate with sacrifice and effort in their own development. Vidya Bhawan is an educational society with 8 institutions. Seva Mandir is committed to its motto-"Seva Sadhana Kranti" and Vidya Bhawan to 'Karmanyevadhikaraste Ma Phaleshu Kadachan'. Both share the conviction that the burden of development and poverty alleviation cannot be left to government's responsibility. Vidya Bhawan's aim articulated in 1931 stated that education must be for all round character development of the child. Alas, Vidya Bhawan got contaminated by the pollution of values prevailing in the politics and the society around us. But we are trying to regain our ideals of service, even in the face of financial deficits. We want to establish a new lastitution to train Panchayati elected democrats in Local Self-Government. It would be a school for citizenship combined with a documentation centre for Human Rights. We have faith that Voices from below can bring a corrective to corruption in the higher echelons. We look to public spirited people of all creeds to bolster our faith and provide the means to persist with our goals. Our aims are modestly similar to that of Anuvrat. But we lack the leadership of people like Acharya Tulsi. Anuvrat is an island committed to India's renewal. Your message of peace is a call for internationalism and building a partnership where practice and principle are in harmony. You the students who have come here are fortunate. You have learnt that inner discipline, self-restraint, sense of fraternity, disrcgarding caste, colour or creed can create a society that can lead to freedom from submission, anxiety and exploitation. We diplomats are hypocritical when we talk of peace. Here your commitment flows from iqner conviction of Preksha Dhyan and Sadhana. You Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SO TULSI-PRAINA have the right to demand that there should be no more Hiroshimas, even in the face of our government wanting to keep such an option of retaliation. The spirit of Anuvrat provides answers for India and the world. I bow to Acharya Tulsiji and Acharya Mahaprajna. --Shri Jagat Singh Mehta Retd. I.F.S. Former Secretary to the ministry of External Affairs, Govt of India Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAJASEKHARA ON ROLE OF TRADITION IN THE MAKING OF A POET Ram Prakash Poddar In the opinion of Rajasekhara, no one can be a poet in isolation, One has to belong to the tradition of one's land and literature to become a poet in the real sense of the the term. One may vent one's emotions and thereby get the satisfaction of self-expression, one may compose verses in ornate style and feel proud of one's compositional skill, but to become a poet of the society or the nation, one will have to come out of one's individual cocoon and belong to the traditions of one's society and nation. A poet obsessed with idcosyncrasies can not be universally accepted. For this he will have to transcend his subjective barriers. Rājasekhara has hinted at this fact in the poetic duel between Vicaksana and the jester in the Karpūramañjari. The verse composed by the jester runs as follows :Phullukkaram kalamakurasam vahanti Je sindhuvāra vidavā maha vallha te / Je galiassa mahist-dabigo sariccbā Te kiica mudhaviailla pasūņa punja // (I. 18) Commenting on this verse Vicakşaņā says to the jester-'niakantarattanajoggam te va anam'-'your words are such as your own beloved (wife) alone can take delight in them, none else.' The jester is very fond of rice and curd. So for him these can express to an advantage the charm of the Sindhuvara and Vicakila flowers. The latter being universally accepted as beautiful and the former (rice and curd) not being so, the latter suffer a set back by comparison with the former. It is said that once a poct, like the jester of Karpuramaõjari, approached King Bhoja and wanted to please him with their verse-'Bhojanaṁ dehi Rājendra ghrtasūpasamanvitam /. This was enough to displease the king till Kalidasa intervened and said that the other line was-Mcâhişam ca saraccandracandrikāsarisaṁ dadhi //' which of course had its appeal. Here we have an example of an object of limited appeal being compared with one of universal appeal and thereby made universally acceptable. On the contrary in the jester's verse things of universal appeal are dwarfed by being compared with those of limited appeal. The verse that Vicakşapp reads as reply to the jegter runs as Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 TULSI-PRAJNA follows: Je Lankāgirimehalāhim khalida sambhoakhiņñorai Phārapphulla phapävalikavalano patta dariddattanam / Te enbiñ malaānila vira biņiņisasa sampakkino Jādā jhatti sisuttane vi bahalā tāruņņapuņņā via II (1-19) This verse being impersonal in both subject and diction is capable of having universal appeal. So Rājasekhara (through the hero of the play) praises Vicakşānā as 'kavicūdāmanittane thidā exã'. This praise is bestowed on her because in respect of subject-maiter and diction her composition is not cut off from the general tradition of nature poetry--which is the content here both varying to describe the vernal beauty in their own way, whereas the jester's verse is cut off because of its expressing an idiosyncracy. Literature (vānmaya) and Life (loka) are the constituents of tradition. Literature may have two main divisions one mainly for knowledge (Šāstra) and the other for pleasure (kävya). In its entirety it contains the cumulative outcome of human thinkings and experiences. It is the national and social heritage, continuation of the past in the present. Life as lived by the masses too is a continuous flow from immemorable ancestory. It expressess itself in the attires and the ornaments, in general conduct and behaviour in speech, song and dance and in festivities and merry-makings. In Kāvyamjmāmsā Rājasekhara says that as one cannot see the objects in darkness without a lamp, so too a poet cannot see the theme of poetry without erudition. So before entering into the field of poetry, an aspirant should cultivate the traditional lores (sästra). This has been said to consist of the four Vedas - Rk, Yajuh. Sāma and Atharvāna; the four Upavedas-Itihasa Dhanurveda, Gādharva and Ayurveda; the six Vedāngas-Sikşā, Kalpa, Vyakaraña, Nirukta. Chandoviciti and Jyotisa and the Puranas, Anvikşiki, Mimāṁsā and Smrtitantra. Rajasekhara has stated both the Purānas and the Smstis as eighteen each. Further, he has divided Anvīksiki as Purvapakşa and Uttarapaksa. The former consists of the Jaina, the Bauddha and the Lokāyata and the latter of the Sāňkhya, the Nyāya and the Vaiseșika. To these traditionally accepted lores Rājasekhara is in favour of making some additions. According to him the Rhetorics (Alarkāra Sástra) should constitute the seventh Vedenga because along with the other Vedāngas, this too contributed to the comprehensive of the Vedas. Those who propound that there are only fourteen branches of learning (Vidyāsthānas-the four Vedas, the six Vedangas and Purāda, Aavikņiks, Mimāmsă and Smrtita atra) are advised by Raja Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53 Vol. XXIII, No. 2 sekhara to include Poetics (Kavyavidyā) as the fifteenth branch of learning. Citing Kautilya that there are four disciplines—Anviksiki. Trayi, Vāritā and Dindiniti, Rajasekhara suggests that Sahityavidyā (creative literature) should be recognized as the fifth discipline. In his opinion it is the quintessence (Nisyanda) of the said four disciplines. As the other disciplines lead to the attainment of Dharma and Artha, so does the Sahityavidyā too The traditional sixty-four Kalās have been called Upavidyas by Rājasekhara and juxtaposed with the Vidyās. Including rhetorics, poetics, creative literature and the sixtyfour Kalās among the traditional lores and mentioning the Jaina and the Buddhist philosophies as pūrva pkşa along with the orthodox stems is Rajasekhara's originalit. Kautilya includes Sānkhya, Yoga and Lokāyata in Anviksiki. Vātsyāyana in his commentary upon the Nyayaśāstra condiders Anviksiki as synonym of Nyayasastra. Though the traditional lores (śāstra) hold a torchlight to the poet, it is actually life which inspires him to create poetry. In Kāvyanimāṁsā Rājasekhara bas indicated it in the allegory of Kávyapuruşa and Sahityavidyā Vadhu. Kavya purusa is the child of Sarasvati, the mother of learning (Vārmaya). One day she is going to Brahmasabhā (assemby of the learned to resolve some dispute regarding the Sruti The child Kavyapuruşa too insists on accompanving her. But the mother prohibitsOne should not go to the Brahmasabhā without being invited'. Kāyyapurușa is angry and he goes away leaving the Aśrama (where Sarasvati had been atoning for a human sin committed once in Brahmasabhā). To tame the turbulant Kāvya purusa Pārvatī, the mother of creation. produces Sāhityavidyā-Vadhū. She knew that there was no chord stron than love to tie and tone down a stray heart. She instructs SahityaVidya Vadhũ that her natural consort the Kävya purusa was angry and he was going stray; she has to pursue him and entice him with her charms. In this pursuit Rājasekhara has taken Kavya purusa and Sāhityavidyā Vadhů to a journey of the whole country. First of all they went to the east and travelled through Anga and other Janapadas. Sāhitya Vidya Vadhu decked herself in the attires of that part of the country and tried to concitiate Kavyapuruşa with the diction and the gestures and the dance and the music prevalent in the region. Subsequently, they travelled through Pāñcāla (in the west), Avanti (in the central part) and Malaya (in the soutb). Sahityavidyā Vadhû went on assuming the attires, the dance and music and the gesture and speech of these provinces to appease her man the Kāvyapuruṣa. From her attires came out the Pravrttis, from the dance, music and gestures came out the Vrttis and from her Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJŇA speech came out the ritis. Considering the minute variations from place to place, each may have numerous divisions, but according to the dominant features only four divisions could be made. Of Anga and other provinces of the eastern region the Pravṛtti was called Audramāgadhi, the Vrtti Bharati and the Ritu Gaudi. Of Pancala and other neighbouring provinces the Pravṛtti was called Päñcālamadhyama, the Vrtti Sātvati Arabhati and the Riti Pancali. Of Avanti and the neighbouring provinces the Pravṛtti was called Avanti, the Vrtti Satvati and Kalsiki. Of Malava and the neighbouring Janapadas the Pravṛtti was called Dākṣiṇātya, the Vrtti Kalsiki and the Riti Vaidarbhi. Cumulative effect of all the Pravrttis Vrttis and Ritis propitiated Kavyapuruşa and he fell in love with Sahitya Vidya Vadhu. The two got tied in wed-lock, came to their mothers Sarasvati (mother of learning) and Parvati (mother of creation), obtained their blessings and at their behest began to inhabit together in the mind of the poets. 54 In this allegory Kavyapuruşa stands for the intellectual or the discipline aspect of poetic composition whereas Sahityavidya Vadhu stands for the experiences of life. In the beginning of the tenth chapter of the Kavyamimāmsă Rajasekhara while defining Kavya vidya says that study of the nominal and verbal forms of words, lexicons, prosody and rhetorics is Kavyavidya. This is an intellectual excercise and helps the poet in making poetry. Sahityavidya Vadhu is the experience of life. She assumes the attires, the gestures and diction of the people. Thus, Kavyapuruşa and Sahityavidya Vadhu inhabiting the minds of the poets indicates that the discipline of poetic composition and varied experiences of life together make poetry. In the Kavyamīmāmsā wherever Rajasekhara advises poets to cultivate the allied discipline, he directly or indirectly refers to the experience of life as well. In the tenth chapter itself where he advises poets to cultivate Kavyavidya he does not forget to mention that experience and knowledge of life and land is the fountain head of poetry. In chapter VIII under the title Kavyarthayonayaḥ Rajasekhara gives an exhaustive list of sources of poetic themes. These are Śruti, Smrti, Itihasa, Purāṇa, Pramāņa vidya (Mīmāmsā, Sänkhya. Nyaya-Vaisheṣika, Bauddha, Lokayata and Arhata doctrines), Samaya vidya (different religious beliefs, Rajasidhāntatrayi (Arthaśāstra, Natyaśāstra and Kāmasūtra). To this list of the traditional lores Rajasekhara appends Loka (life) and Viracana (poetic fancy?) as well. Other Acaryas too have mentioned life (Loka) and learning Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 2 (Vidyā), as constituents of poetry or the source of poetic themes. Among these Rudrata went as far as to generalise that there can be no word, no denotation of a word, no stand point and no art which may be iacapable of constituting poetry. In short a capable poet can make poetry out of anything. But excellence of Rajasekhara lies in his going into the details and substantiatiog his propositions with suitable illustrations. His illustrations are really very significant, These evince that a poet, qua poet, is not concerned with upholding or opposing any thought or doctrino. All he is concerned with is making poetry out of it. And it is with this end in view that he imbibes from all the streams of learning, all religious doctrines and all philosophical postulates Some of the examples of converting an idea into poetry that he gives in his Kavyam[māṁsā are really very bold and they are exposed to the risk of an ardent advocate of that idea taking umbrage. Words indicate the intention of the speaker (i.e. they don't have any ipherent meaning, rather they derive meaning from the intention of the speaker). This Buddhist doctrine is turned into poetry in the following lines : "Bhavatu viditam sabdá vakturvivaksitasūcakah Smaravati yatah kante kāntām balāt paricumbati / Na na na ma ma mā mā mām spraksirnişedhaparam vaco Bbavati sithile managrantbaṁ tadeva vidhayakam // A serious advocate of this doctrine may feel that an important point of view has been taken very lightly or rather it has been travestied. But a poet is concerned with making poetry and qua poet he need not go beyond this. At the beginning of the Kāyyapuruşa allegory Sarasvati prevents Kavyapuruşa from going to the assembly of the learned șșis discussing tbe Vedas (Sruti). This may imply that the Śrutis or any discipline proper is not the home of Kävyapuruṣa. Tbey may utmost be his haunts. His homeland is the God's plenty, the varied experiences of life which ultimately he finds to be his lot when he wanders throughout the length and breadth of the country in the company of Sāhityavidyā Vadhū. Rajasekhar advocates the observance of Kavisamaya (poetic conventions) because by continous vogue they have obtained a sort of traditional sanctity. Even if a poetic convention is not vouched at a particular time or place, the poet, according to Rājasekhara has to carry it on because by virtue of being used by the ancient poets it has established itself at least on an ideal footing, if not factual. In the Kavyamīmāṁsā Rajasekhara cites a number of poetic conventions with examples of their use in poetry. He believes that at some place, Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 TULSI-PRNAJA at some point of time, they must have been experienced by some individual, otherwise they wouldn't have come in vogue. So they cannot be said to be baseless. Now, even if they are not being proved, they shouldn't be abandoned. The reason is obvious. If they are abandoned, their tradition will be cut off and consequently, interpretation of their use by the ancients may pose a problem for the posterity. So they should be accepted and carried on as poetic (Kāvyadharmi) reality, as we have in the plays (rūpakas) the dramatic (nätyadharmī) ones against the actual life (lokadhar mi) realities. Thus, in the opinion of Rajasekhara, for becoming a poet, efficiency in the use of language, skill in prosody and rhetorics, are not enough. The aspirant has to be thoroughly acquainted with the literary and social traditionas of the entire language community. He should be imaginative enough to pick his themes from different sources and should be, by virtue of his imagination, astute enough to transform even trash into transparent poetry. Rajasekhara fully appreciated that inspite of the apparent contradictions and the diversities there was a thread of unity running through the literary, ideological, religious and social traditions of Bhāratavarsa. He conceived the cultural heritage of the whole country as one organic whole and did not isolate any region, any language, any faith, any ideology or any Social behaviour. This cultural heritage, in its entirety, he considered, provided sustenence and growth to poetic aspirations, without this the poet had no ground to stand upon. This grounding of the poet and his poetry, and for that matter all the literary activities, in the tradition has a double purpose. While imbibing from the spring of tradition, the poet has to keep it clean and protect it from being polluted. This latter function, which is essential for the preservation of the nation's identity, cannot be performed by one who tries to create poetry with out taking roots in the traditions of his country. - Dr. Ram Prakasb Poddar Professor and Project Director M.A. (Jainology) Correspondence Course, JVBI, Ladnun. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jaioa Epigraphy-2 CLASSIFICATION OF JAIN INSCRIPTIONS OF RAJASTHAN Ram Vallabh Somani Jainism has remained a popular religion in Rajasthan, since an early age. But it has a few early fregmentary Jain epigraphs, whose Jain identity itself is doutful. However a large number of Jain inscriptions from the 10th to 17th centuries A.D. are known fro various parts of the state. Thus the Corpus of the inscriptions is very important for studying the socio-economic and political history of the medieval Rajasthan. Categories of the inscriptions : The Jain inscriptions of Rajasthan provide a rich and valuable source for study of history. They may be classified into the following categories : (i) Inscriptions pertaining to construction and renovation of temples including consecration of the icons. (ii) Grants made for maintenance of temples together with arrange ments of certain celebrations. (iii) Historical Jain inscriptions. (iv) Inscriptions pertaining to pilgrimages (Sangha Yātra) etc. (v) Others, Inscriptions pertaining to constructions of temples : The Jain inscriptions throw interesting light on the history of various architectural sites. Sometimes temples were badly destroyed by the invading forces of the Muslim Sultans causing renovation of old statues and installation of new icons in the temples necessary. Muhammad Ghori, who invaded westerol Rajasthan in V.E 1234 (1178 AD) and Sapadalaksa2 in V.E. 1248 (1192 A.D.), destroyed several temples. Alauddin Khilji's forces brutally devastated the Jain temples of Mungathalas, Jiravala, Abu5, Chittore, Ranathambhor, Jalore? and other places. Some temples were completely demolished. Their details can only be known from the epigraphical fragments and dismembered parts that survive. At Chittor, several inscribed stones were found studded in the Gambhiri-river, bridge Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 TULSI-PRAJNA built by the viceroy of sultan Alaudin Khilji. Many inscribed stones are lying in the State Museums, Udaipur and chittor and in the office of Archaeological Survey of India, Chittor. Inscriptions from the Jain temples of Jalore, which are now fixed in the walls of Topakhapa mosque of that place, have also survived and are only the remnants of massive temples. The Mughal forces devastated several temples of Godawar, Sirohi, Mewar and other places. The inscriptions of Ranakpur, Nadlaio, Barakana10 and other places. evince that the temples were renovated and new icons were installed er settlement was reached between the rulers of Mewar and the Mughal Emperor in 1615 A D. The Mughal forces also carried out depredations in the Sirohi area taking away with them more thar 1000 Jain bronzes. These were later handed over to Maharaja o. Bikaner and are now preserved in the Chintamani temple of Bikaner. In the earlier times, the plan of a Jain temple was quite simple. However, after the 10th century A.D. additional structures : the Trika-Mandap, Ranga-Mandap, Devakulikas and others were also added to Shvetambar Jain temples. It also became a fashion to decorate the temple elaborately through fine architectural designs and attractive tracery works. Thus the temples had become too ambitious for a single financer to be able to bear the cost of construction and maintenance (e g. Ranakpur). The works of renovations, additions to the temple, construction of Devakulikas, Mandaps, Stambhas, Chatuskikās and others were therefore, shared by several persons. It is interesting to note that there was no uniform way of recor. ding these details in the inscriptions. Some times the big Prashastis were composed to record the minor works undertaken by individuals. Major renovation and additions to the Vimal-Vasati were carried out in V.E. 1206 by Prithvipal. But he had recorded his deeds in a fragmentary inscription having a single verse 11 Similarly the major renovation of Lunig12 Vasati done by Pethadkumar is also mentioned in a small epigraph. In this way, we can say that no standard draft recording the renovations and additions to temples etc. was popular, Inscriptions of the Icons : The inscriptions engraved on the pedestals of the icons, shilapattas etc. mostly have the following points in the draft. (1) The inscription is opened by giving some religious marks like Shri or Hrim. (2) The date is generally recored either in the boginning or at the cad. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59 Vol. XXIII, No. 2 (3) The name of the ruling prince is generally not recorded. But there are cascs also when these names have been mentioned. (4) Details regarding the families of the Jain Shresthis, who had the icon installed, are given. (5) The names of Jain ascetics, under whose instructions the icon was set up and who consecrated it are also recorded. (6) Some times the names of the Sutradhār, who had carved the icon, are also given. On bronzes, the inscriptions are mostly found on the reverse side. Due to lack of space, abbreviations have sometimes been used for common works like Shresthi, Vyavahari, Vastayya, Upakeeh, Gachchha and others. Inscriptions pertaining to grants and endowments : Grants and donations were made for maintenance of Jain shrines and for performance of certain religious rites and celebrations, not only by Jain Shresthis, but also by ruling families and other officials. These grants can be broadly divided into two classes (i) Lengthy-Prashastis and (ii) fragmentary records mentioning a grant. The grants made by a ruling family were generally termed "Surah”. The word "Surah" is derived from "Surabhi" (kāmdhenu the divine cow that grants desires), which become a distinctive emblem of the royal charitable grants engraved on stone. The figures of Sun and Moon are carved on its top and cow and calf at its end. These were the emblems of religious endowments, which were supposed to have been made for all times to come till the Sun and Moon shines in the sky. The draft of the Surah or grants generally conta following items : (i) The date and year of the grant, which was either given in the beginning or recorded at the end of the inscriptions. (ii) The name and antecedents of the granter. In case he was not the ruling prince, the name of the latter was also mentioned. (iii) Purpose of endowment was always specia fically recorded. In medieval Jain inscriptions we find following common purposes for donations : (a) Management and maintenance of temple including the supply of material for 18 daily worship of the deity. (b) Rathayātrāla (c) Other celebrations15 like Asthānikā, Kalyānika-parva. Annual celebrations (Varsha-Granthi) and others. (d) Minor-works-like supply of oil for lamps incensel6 apd others. (©) Exemption on levy of taxes17 from piligrims coming to visit Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA the religious shrines (Abu etc ). (iv) Details of beneficiaries are also given. The grant being a legal draft the stress was always laid on recording due details with exactness in order to minimise ambiguity. (v) The inscriptions ends with a record of the names of witnesses and the usual customary verses in praise of endowments in general. A hope is expressed that no one would transgress the grant. Endowments were made both in cash and in kind. Sometimes the donor also desired to spare a part of his income payable from the royal Mandapikā and others. Among these, the selahāthābhāvya and Talarābhavya were the important items from which such share was mostly desired. Similarly, donation was also given out of the income derived in shape of tax to be levied from import and export of apimals and other merchandise. Besides, the donor also paid a lump18 sum, the interest of which was required to be utilised for specific purposes. Historical inscriptions : As already stated, Jaio epigraphs never aimed to give an account of historical events. But due to some conventions observed in their drafting a certain amount of incidental historical information does become available from them. Inscriptions important for this purpose can be further classified into two groups i.e. (i) big prashastis having detailed genealogy of the ruling families together with antecedents of the Jain Shresthis and (ii) the inscriptions having causual historical informations. The big prashastis may contain the following: (i) Invocatory verses in the beginning having cognizance of the Tirthankaras, Shasanadevata, Sarasvati and others. Very few Jain inscriptions contain verses in praise of the divinities of other sects in their invocatory parts. The Vimal Vasati inscription19 of V.8. 1378 (1321 A.D.) which has verses in praise of Lord Shiv in its beginning, can be said to be an exception. (ii) After the invocatory verscs, a few are generally found concer ning the history of the royal family ruling in the reigon. This section of the inscription is expressed by the words; the Rajāvalli or Rājavarsha Varnana.20 In the Chittor inscription21 of VB 1495 (1438 A.D.), the Shatrunjay inscription2a of the family of Karma Shah of Chittor, the Abu inscription 28 of vie. 1378 (1321 A.D.) and others a geographical account of the surrounding region is also furnished as a prelude to the details pertaining to the ruling family. In the Sadari24 inscription of V. E. 1557 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 2 (1500 A.D.) an account of Jain preceptors immediately follow the invocatory part. But generally it is the description of the ruling families, which follows the invocatory verses. There are, however, certain Prashastis, which do not contain the Rajavalli or Raj-Vamsha-Varnana. (iii) The chronology, tradition of Jain preceptors and the antecedents of the Jain Shresthi, at whose behest the Prashasti was inscribed, come after the Rajayalli. While describing the Jain Sadhus the name of the Gachchha, details of his preceptors, ancestors and honorific or descriptive epithets, if any, used for him are also given. This practice is found in the inscriptions of both Shvetambar and Digambar Sects. While describing the Jain Shresthis. details concerning clan, namely whether he was an Oswal, Palliwal, Porawal, Dharkat, Bagherawal, Khandelwal or such like together with other such biographical information as the name of his home town etc. were also given. Sometimes manifold details of the benevolent deeds performed by his family were appended to such details. (iv) After this nature of the endowments is recorded. (v) Sometimes the name of the person, who has drafted the inscrip tion together with the name of the engraver (Sutradhar) is also given, The Mahavira25 Prashad Prasasti of Chittor V.E. 1495 mentions Sanvega-Yati as the scribe, who had written the letters on stone. The Nadol inscription of Chauhan Alhan contains the information that Naigam Kayastb Shridhar, who possessed a good knowledge of ancient literature bad drafted the grant and written for getting the same inscribed it on stond. The persons, who composed the inscriptions, evidently had a good knowledge of the chronicles. Jain inscriptions are famous for their beautifully engraved script; and the study of their palaeo graphical details. Therefore, these all are more interesting. (vi) The inscription ends by recording the date of its execution. Pre medieval inscriptions generally do not record the month and day of their execution; only the year is available in them. But in the later inscriptions these are also specifically mentioned. In cases, where date is not recorded, it has to be roughly worked out on the basis of palaeograghic details and other historical data. The word "Chha" () or Iti-Subham and others are found at the very end of the record.27 The earliest known use of the syllable "Chha” is from the Hatundi Jain temple inscription of V.E: 1053 (996 A.D.), Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA Sangh-Yatras Like other religious people, the Jain were fond of pilgrimages visiting various holy sites connected with the life of the Tirthankaras or temples famous for their art and antiquity, We have several epigraphic and literary evidence regarding large congregations of piligrims that used to collect at various shrines in Rajasthan. Someimes no separate epigraph was recorded about the journey but it is included in the achievements of the family. In the Chittor Inscription38 of V E. 1495 (1438 A.D.), and the Jaisalmer inscriptions of the Patavas, such description is given in detail. There are also several small inscriptions bearing the record of individual persons visiting a shrine. In Abu, we have several such small inscriptions from 30 the 15th century AD. to 19th century AD. Most of these inscriptions are in the local dialects. These inscriptions also contain the names of several persons who accompanied a Sangh. From these epigraphs, we can infer the period over which the place where such inscriptions are noticed remained in worship. Miscellaneous inscriptions : Kirti Stambhas or the Mana Stambhas were generally erected in front of Jain temples. The earliest epigraphical reference of V.E. 918 (861 A.D.) to such erections is from Mandor and Rohinskup (Distt. Jodhpur). Jain Kirti Stambh of Chittor is one of the most imposing Jain monument of Rajasthan. It was errected by the family of Bagherawa131 Jija and his son Punyasingh. Another important class of monuments are the Nishedhikās. 32 These were built on the relics of the Digambar Jain ascetics, and serve as Memorials Inscriptions recorded in these Nishedhikas generally contain details concerning to the Sadhus in whose memories these were built. In Rajasthan, we have such inscriptions dating from as early the 10th century A.D. (C) Places of the findings : Jain inscriptions of the period we are studying are generally to be found in the precinct of Jain temples. The big Prashastis are separately engraved on the stone slabs and preserved in the temple. The inscriptions pertaining to the construction and repair of the Deyakulikas are generally engraved on the Devakulikas themselves. The donations and endowments given for the Jain temples are either recorded on the pillars of temples or in the shape of "surah" inscription. The inscriptions pertaining to pilgrimage are generally engraved on the pillars or walls of the temples. The inscriptions in the Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 2 Nishedhikās are recorded on the pillars of the Samadhis. From Gangrars, three sculpted figures of Digambar Jain Sadhus carrying inscriptions dated V.E. 1374 and V.E 1375 have also been noticed by this author. The inscriptions on icons are mostly engraved on their pedestals. In case of bronzes, these are generally recorded on the back side of the image, (D) Eras used : Jain inscriptions of Rajasthan mostly used the Vikram Era. The Bhattik-Eras which remained very popular in Jaisalmer, was used in some earlier epigraphs of that area. From the 14th century A.D.. use of the Vikrama-Era together with the Bhattika Era is generally seen. However, later on the Vikrama-Era alone remained in use. Except the Chittor inscription35 of Paramar, Nar-varma, no important Jain epigraph contains the date of Saka-Era. The Sinha year, which remained popular in Gujarat was also used in a few inscriptions. The Nadlai inscriptions of year Sinba-Era 31 is quite famous. Some earlier inscription do not mention any specific cra. The date of Badali inscription of 2nd century BC remains quite contravertial. I have discussed this point separately. In Jain Journal, calcutta and mybook 'Jain Inscriptions of Rajasthan' (Appendix A). References : 1. The inscriptions of the temples of Osia (V.E. 1234, 1235 and 1236) Kiradu (V.E. 1235) Sanderao (V.E. 1236) Kayandara (V.E. 1934) etc. mention of the renovations of the temples The Vividh-Tirth-Kalpa (SJGM) states that Phalodi-Parshwanathtemple was invaded by the forces of the Ghori (The Etihasika Sodh-Sangraha by the Author, pp. 195), 2. The Kanyanayaniya-Mahavira-Pratima-Kalpa Vividh Tirth Kalpa (SJGM P., 46/Author's paper 'Prithviraj Chauhan-ke-Antima Din' Published in the Maru-Bharati Vol. Vol. XXVII No. 1 p. 53. 3. Author's pa per Abu-Ksetra-kā-Ek-Prachin-Nagar (Published 10 the Varada XVI pp. 30-34/Abu-II No. 10, 11, 58, 254 & 405/Abu Vol. V. No. 48, 50 and 51 pp. 30–34/Visal vijayji-Mundasthala Mahatirth (Gujarati) pp. 20-24, 4. The Jirāvālā-Parshwanāth Stavana (Verse 7) specifically mentions that the Jain temple of Jiravala was demolished by the forces of Alauddin in V.E, 1368. 5. The Arbuda-Kalpa (Vividh-Tirth-Kalpa, SJGM) p. 15. A good pumber of inscriptions from V.E. 1378 to 1395 of Vimal Vasati Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI PRAJNA of Abu mention that the renovation of Vimal Vasati was under taken by several families of Mandor. 6. Several inscribed stones of the 13th century AD are noticed from Chittor. For details see History of Mewar by the Author pp. 89-92) Vir-Bhumi-Chittor by the Author pp. 209-231/ Varada Vol. IX No. I pp. 9-60/The Journal of the Royal Asiatic Society of Bengal Vol. LV Pt. I pp. 40–47. 7. Jin Vijay No. 351, 352, 353, 360, 361, 362, 363/E. I. Vo?. XI pp. 52 to 56. 8. The inscriptions of Ranakpur temple throw light on destruction carried out there. In VE 1611 (1554 AD) Meghanāda Mandapa was built, It was renovated only after 36 years in VE 1647 (1591 AD) by the same family of Usmanpur. This shows that during Akbar's reign large scale plundering raids were undertaken. Again in Y.E. 1678 (1691 AD) renovation was effected by Shresthi Viradha etc. In 1611 AD after a fight at Ranakpur between the forces of Mewar and the Mughals, some parts of the temple might have been destroyed. (Jin Vijay No. 308 and 309). 9. Ibid No. 337 and 341. 10. Author's paper published in the “Sambodhi" (Ahmedabad) Vol. IX and Maru Bhārati Vol. XXVI No. II. 11. अयं तीर्थ समुद्धारोऽत्यद्भुतोऽकारि धीमता श्रीमदानन्द पुत्रेण श्रीपृथ्वीपाल ETUT — Abu II No. 72. 12. आचन्द्रार्क नन्दतादेव संघाधीशः श्रीमान् पेथड: संघ मुक्तः जोर्णोद्धारं वस्तुपालस्य चैत्ये तेन येनेहाऽबुर्ददौ स्वसारेः Ibid No. 382. 13. Separate grants for maintenance of temples and worship of deity were given (Jin-Vijay No 318/E.I. Vol. X p. 10) Vijaydharma Suri Devakula Pātaka (Bhavanagari) pp. 3.-34. 14. Lalla inscription of V.E. 1233 mentions of Gurjar-Jatra (Jin Vijay No. 38 EI. Vol. XI p. 50). The ghasena inscriptions of V.E. 1359 (1302 A.D.) contains information about the donations given by number of Solanky families for arranging the YatraMahotsava (Edited by the Author in the Sodh-Patrikā Vol. XXIII No. 2 pp. 68–69). 15. Jin Vijay No. 349, 353 Abu II No. 251. 16. Ibid No. 342, 353/B. I. Vol. XI p. 41. 17. Abu II No. 240, 241, 242, 244 and 245. 18. Ibid No. 277/Jin Vijay No. 319, 320, 353 and 363. 19. Abu II No. 1, Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol, XXIII, No. 2 20. Sometimes a separate heading is given about Rajavalli. In tho Uparganya inscription of V.E. 1461 (1404 A.D.) the word Rajvamsh-Varnana is used. But generally the description is found without any distinctive heading. 21. Maharana Kumbha by the Author p. 383/J.B.B.R.A.S. Vol. XXIII p. 50. 22. Jjo Vijay No. 1 to lie.l. Vol. II pp. 43/471 The Shatrunjaya Tirthoddhar Prabandh (Edited by Jin Vijay) also contains the account of the family of Karma Shah. 23. Abu II No I. 24. Jaia Vijay No. 376/The Bhavanagar inscriptions, pp. 117-123. 25. J.B.B.R.A.S. Vol. XXIII p. 50 verse 102/Mabarana Kumbha by the Author. p. 383. 27. For details see Author's paper published in Maru-Bharati. Vol. XXVIII No. 1 p. 36. 28. J.B.B.R.A.S. Vol. XXIII p. 50. 29. Nahar JII No. 2530/Jin-Vijay's paper "Jaisalmer-ke-Patavon-ka Sangh ka Varanan (Jain Sahity-Samshodhak Vol. I pp. 108-111). 30. Abu II Nos. 174 to 183, 379 to 406. 31. Edited by the Author in the Anekant (April, 1969). 32. Early Nishedhikā inscriptions are noticed from Rupangarh (V.E. 1076 and 1236) Jhalarapatan (V.E. 1066) 1180, 1289 etc.) Gangrar (1375 & 1376) Nanawa 10th to 13th century A.D. 33. Varada Vol. XIV No. 4 pp. 11-14 (Bikaner-Introduction). 34. Edited by the Author in the Sodh-Patrika Vol. XXVII No. 4 pp. 41-42. 35. I.H.Q. Sept. 1959 pp. 227 to 238. 36. Vir-Bhumi-Chittor by the Author p; 219-220. 37. Jin-Vijay No. 324. -Sri Ram Vallabh Somani 5-3-A/2 Satya Nagar Khatipura Road, Jaipur Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A CRITICAL EDITION OF THE RAN-BSHIN-GSUM-LA 'JUG-PALISGRUB-PA (SKT. SVABHĀVATRAYA-PRAVESA-SIDDHIH) OF ARYA NAGARJUNA. Narendra Kumar Dash [Dr. Narendra Kumar Dash (b. 1960) has been working as an Adhyapaka in the Department of Indo-Tibetan Studies at VisvaBharati University, Shantiniketan. He is well versed with Sanskrit and Tibetan languages. With profound knowledge in Sanskrit. Dr. Dash reconstructed some important works from Tibetan into Sanskrit. - Editor] It is believed that Buddhism entered into Tibetan territory through China and Nepal in the mid-seventh century A.D.; but the actual spread of Buddhism in the land of Snow began only after the arrival of three famous Indian scholars named Santaraksita, Padmasambhava and Kamalasila in Eighth Century AD. After the spread of Buddhism in Tibet, the local intellectuals became very much interested to learn Indian language (Tib. rgya-gar skad) and Buddhist Religion and Philosophy. To fulfil the want of the scholars, the Tibetan kings invited great Indian Buddhist scholars to Tibet and also, they deputed the interested scholars to India to learn the language, Religion and Philosophy. It was not possible to understand the Buddhist works from India, as those were written either in Sanskrit of Pali. Therefore, they took the help of the Indian scholars to translate the works into Tibetan. Gradually, three thousand five hundred and thirty five Indian works (Buddhist and other non-Buddhist) were translated into Tibetan by the joint effort of both Indian Pandits and Tibetan Lo-tsa-bas. After the establishment of a monastery called Bsam-yas towards the end of the Eighth Century A.D., a Central Committee of the translators, consisting of both Indian and Tibetan scholars, was installed to check all the previous translations for the standardization This Committee was authorised even to revise the old and new works in order to attain uniformity in terminology and translation techniques. This Committee also composed a Dictionary type work, which is used till today Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 by the translators, called the Mahāvyutpatti (Tib. bye-brag rtogs-byed chen-po). A close study on this subject sugge ts that the compositions of the famous Indian scholars like Nagarjuna, Rahulabhadra, Aryadeva, Chandrakırtti, Vasubandhu, Dinnaga, Dharmakirtti, Dharmottara, Jayananda, Kalidasa and Asvaghosa etc have been included in the translations and now these translations are being preserved in the collections of the Kangyur and Bstan-'gyur. TULSI-PRAJŇĀ The monograph, entitled Ran-bshin-gsum-la 'zug-pa'i sgrub-pa of Arya Nagarjuna (Tib. 'phags pa klu-sgrub), has been selected for the reconstruction into Sanskrit. Its original Sanskrit is not available. It has been taken from the Bstan-'gyur collections. The original Sanskrit title of this work is the "Svabhāvatraya-praveśa-siddhi”. It is a known fact that the great Buddhist Philosopher Nagarjuna of first century A.D. established the Madhyamika School of the Mahayana Buddhism, some Indian sources suggest that Rahulabhadra was the immediate predecessor and teacher of the founder of the Madhyamika system. Chinese and Tibetan scholars do not accept this view. They argue that Nagariuna and Rahulabhadra were contemporary and the latter one was a disciple of the former. Ruegg suggests that "those who think Rahulabhadra as the teacher of Nagarjuna (founder of Madhyamika system) is perhaps owing to a confusion with a later Nagarjuna (Arya Nagarjuna) whose master Saraha was otherwise known as Rahulabhadra". (Refer: A History of Indian Literature the Literature, of the Madhyamika school of Philosophy in India; 1981, p. 105). The founder of the Madhyamika system may not be accepted as the author of the text under discussion. The subject matter of the text entitled-Svabhāvatrayaprave'sa siddhi is related to the theories of the Vijñānavāda school, but not to that of the Madhyamika system. Three svabhavas i c. kalpita, paratantra and parinişpanna are the main subject matter of the present text. Thus, the work Ran-bshingsum-la 'zug-pa'i sgrub-pa belongs to the Vijñānavāda school There is also another work entitled Trisvabhavanirdesh (Tib. Ran-bhshin-gsumla nes-parbstan-pa) which deals with the same subject that is found in the Svabhavatrayapravesasiddhi of Arya Nagarjuna. Some scholars believe that both the works are identical and have been written by an identical author as: "This work has two translations. Both of them are fairly literal and there is only a little difference between them and the original Sanskrit text. One of these translations was made by an Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 2 Indian Pandit and a Tibetan Sanskrit scholar, named Santibhadra and Lha-btsas (Skt. Devasuta) respectively. The second translation was made by an Indian Pandit, named Chandrakirti. In this translation the work bas been attributed to Nāgārjuna. As this treatise deals with Yogācāra school of Philosophy, it is certain that the celebrated Nagarjuna, the founder of the Madhyamika school, is not its autnor." (S.K Mukherjee; Introduction to his edition of the Trisyabhāvanirdesa; 1939; page. V). Yes, the founder of the Madhyamika school is not the author of the text; but we do not agree with the view of Mukherjee that the 'Trisvabhāvanirdeśa and the Svabhāvatrayapraveśasiddhi have been composed by the same person and both these two works are identical. In the case of Syabhāvatrayapraveśasiddhi, it may be presumed that the text was prepared by the author named Arya Nagarjuna (Tib, phags-pa klu-sgrub) who was identical with a Vajrayānist master, who took the same name of the founder of the Madhyamika system. It is suggested that this Vajrayānist Arya Nāgārjuna lived in the Seventh or at the latest in the Eighth century A.D, He was also presumedly the disciple of one of the most famous of the early Vajrayanist master, Saraha, who is also known as Rahulabhadra. In the colophon of this work it has been said that Chandra. kirtti (Tib. zla-ba graga.pas) translated the monograph into Tibetan single handed. As a native of Kashmir (Tib. kha-che'i), the transla. tor was well versed with both, the Sanskrit Language and the Tibetan Language. In the history of Buddhist Philosophy we have two Chandrakirttis. Both of them belong to the Mahāyāna system. The earlier Chandrakırtti hailed from South India and lived in the early Seventh century AD. According to the Grub. mtha' shel-gyi me-long, the translator being born and ordained at Samanta in South India, and having studied under disciples of Bhāvaviveka, including Kamalabuddbi, who was also a disciple of Buddhapalita, he distinguished himself as a scholar of scholars and remained, for a time, a teacher at Nalanda. Though a master of all branches of knowledge, a tripițakācārya, he achieved special fame in propagating the doctrine of Buddha pālita; i.e. the Prāsangika interpretation of Någārjuna's philosophy.” (A Tibetan Eye-view of Indian philosophy; K K. Mittal; p. 74). The second Chandrakjrtti, also known as Chandrakirttipada, composed the famous commentary called the Pradipoddyotana on the Guhyasamāja. Ruegg suggests that this second Chandrakortti lived in the 11th century A.D. (The Literature of the Madhyamika school of Philosophy in India; D.S. Ruegg: . 105). Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 TULSI-PRAJÑA According to the colophon of the text-Svabhāvatrayapraveśasiddhi, Chandrakjrtti was a Pandita as well as a Bhikşu and hailed from Kashmir. It has been earlier said that the date of this second Chandrakirtti was 11th century A.D. It is a known fact that the translation of the Indian works were done in a large scale in Tibetan only after 8th century A.D. The date of the former Philosopher Chandrakirtti has been fixed as early Seventh Century A.D. Therefore, it is not wise to identify the translator under discussion with the former one. Thus, it may be argued that the latter Chandrakirtti was the translator of the text. Text: I have consulted the Peking and the Narthang versions of the text entitled Ran-bshin-gsum-pa zug-pa'i sgrub-pa (skt. Syabhayatrayapraveśasiddhiḥ) of Ārya Nāgārjuna. The text has been compared with the Trisvabhāvanirde'sa of Vasubandhu. The sanskrit verses which have been reconstructed by us, are almost all follow the sanskrit text of the Trisvabhāvanirdes'a Subject: According to the text, the phenomenal world can be judged from three aspects. These aspects are-kalpita, paratantra and parintspanna These three aspects are called here technically syabhāva. According to the author of the text, the appearance manifests itself from the paratantra or the conditioned syabhāva It does not exist by itself and it is dependent upon something else, and therefore, called paratantra (pratyādhiniyrttitvāt). The kalpita svabhāva is absolutely a product of mere imagination (kalpanāmātrabhāvataḥ). The phenomenal world manifests itself both as knower and known and the duality of subject and object (gnis-daggis) forms the imaginary aspect, and therefore, it is called kalpita. The state of Unity in which the imagined duality between subject and object merge together, that state is the parinişpanna svabhāva It is clear from the following verse : tasya khyāturyathākhyānam yā sadā' vidyamănată ! jñeyah sa parinispannasvabhāvonānyathătvatah !! Thus, Ārya Nāgārjuna explains about the nature and work of three aspects by which the nature of the appearance can be realized, The definitions of the three syabhāvas given by the author in his first four verses are quite similar to that of Vasubandhu, which have been given in his Trisyabhāvanirde'sa. After explaining about the definitions and the nature of the mentioned aspects, the author argues that due to the existence of citta'mind' the appearance manifests like knower and knowo. It means 'duality' is nothing but the manifestation of mind. Therefore, citta is the only reality and it is the storehouse of consciousness (alayavijñānam) and also the mind treated as Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 2 71 the functioning consciousness (prayrttivijñānam). The former aspect of the citta is regarded as the cause and the later aspect i.e. the pravrttivijñānam has been considered as the effect rgyu-dan-bra-bu'i dbyeba-yis). Purther, the functioning consciousness is of seven types; viz, (a) cakşurvijñānam. (b) śrotravijñānam, (c) ghrānavijñānam (d) jihyā m, (e) kayavijnanam, (f) manovijñānam and (2) manaḥ. Again the seeds of de filements (samklişta) and dispositions (vāsanā) are accumulated the alayavijñānam. The siorehouse of consciousness also produces the sevenfold functioning consciousness. Thus, the knower and known (mthun mthun-bya-yan-lag-gñis-'zug-phyir) i.e. the world of appearance comes to be manifested. According to the view of Ārya Nägarjuna, the svabhāvas possess the quality of existent and also non-existent. The author explains that the paratantra syabhāva exists as an error (khrul-ba'i-dnos-pos) apd at the same time it does not exist in that form as it appears (zi-bshinsnan-ba-yod-ma-yin). Now it may be argued that the Paratantra svabhāva has its existence in the phenomenal world, but in the world of absolute reality it docs not exist. On the other hand, the Kalpitasyabhāva has no existence, but it is assumed to be real As far as the duality is concerned, the parinişpannasyabhāva has no existence, but it has its existence intranscending the duality (advayatvena yaccāsti dvayasyābhāva eva ca). The first two svabhāvas i.e. kalpita and the paratantra are the causes of Impurities (samklesa); the third and the last one i.e. the parinispanna, being the transcendental reality, is the cause of purity (rnam-par-byan-ba'i mtshanñid-ni). Now it may be questioned that how we will realize these three svabhāvas ? The author explains that one should realize these three aspects one by one. According to the author, the nature of the paratantrasvabhāya, we should be studied first. After the realisati of the nature of the paratantia bhave, be should proceed towards the kalpitasyabhāva and then to the parinispannasvabhāva. In the third stage. one should realize that all the three aspects are advaya and anabhilāpya, viz., trayo'pyete svabhāvāḥ hi advayānabhiläpya lakṣaṇā / abhāvādatathābhāvättadabhāva svabhāvatah // V. No, 26 Again the author says that the pature of the three aspects can be judged by (a) mere study. (b) true perception (c) logic and (d) practice, viz., rtogs dan-ma-rtogs-nam-rtogs-dan 1 nos-rtogs-'dsin-pa'i-dbye-pa'i-phyir / 50-SO-re-re-ran-bshin-gsum mnam-pa bshi-yis-dbye-bar-'dod // (verse No. 27). / wonin- sum Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA Towards the end of his work the author explains the nature and the activities of the aspects mentioned above through a fine example. According to him, when an illusory elephant is created from wood by means of certain spell, there we have the appearance of an elephant; actually a real elephant is totally non-existent there. In this case, the imaginary aspect is the appearance of the elephant, the conditional aspect is the form of the elephant and the absolute aspect is the total absence of a real elephant, viz., syabhāvo kalpito hastī paratantrastadākstih / yastatra hastyabhāvo'sau parinispannu isyate // V, No. 28 When there is no spell, the elephant is not seen there and its form also vanishes; but only the piece of wood (the reality or tathatā) remains. Like this, when the mind or citta attains the stage of pure consciousness, the known disappears. By the disappearance of the known, the knower also vadishesThrough the non-perception of these two i.e. knower and known, the essence of supreme reality (dharmadhātu) is realized. According to Nāgārjuna, this is the way to achieve vibhutva, viz., gñi-ga-la-ni-mi-dmigs-pas chos-kyi-dbyins-la-dmigs-pa-ñid / chos-kyi-dbyins-la-dmigs-pa-yis / 'byor-pa-ñid-la-dmigs-par-'gyur // Verse No. 37 Lastly the author of the text opines that having a clear knowledge about one self and others, a wise person realizes that supreme idom (hodhi), which is embodied with three essential forms like svābhāvika, sambhogik and nairmānika, viz.. upalabdhavibhutya'sca svaparārthaprasiddhitaḥ / prāpnotyanuttaram bodhim dhimān kāyatrayātmikām || V. No 38 Ran-bshin-gsum-la-‘zug pa'i.sgrub-pa- 'phags-pa-klu-sgrub-kyismdsad pa-bshugs-so // Rap-bshin-gsum-la-zug-pa'i-sgrub-pa (=svabhāva-traya-praveśa. siddbih) phags.pa (=Ārya) klu-sgrub-kyis-mdsub-pa-bshugs-so (=Dāgārjunena likhitaḥ). Skt. Svabhāvatraya-praveśa-siddbih-arya-nagarjunena likhitah / Eng. The work entitled the Svabhavatrayapraveśa-siddhiḥ has been composed by Arya Nagarjuna. regya gan-skad-du / sva.bhā-wa-traya-pra-be-sa-si-ddhi/ bod. skad-du / Ran-bshin-gsum-la-'zug-pa'i-sgrub-pa / sanas-rgyasla-phyag-'tshal-lo // Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No 2 rgya-gar-skod-du (=bhāratabhāṣāyām saṁskstabhāṣāyām) sva-bhā-wa-tra-ya-pra-be-s'a-siddhi (=svabhāvatraya-praveśasiddhiḥ) bod-skod-du (=bhoțabhāṣāyām) rar-bshin-gsum-la-' jug-pa'i-sgrub-pa (=svabhāvarraya praveśa-siddhi) sras-rgyas la-phyag-'tshal-lo (=buddhāya namaḥ) // Skt. Bharatabhaşayam (samkȚtabhaşayam va) svabhāvatrayapraveśa siddbi / Buddhaya namaḥ || Eog. Like in the sanskrit language the text is called svabhavatraya praves'a siddhi in the Tibetan language. (At the baginning of tho work the author salates) Lord Buddha (to complete his work smoothly). Kun-brtags-dan-ni-gshan-dbar-dan / yońs-su-grub-pa-ñid-kyan-ni / brtan-pa-rnams-Kyi-ran-bshin-gsum / šes-bya-zab-par-'dod-pa-yin //1 Kun-brtags (=kalpitaḥ) dan (=evam/ca) ni-gshan-dban (=paratantraḥ) dan (=ca) / yonis-su-grub-pa (=parinişpannaḥ) ñid-kyan-ni (=eva ca) brtan-pa rnams-kyi (=dbirāņām) ran-bshingsum (=svabbavatrayam) / ses-bya (=jñeyam) zab-par (=gambhiraḥ) dodpa-yin (=ișyate) // Skt. Kalpitaḥ, paratantra-statha parinişpannasca dhurāņam svabhava trayam gambhirajñeyamișyate // Skt. Verese (S. V.) Kalpitah paratantraśca parinispanna eva ca/ trayaḥ svabhāva dhīrāņām gambhirajñeyamisyate // Eng. The three aspects like kalpitaḥ. paratantraḥ and parintspannaḥ should be known by the wise persons. gan-snan-de-ni-gshan-dban-yin / fi-lton-snan-ba-brtags-de/ rkyen-la-' jug-par-dban-phyir-dan / brtags-pa'i-dros-po-tsam-phyir-ro 1/2 gar-snan (=yad-khvati) de-ni-gshan dban-yin (=asau paratantrah-asti) ji-Itar (=yatba) snan-ba (=khyati) brtags de (=kalpita tad / rkyen-la-' jug-par-dban-phyir-dan (=pratyaya-dhinavsttitvat) / brtags-pa' i-dňos-po-tsam-phyir-ro (kalpana-matrabhavataḥ) // Skt. Yat-khyati asau paratantrah / yatha khyati tad kalpitah / prat yayadhinavrttitvat / kalpana matrabhavatah / yatkhyati paratantra asau pratyayadbinavșttitvat, yatha khyati tad kalpitah. kal pada matrabbavataḥ // S. V. Yatkhyāti paratantro' sau yathā khyāti sa kalpitaḥ pratyayādhinavrttitvatkalpanāmatrabhāvataḥ // Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 TULSI-PRAJNA Eng. That which manifests itself is called the parantantrah, the form in which it manifests itself is called the kalpitah. It is called paratantrah because it is de pendant on its causes, and kalpitah is absolutely a product of mere imaginations. de-yi-snar-ba ji-bshin-snan / rtag. tu-med-pa ñid-gan-ni / gshan du-mi-' gyun-phyin-ñid de / yons su-grub-ran-bshin-ses-par-byā // de-yi-saan ba (=tasya-khyaluḥ) ji-bshin (=yatha) saan (=akhyanam) / rtag.tu (=sada) med-pc-ñed (avidyamanata) gan-ni (=ya/yat) gshan-du-mi-'gyur-phyir. ñid (=ananyatbalvastah) de (=sa)/yons-sugrub (=parinişpannaḥ) ran-bshin (=svablavaḥ) śes-par-bya (=vijñeyaḥ/jñeyaḥ) // Skt. tasya khyaluryatbakhyanam ya sada avidyamanta jñeyaḥ sa parintspannasvabhavo nanyat hatvataḥ / S. V. tasyakhyatayathākhyanam vā sadā avidyamanata / jñeyaḥ sa parinişpavnasvabhāvo, nanyathātvataḥ // Eng. The parinispannah should be understood as the 'never-existing ness (sadā-avidyamūnata) of the form in which the appearance manifests itself. It is termed so as it never becomes otherwise. de-la-ci-snan-yod-min-rtog / ji-ltar-snan-ba-gñis-day. gis / de-yi-med ñid-gan-de-yis / de-ru-gñis-med-chos-ñid-gañ //4 de-la (=tatra) ci (=kim) snañ-yod-min rtog (=khyati-asatkalpah khyatyasatkalpah) / ji-Itar (= katham) snan-ba (=khyati) gñis-daggis (=dyayamana) / de-yi (=tasya) med-ñid (=nastita) gan (ka) deyis (=tena) / de-ru (=tatra) gñis-med-chos-nid (=advayadharmata) gan (=ya) // Skt. tatra kim khyati ? asatkalpah, katham khyati ? dvayatmana tasya ka nasti'a tena ya tatradvayadharmata / S. V. tatara kim khyātyasatkalpaḥ katham khyāti dvayātmanā / tasya kā nāstitā tena ya tatrådvayadharmatā // Eng. (In this verse the author explains that) asatkalpa "that which has in it unreal conception" manifests itself (khyāti) and it mani. fests in the form of duality (dva yatmanā). Again the non-dual aspect of that which manifests itself in dual form proves the nonexistence of that form in which the appearance manifests itself. sems-de-de-nu-yod-min-ntog gan phyin-de-ni-bntags pa yin/ je-ltan-don ni ntog. byed-pa / de-dshin sih-tu-yod-ma-yin //5 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 2 sems (=cittam) de (=tat) ru (=tatra) yod-min-rtog (=asatkalpa) gam-phyir (=yataḥ) de-ni-brtags-pa-yin (that hi kalpyate) / je-ltar (=yatha) don-ni (=artham) rtog-byed-pa (=kalpayati) / de-bshin (=tatha) sin-tu (=atyantam) yod-mayin (na vidyate) // Skt, asatkalpas-tatra-tac-cittam, yataḥ tat hi kalpyate / yatha artham kalpayati, tatha atyantam na vidyate // S.V. asatkalpo'tra kaścittam yatastena hi kalpyate yatha ca kalpayatyartham tathātyantam na vlyate || Eng. The mind (cittam) is that which has in it unreal conception. It is called so because it imagines, and an object never exists in form in which it (cittam) imagines the object. ngyy dan-' bnas bu'i dbye ba-yis/ sems-de-rnam-pa-gnis-su-' dod kvn-bshi-rnam-par- ses-gan-dan | 'jvg-pa-shes-bya-rnam-bdun-pa’o //6 rgyu-dań (=hetu ca) 'bras-bu'i-dbye-ba-yis (=phalabhagena) / sems (=cittam) de (=tat) rnam-pa-gñis-su'dod (=dvividhamiṣyate) / kun-bshi (=alayam) rnam-par (=prakaram / ākhyam) śes (=vijñānam) gaǹ (=yat) daǹ (=ca) / 'jug-pa (=pravṛtti) shes-bya (=akhyam) rnam-bdun-pa'o (=saptadba) // Skt. tad-hetu-phala-bhagena ca cittam dvividhamisyate alayakhyam vijñānam, yat pravṛtti akhyam saptadha ca / S.V. taddhetuphalabhāvena cittam dvividhamiṣyate | yadālayākhyam vijñānam pravṛttyākhyañca saptadhā || Eng. The mind (cittam) regarded as cause and effect is taken in its two aspects: (i) as what is called the store-house of consciousness (alayavijñanam) and (ii) as what is called the functioning consciousness (pravṛttivijñanam), which has seven forms. kun-nas-non-mons bga chags-kyi! sa bn bsags-phyir sems brjod de! rnam-ses-Ina po-gshan-ma-yin! sna-tshogs rnam-pa' jug-phyir-ro ||7 75 kun-nas-ñon-mons (=saṁkleśaḥ) bga-chags-kyi (=vāsanāyāḥ) / sa-bon (brjam) (=vasanabijam) bsags (cita) phyir (=tvät) sems (=cittam) brjod-de (ucyate) ((=citatvaccittamucyate)) / rnam-ses-lna po (=vijñānam pañcakam) gshan-ma-yin (=anyat)/ sna-tshogs-rnampo (=citrākāra) jug-phyir-ro (=pravṛttitvāt) // Skt. samklesavasanabijaiścitatvāt cittamucyate / vijñānapañcakañ canyat citrakāra pravṛttitaḥ // S.V. samkjeśavāsanābījaiścltatväccittamucyate | vijñānaрañcakāйcānyat cltrākāra-pravṛtṭitaḥ || Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 TULSI-PRAJNA Eag. As the seeds of defilements and dispositions are accumulated (cita) here it is called cittam "store.consciousness". And the five-vijnanas are also called cittam as they act in various (citra) ways. yan-dag-ma-yin-kun-rtog-gan de ni bsdvs-par rnam-gsvm-'dod / mam-smin-de-bshin mtshan-ma can / So sor-snan-ba.gshan-ma'a 118 Yan dag ma-yin-kun-rtog (=abhutakalpaḥ) gan (=yat) / de-ni (=tat) bsdus-par (=samasatah) inam-gsum-'dod / (=trividhamişyate) / rnam-smin (=vai pākikah) de-bshin (=tathā) mtshan-ma-can (=naimittikaḥ) / 80-sor-snan-ba (=prātibbāsikam) gshan-ma'o (=anyam) // Skt: yat abhūta kalpa, tat samāsato trivid hamisyato / vaipakika statha naimittikah anyam prātibhâsikam // S.V. Samāsato' bhūtakalpah sa caisa trividho matah / vaipākikastathā naimi'tiko 'anyah pratibhäsikah /! Eng. In short, abhūtakalpah 'that which has in it unreal conception" is of three kinds; viz., the causative (vaipakika), the contigent (naimittika) and the illusive (pratibhāsika) dan-po'l-rtsa-ba't-rnam-ses-te / gan-phyir.rnamsmin-bdag ñld-do / 'jvg pa't-rnom-ses-phan-tshum mthon / mthon-bya-yan-lag-gris-' jvg-phyir 119 dan-po'i-rtsa-ba'i-rnam-ses-te-(prathamo mūlavijñānam), ganphyir (=yataḥ) roam-smin-bdag-ñid-do (=vipākatmakam), 'jug. pa'i. roam-ses (=pravșttivijñanam) phan-tshup (=anyam) mthon (=drśya) mthon-bya-yan-lag-gñis-'jug-phyir (=dȚgangadvayavsttitab) // Skt. prathamo mülavijñanam vipakātmakam yatah / anyam pravștti viiñanam dỊśva.rȚg-angadvayavšttitaḥ // S.V. prathamo mülavijñānam tadvipäkätmakam yataḥ / anyaḥ pravrttivijñānam dréyadrgangadvayayrttitaḥ // Eng. The first is the basic consciousness It is called so as it has within itself the tendency to produce results. The other is called the functioning consciousness, as it has within itself the function of knowing or cognising the subject and the object both. yod-med-phyir dan-gñis-gcig-phyir / kun-nas-non-moris-ram-byan·la 1 mtshanñid-dbyer-med-phyir-zab-ñid / nan-bshin.mams.la-'dod-pa-yin 1/10 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 2 97 Yod-med-phyir (=sad-asat-tvad) dan-gñis-gcig-phyir (=dyaya ikatvat), kun-nas-non-moñs (=sarkleśaḥ) rnam-byar-la (=vyabadanam), mtshan-ñid (=lakṣaṇam) dbyer-med-phyir (=abhedatah) zabñid (=gabhirala rar-bshin-rnams-la (=svabhavaih)' dod-pa-yin (=işyate) / Skt. sad-asat. tvad dvayaikatvad samklesa-vyavadanam / lakṣaṇam abhedataḥ svabhavaiḥ gabhirata işyate // S.V. sadas ttvāddvayaikatyátsamkleśavyavadānayoh / lakşaņābhedataśceștā syabhāvānam gabhiratā // Eng. The profoundness of the three aspects (as described in verse-8) is admitted, with reference to puritities (vyavadana) and impurities (samklesa) is as much as they are both existent and nonexistent, dual and non-dual and so possessed of characteristics not different from each other. śin-tu-med-pa-ñid-dag-nt / gan phyin-yod par-' dsin-pa-la / de-yi (s)-kvn brtags-ran-bshin-ni / yod-dan med-pa'i-mtshan-ñid-'dod ||11|| sin-tu-med-pa (=styantā bhavaḥ) ñid-dag-ni (=eva), ganphyir (==yatah) yod-par (=sattve) 'dsin-pa-la (=gļhvate) / de-yis (=tena) kun-brtags (=kalpitaḥ) ran-bshin-ni (=svabhavaḥ) / yod-dan-med. pa'i-mtshan (=sad-asad-laksaņam) ñid (=eva)' dod (=işyate) / Skt : atyantabhava eva, yataḥ sattve gļhyate, tena kalpitaḥ svabhavaḥ / sad-asat lakṣaṇam eva işyate / S.V. sattvena grhyate yasmād atyantábhāva eva ca/ svabhāvaḥ kalpitastena sad-asallakṣaṇo mataḥ || Eng. Thought it has no existence at all in reality, it is taken to be real (by the ignorants) The imaginary (kalpitah) aspect possesses the characteristics of both existence and non-existence. 'khrul-ba'i-dros-pos-yod-pa-la / ji-bshin-snan-ba-yod-ma-yin/ gar-phyir-gshan-dban-de-yis-ni / yod-medmtshan-ñid-par.' dod-do ||12 'khrus-ba'i-dros-pos (=bhraotibbavena) yod-pa-la (=vidyate) / ji-bsbin-snan-ba (=yatha-akhyanam) yod-ma-yin (=na vidyate) / gan-bhyir (=yatah) gshan-dban (=paratantrah) de-yis-ni (=tena) / yod-med-mtshan (=sadasallaksaņam) ñid-par (=eva) dod-do (=işyate) / Skt. Yatha akhyanam na vidyate, (tatha) bhrantibhavena vidyate / paratantro yatastena sadasallakşaņamişyate / S.V.: Vidyate bräntibhävena yathākhyānam na vidyate / paratantro yatastena sadasallaksano matah | Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJÑA Eng. As it exists as an error (bhrāntibhāvena), and as it does not exists as it appears, the relative aspect (paratantra) possesses the characteristics of both existence and non-existence. gan-gis-gñis-med-ñid-du-yod / gñis-kyidňos po med-pa-ñid / de-yis-yons-grub-nan-bşhin-ni / yod-med-mtshan-ñid-'dod-pa-yin // 13 gan-gis-gñis-med-ñid-du (=advayatvena yat) yod (=asti) / gñis-kyi (=dvayasya) dros-po-med-pa (=abhāva) ñid (=eva) 1! de-yis (=tena) yons-gurb (=nişpannah) ran--bshin-ni (=svabhāva) / yod-med-mtshan-ñid (=sad-asat-lakṣaṇam, eva) 'dod-pa--yin (=işyate) // Skt. advayatvena yadasti, dvayasyābbavo eva / svabhāvastena nişpannaḥ sadasallakşaņam işyate / S.V. advayatvena yaccāsti dvayasyabhåva eva ca| svabhāvastena nişpannah sadasallaksano matah // Eng. As it exists in its nature as non-dual, and also as it is charac terised by the absence of duality; the Absolute aspect (parinispanna) possesses the characteristics of both existence and nonexistence, brtags-pa'i-don-la-rnam-gñis-phyir / de-yod-ma-yin-dňos-g-cig-phyir / kvn-brtags-ran-bshin-byis-pa-rnams | gñis-dan (snan)-g cig-gis-bdag-ñid-'dod ||14 brtags-pa'i-don-la (=kalpitārthüm) rnam-gñis-phyir (=dvaivtdhyat), de-yod-ma-yin (=tad-asattvam) dños--gcig-phyir"(=ekabhavatah) / kun-brtags (=kalpitah) ran-bshin (=svabhāvah) byis-parnams (=balaḥ) / gñis-dan-gcig-gis-bdag-ñid (=dvayaikatvātmakah) 'dood (=işyate) // Skt, kalpitar tham dyeividhyặt tadasattvam ekabhāvatah, bala (nam) kalpitasvabhāv dvayaikatvātmaka işyate // S.V. dvaividhyātkalpitārthasya tadasattvaikabhāvataḥ / svabhāvaḥ kalpito bālairdvayaikatyātmako mataḥ // Eng. As the imaginary things are all of dual nature, (as the knower and the known), and as there is (in reality) only the one character of absence that (dual nature in them), the Imaginary aspect of the ignorant people has both duality and unity within itself. gñis-kyi-dños-po-snan-phyir-dan / 'khrul-pa-tsam-gyl-dros-gcig-phyir / gshan-dban-shes--bya'il ran-bshin-ni / gñis-dan-gcig-gi-bdag-ñid-'dod //15 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 2 79 gñis-kyi-dios-po (=dvayabhābaḥ) snañ-phyir-dan (=prachyanatvāt) / 'khrul-pa-tsam-gyi-dros-gcig-phyir (=bhrantimātraikabbāvataḥ) / gshan-dban (=paratantram) shes-bya'i ran-bshin-ni (=ākhya=sya svabhavaḥ) / gñis-dan-gcig-gi-bdag-ñid (=dvayaikātmakaḥ) 'dod (=işyote) !! Skt. dvayabhāve (na) prakhyānatvāt, bhrāntimātraikabhāvatāḥ, paratantrākhyo svabbavo dvayaikatvätmako matah/ S.V. prakhyānāt dvayabhāvena bhrāntimātraikabhāvatah / svabhāvah paratantrákhya dvyaikatvātmako mataḥ // Eng. As it manifests itself in the dual from (subject and object) and as it has also within itself only the one character of erroneousness, the aspect called the Relative or Conditioned has both duality and unity within itself. gan-gis-gñis-med-ñid-du-yod gñis-kyi-dños-pos-med-pa-ñid / de-yis-yors grub-ran-bshin-ni / gñis-dan-gcig gi-bdag-ñid-'dod //16 gan-gis-gñis-med-ñ.d-du-yod (=advayatvena yad-asti) / gñiskyi-dños-pos-med-pa-nid (=dvayasya abhāva eva ca) | de-yis (=tena) yons-grub (=parinispannah) ran-bsbin-ni (=svabhavaḥ) | gñis-dāngcig-gi-bdag-ñid (=dvayaikatvatmakaḥ) 'dod (=işyate) // Skt. advayatvena yadasti, dvayasyābbāva eva ca, tena parinişpanna svabhāva dvayaikatvātmaka işyate/ S.V. advayatvena yadasti, dvayasyābhuva eva ca / tena parinispanno svabhāvo dyayaikaivātmako matah // Eng. As there is absence of duality in it, and as non-duality lies in its very nature, the Absolute aspect has both duality and unity within itself. kvn-brtags-dan-ni-gshan-gyi-dban / ñon-mon's-mtshan-ñid-ses-par-bya / rnam-par-byan-ba'i-mtshan-ñid-ni / yons-su-grub-par-'dod pa-yin //17 kun-brtags (=kalpitaḥ) dan-ni-gshan-gyi-dban (=paratantrasca) / ñon-mons-mtshan ñid (=samklesalakşaņam) Ses-par-bya (=jñeyam) / roam-par-byan-ba'i-mtshan-ñid-ni (=vyavadānasya lakṣaṇam) yos-su-grub-par (=parinişpannah) 'dod-pa-yod (=iştah) // Skt. Kalpitaḥ paratantrasca samkleśalakṣaṇam jñeyam / Vyavadā nasya lakṣaṇam parinişpanna işțaḥ / S.V. : Kalpitaḥ paratantras'ca jñeyar samkleś alakṣaṇam / parinispanna işțastu vyavadānasya laşanam || Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 TULSI-PRŇĀJA Eng. The Imaginary and the Relative are to be known as samkles' alakṣannam "characterised by Impurities" while the Absolute is admitted to be vyavadana-lakṣaṇam "characterised by purities". gñis-kyi-ran-bshin-med-phyin-dan de-med-pa-yi-ran-bshin-phyir | ran-bshin-yons-grub-kvn-brtags-las | d byer med-mtshun-ñid-ses-par-bya ||18 gñis-kyi-ian-bshin (=dvayasvabhāva) med (=asad) phyir-dan (=tvat ca) / de-med-pa-yin (=tadabhava) ran-bshin-phyir (=svabhātaḥ)' / nan-bshin (=svabhāvāt) yons-grub-kun-brtags-las (nişpannam parikalpitat) / dbyer-med (=abhinnam) mtshan-ñid (lakṣaṇam) s'espar-bya (=jñeyam) // Skt. dvayasvabbāvāsadtvāt ca tadabhāva svabhāvataḥ, svabhāvātparikalpitat nişpannah abhinna-lakṣaṇam jñeyam/ S.V. asaddvayasvabhāvattvättadabhāvasvabhāvataḥ | svabhāvātkalpitajjñeyo niṣpanno`bhinnalakṣaṇaḥ || Eng. As the Imaginary aspect has got the characteristics of possessing the unreal duality, and as it has in its very nature, the absence of that (duality) the Absolute is to be known as possessing characteristics not different from the Imaginary. gñis-med-ran-bshin-ñid-phyin-dan | gñis-ni-med-pa'i-ran-bshin-phyir | yons-su-grub-las-kvn-brtags-kyan | mtshan-ñid-tha-mi-don-ces-bya //19 gñis-med-ran-bshin-ñid-phyir (=advayatvasvabhāva tvät) dań (=ca) / gñis-ni-med-pa'i-ram-bshin-phyir (=dvayābhāvasvabbava tvat) yon's-su-grub-las (=parinişpannāt) kun-brtags (=kalpitaḥ) kyan (=ca) / mtshan-ñid (=lakṣaṇam) tha-mi-dan (=abhinnah) cesbya (=ucyate) // Skt. advayatvasvabhava tvāt dvayabhāvasvabhāva tvāt ca, pari pannat-kalpitas'ca abhinna-lakṣaṇa ucyate/ S.V. advayatvasvabhāvatvādduayabhāvasva bhāvataḥ | nispannātkalpitas' caiva ucyate 'bhinnalakṣaṇaḥ || Eng. As the Absolute has got the nature of non-duality, and as it has also in its nature the absence of duality, the Imaginary is to be known as not different in its characteristics from the Absolute. ji-ltar-snan-ba-med-phyir-dan | de-bshin-med pa'i-ran bshin-phyir | yons-grub-gshan-dban-ran-bshin las tha-ml-dad-pa'i-mtshan-ñid-yin 1/20 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 2 ji-ltar-snan-ba (=yathakhyanam) med-phyir (=asadbhāvataḥ) dan (=ca) / de-bshin (=tatha) med-pa'i-ran-bshin-phyir (=asattvasvabhāvataḥ) / yon's-grub (=nişpanna) gshan-dbaň (=paratantraḥ) ran-bshin-las (svabhābāt) tha-mi-dad-pa'i-mtshan-ñid-yin (=abhinnalakṣaṇaḥ) / 81 Skt. Yathakhyānamasadbhāvat tathḥa' asattvasvabhāvataḥ | svabhāvātparatantraḥ nispanno' bhinnalakṣaṇaḥ || S.V. yattākhyānamasadbhāvāttatha sattvasvabhā vataḥ | svabhāvātparatantrākhyā niṣponno' bhinnalakṣaṇam || Eng. As the Relative or conditioned does not exist in the from in which it appears, and as by its very nature it is non-existent in that form, the Absolute is not different in its characteristics from the nature of that which is called the Relative or Conditioned. gnis med-ran-bshin-ñid-phyir dan ji-bshin-snan ba-dnos med-phyir yons su-grub-las-gshan dban yan dbyer-med-mtshan ñid ses pare-byā //21 gñis-med-ran-bshin-ñid payir (=asaddvayasvabbāvatvad) dañ' (=ca) / ji-bshin-snon-ba (yathakhyana) dños-med-phyir (=asvabbāvataḥ) / yon's-su-grab-las (niṣpannat) gshan-dban (paratantraḥ) yan (=api) / dbyer-med-mtshan-ñid (abhinnalakṣaṇih) sles-par-bya (=vijñeya) // Skt. asaddvayasvabhāvatväd ca yathakhyāna asvabhāvataḥ, niṣpannāt paratantro'pi abhinnalakṣaṇo vijñeyah S.V.: asaddvayasvabhavatvādyathākhyānasvabhāvataḥ | niṣpannātparatantro'pi vijñeyo' bhinnalakṣaṇaḥ || Eng. As the very nature of the Absolute is characterised by the absence of duality (subject and object) and as its nature is also not such as it appears, the Relative is not to be known as different in its characteristics from the nature of the Absolute. tha-sñad-gtso bor-byas-phytr-dan | de-'jug gtso bor byas pa'i-phyir rim pa'i ran-bshin rań bshin gyi || slob-pa'i-ched du-brjod-pa-yin (/22 tha-sñad (=vyavahāraḥ) gtso-bor-byas-phyir-dan (=adhikārataḥ) / de-'jug (=tat-praveśaḥ) gtso-bor-byas-pa'i-phyir (=adhikaratvāt) / rim-pa'i-ran.bshin (=kramabhavaḥ) ran-bshin-gyi (=svabhāvasya) / slob-pa'i-ched-du (vyutpatyartham) brjod-pa-yin (=vidhiyate) // Skt. vyavaharadhikarataḥ, tatpraveśādhikaratvāt, svabhavasya kramabhavaḥ vyutpatyartham vidhiyate / Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 TULSI-PRAJNA S.V. kramabhāvah svabhāvānām vyavahārādhikäratah / tat-prave šādhikārācca vyutpattyartham vidhiyate / Eng. The nature of these three aspects (svabhāvānām) is from the pragmatic standpoint; it is also useful for the purpose of comprehending their ultimate nature, when viewed deeply from the standpoint of this nature. tha-sñad-brd-ñid-kun-brtags-dan / tha-sñad-byed-pa'i-bdag-ñid gshan / tha-sñad-kun-nas-cha-byed pa'i / ran-bshin gshan-ma-byed-pa-yin // 23 tha-sďad-brd'-ñid (=vyavahāratmā) kun-brtags-dan (kalpitaḥ) / tha-sñad-byed-pa'i (=vyavahatsh) bdag-ñid (=ātmakaḥ) gshan (=aparaḥ) / tha-sñad-kun-nas-cha-byed-pa'i-ran-bshin (=vyavabārasamucchedasvabhāvaḥ) gshan-pa (=anyaḥ) 'dod-pa-yin (=ișyate) // Skt. vyavahārātma kalpilaḥ, vyava bārtirātmako'aparaḥ / vyavahara samucchedasvabhavo'anya işyate / S.V. kalpita vyavahärātmā vyavahartträtmako'parah vyavahārasamucchedasvabhāvascānya isyate // Eng. The Imaginary aspect has a pragmatic nature, but that which makes use of it (pragmatically) is of the other nature (Relative or Conditioned); the other (the Absolute aspect) is of the nature in which there is total absence of the pragmatic (nature). snon-du-gñis-med bdag-ñid-ni / gshan-dban rab-tu- jug par-'gyur / de nas de tu gñis-med ni / rtog pa-tsam-du-jug-pa yin // 24 snon-du (=pūrvam) gñis-med-bdag-ñid-ni (=dvayabhāvātmakaḥ) / gshan-dban (=paratantraḥ rab-tu-'jug-pan-'gyur (=pravişyate) / de-nas (=tataḥ) de-ru (=tatra) gñis-med-ni (asadvayam) / rtog-pa-tsam-du (kalpapāmatran) 'jug-pa-yin- (=praviśyate) // Skt. pūrvam dvaya-abhāva-atmakan, paratantrah praviśyate, tataḥ asadvayam kalpapāmātram praviśyate / S.V. dyayabhāvātmakaḥ purvam paratantraḥ praviśyate / tatah prayiśyate tatra kalpanāmātram-asapdvayam // Eng. At first (the Relative), which has within itself the absence of (real) duality is penetrated (to apprehend its deep nature); then the merc Imagination in which also there is non-real duality is penetrated to apprehend its true nature). de-nas gñis-med-dňos pa-ni/ de-ru yońs-grub-'jug-pa ste / de-bshin-de-nid de-bshin-du/ med dan yod-ces-brfod-pa yin // 25 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 2 83 de-nas (=tataḥ) gñis-med (dvaya-abhavaḥ) dros-po-ni (=bbavah) / de-ru (tatra) yons-grub (=parinişpannah) 'jug-pa-ste (=praviśyate) / de-bshin (=tatha) de-ñid (=tada) dc-behin-du (=asau) / med-dan-yod (=asti-Dasti) ces-brod-pa-yin (ucyate) // Skt. tatah dvaya-abhāva, tatra parinişpannaḥ praviśyate / tatba tada asau astinásti ucyate // S.V. tato dvayābhāvabhāvo (pari)-nispanno tra praviśyate / tathā hyasāveva tada astināstiti cocyate // Eng. After these (penetrations) the Absolute which has the positive nature of absolute absence of duality is comprehended deeply. It is then for this reason, called both existent and non-existent. ran-bshin gsum-ka-'di-rnams-ni gñis-med-brjod med-mtshan-ñi) can/ med-phyir-de-bshin-yod (med phyin-ran / de-med-pa-yi-ran-bshin-phyir // 26 ran-bshin-gsum-ka-'di-rnams-ni (=svabhāvah trayo'pi ete--trayo' pyete svabhāvāḥ) / gñis-me (=advaya) brjod-med (=anabhilapya) mtshan-ñid-can (=lakşaņa) / med-phyir (=abhāvatvad-abhāvad) de-bshin-med-phyir-dan (=atathabhāvad) / de-med-pa-yi-ran-bshin-phyir (=tadabhāvasyabhavatah) // Skt. trayo'pyete svabhavaḥ advaya-anabhilāpya lakşaņāḥ, abhāvad atathābhāvad tadabhāvasvabhavatah / S.V. trayo'pyete svabhāvā adyayānabhiläpya laksanāḥ / abhāvādatathabhāvād tadabhāvasvabhāvataḥ 1/ Eng. All these three (aspects, mentioned above) are non-duality (advaya) in character and non-expressble (by merc words). Because there they have these characteristics : (i) Absolute absense of (dual nature), (ii) absence of the form in which they appear, and also (iii) having the positive nature of absence of (duality). rtogs-dan-ma-rtogs-rnam-rtogs-dan / mnon-rtogs-'dsin-pa'i dbye-ba'i phyir / SO-SO-re-re-ran-bshin-gsum / rnam-pa-ba'i-yis-dbye-bar-'dod // 27 rtogs-dan-ma-rtogs (=vyutpatti-avyut pattis'ca) rnam-rtogs-dan (=vigati) / mron-rtogs (=abhisamaya/sakşatvyutpattiḥ) 'dsin-pa’i-dbye-ba'iphyir (=kramataḥ gphyate / dharyate) / SO-SO-re-re (=prthaktvena) ran-bshio-gshin-gsum (trt-svabhāvāḥ) / roam.pa-ba'i.yis (=ākļiyay dbye-bar-'dod (=jñānanisyate) / Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 Skt, vyutpatti-avyutpatti-vigati-abhisa mayena ca kramatah prthaktvena trisvabhavanam jnanam akrtya isyate // S.V. vyutpattyävyutpattyāvigatyabhisamayena ca | prthaktvena svabhāvānām trayāṇām jñānamiṣyate || Eng. The three types of nature of the phenomenal world can be judged by four ways separately. These ways are: (a) the true perception, (b) mere study, (c) logic and (d) practice. min-ni-gñis-thos-'khrul-pa-dań | dban-du-ñid ces-dbye-ba'i-phyir mi-brjod-gñis-med non-mi mons gcig-dan-du-ma'i-dbye phyir-ro || 28 min-ni (=nama) (gñis-thos (=dvedha śrutam) 'khrul-pa-dan-dbandu-ñid (=māyādhinam) ches (=iti) dbye-ba'i-phyir (=kramataḥ) / mi-brjod (=anabhilāpya) gñis-med (=advaya) non-mi-mons TULSI-PRNAJA (=asaṁkles'a) / gcig-dan (=ekam ca) du-ma'i-dbye-phyir-ro (=nanakrameņa) or anekatvam krameņa (ālocayami) // Skt. nama dvedha śrutam iti kramataḥ māyādhinam, anabhilapya advaya-asarkleśaśca / ckatvānekatva krameņa (alocayişyami) // S.V. nāma dvedhā śrutamiti māyādhināñca advayam | asaṁkleśānabhiläpye ca ekatvānekatva krameṇa || Eng. Name is head in two ways: Under māyā and as indivisible. That without any impurity and not-explainable in the way of unity and diverse. sgyu-mas-byas-pa'i-sngs-dbon gis/ glan-chen-bdag-ñid-kyi-snan-bshin | de-ru-rnam-pa-tsam-yod-de | glan-chen-rnam-pa-kun-tu med || 29 sgyur-mas-byas-pa'i-sñags-dban-gis (=mavākṛtam mantravaśena) / glan-chen (hastin) bdag ñid-ky-snan-bshin (atmanaḥ khyati yatba) / de-ru (=tatra) rnam-pa (=akṛtih) tsham-yod-de (matram asti) / glan-chen (hastin) rnam-pa (=akṛtiḥ) kun-tu-med (=sarvatha nasti) // Skt. mayākṛtam mantravasena khyati hastyätmana yathā / akrti-matram tatra asti, hastyākṛti tu na sarvatha // S.V. mäyäkṛtam mantravaśāt-khyāti hastyātmana yatha | äkäramätram taträsti hasti nästi tu sarvathā || Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII No. 2 Eng. When the illusary form of an elephant is made by means of spell (mantra), there only we have the appearance, but really the elephant is non-existence in all respects. glan-chen-kun-brtags-ran-bshin-te / de-yi-rnam-pa-gshan-dban yṁ / de-ru-glan-chen-med-pa-gan | de ni-yons-grub-'dod-pa-yin // 30 glan-chen (=hastin) kun-brtags ran-bsbin-te (Akalpita-svabhāva) dc-yi (=tasya) rnam-pa (raksti) gshan-dban.yin (=paratantraḥ) / de-ru (tatra) glan.chen-med-pa (=hastyabhāvaḥ) gao (vaḥ) / de-ni (=asau) yons-grub (=parinişpannaḥ) 'dod-pa-yin (=işyate) // Skt hastin kalpitasvabbavah, tasya akstiḥ paratantraḥ, tatra yaḥ bastyabhāva asau parinişpanna işyate 11 S.V. svabhāyaḥ kalpito hastī paratantrastadākstiḥ / yastatra hastyabhāvo' sau parinişpanna Isyate || Eng. The imaginary aspect is the elephant, the conditional aspect is the form of the elephant and the absolute aspect is the absence of a real elephant. be rtsa-ba-sems-las-gñis-bdag-gis / de-bshin-yod-min-kun brtags snan / gñis-po-sin-tu-med-pa-stel de-ru-rnam-pa tsam-yod-do // 31 rtsa-be-sems-las (=milacittat) gñis-bdag-gis (=dvayatmana) / debshin (=tathā) vod-min-kun-brtags (asatkalpaḥ) snan (=khyātiḥ) / gñis-po (=dvayam) sin-tu-med-pa-ste (=antataḥ Dasti) / de-ru (=tatra) rnam-pa (rakstih) tsam (=mātram) yod-do (=asti) // Skt. tatba asatkalpaḥ khyātiḥ mūlacittaddvaya'mapa / tatra dvayam antato pasti, aksti-matrakam asti / S.V. asatkalpastathā khyāti mūlacittaddvayātmanā / dvayamantato nāsti tatrāsyākstimätrakam || Eng. Similarly 'that which has in it unreal conception' (asatkalpa) appears in dual form out of the basic consciousness. The duality does not exist there at all, but there is only the semblance of it. rtsa-ba't rnam-ses-srags-bshjn-du/ de-bshin-nid-'di-sin-bsh'n-'dod / rnam-rtog-glar-chen-rnam-pa-bshin / 'dod-de. glan-chen-bshin ghis-so // 32 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA rtsa-ba'i-rnam-ses (=mūlavijñānam) snags-bshin-du (=mantravat) / de-bshin-ñid (=tathata) 'di (=asau) śin-bsain-'dod (=kāṣṭavat asti) / rnam-rtog (=vikalpa) glan-chen (= hastin) rnam-pa-bshin (=akaravat) / dod (=işyate) de (=tatra) (=dvayam) // Skt. mulavijñanam mantravat, tathata kaṣṭavat matā, vikalpaḥ hastyākaravad eṣṭavyaḥ tatra hastivat dvayam / 86 glan-chen-bshin (=hastivat) S.V. mantravanmūlavijñānam kāṣṭhavattathatā motā | hastyākāravadeṣṭavyo vikalpo hastivaddvayam // Eng. The Basic Consciousness is like the spell (mantra); the reality is like the piece of wood; the conception (vikalpa i.e. conditioned aspect) is like the form of an elephant; and the duality (of subject and object) i.e. the imaginary aspect is like the elephant. de-gñis-rtogs-pa'i dus-su-ni / mtshan-ñid-gsum-ta-dus-gcig-tu yons-su-ses-dan-spon-ba-dan / rim-pa ji-bshin-thob-par-'dod || 33 de-gñis-rtogs-pa'i dus-su-ni (=taddvaya-prativedhe) / mtshan-ñid-gsum-la (=lakṣaṇatrayam) dus-gcig-tu (=yuga pat) / yons-su-ses (=parijñā) dañ-spoǹ-ba (=prahāṇam) dan (=ca) / rim-pa-ji-bshin (=yathakraman) thob-par-'dod (=praptiḥ) 'dod (=iṣyate) // Skt. tad-dvaya-prative dhe lakşṣaṇatrayam yugapat parijñā, prabaņam, praptiśca yathakramam işṭa // S.V. taddvayaprative dhe yugapallakṣaṇatrayam | prarijñā ca prahāṇañca prāptiśceṣṭā yathākramam || gñis-so Eng. For the deep understanding of the second one (i.e. reality or the real nature of the things), the three aspects are to be taken simultaneously; (but) the comprehension (parijña), rejection (prabaṇa) and the realization (prapti) have to be undertaken in their corresponding order one after another. yons ses 'di-ru-mi-dmigs-pa/ spoň mi-snan-ba-'dod-pa-yin / dmigs-pa dag-ni-mtshan-ma ste! thob par mnon-sum-bya-ba-'ña-de | 34 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No 2 yons-ses (=parijña) 'di-ru (=atra) mi-dmigs-pa (=anupalambhah) / spon-mi-snar-ba (=banirakhyanam) 'dod-pa-yin (=işyate) / dmigs-pa-dag-ni (=upalambbaḥ) mtshan-ma-ste (=nimittam) / thob-par (=praptiḥ) moon-sum-bya-ba (=sākṣatkriya) 'na (=api) de (=sa) // Skt. atra parijña anupalambhaḥ, hānirakhyanamişyate / upalambhanimittā praptiḥ, sa api sākşatkriyā // S.V. parljñā'nupalarbho'tra häntrakhyānamisyate / upalambhanimlttā prāptiḥ säkşâtkriyāpi să || Eng. The above explaioed comprehension is to be known as non perception (of the duality, i.c, the imaginary aspect), the rejection is to be known as non-manifestation (of the appearanco i.e, the conditioned aspect), the realization is that attainment of knowledge which may be regarded as direct apprehcosion. għt-ga-la-ni-mi-dmigs-pas / gñis-kyis rnam-par-rtogs par- gyur yońs-grub-de-yi-ram-stogs-phyir / gñis-ni-med-par-rtogs-par-'gyor 1/ 35 gñi-ga-la-ni (=ubhayam) mi-dmigs-pas (=anupalarbhena) / gõis-kyis-rnam-par (=dvayākāra) rtogs-par-'gyur (=vigachati) / yons-grub (=nişpaona) dc-yi (=tasya) rnam-rtogs-pbyir (=vigama) / gñis-ni-med-par (=dvayabhāva) rtogs-par-'gyur (=adhigamyate) // Skt. ubhayamanupalambhena dvayakaro vigachati, tasya vigama nişpanne dvayabhāvo adhigamyate. S.V. ubhayamanupalambhena dvayākāro vigachati / vigamā tasya nlspanne dvayābhavo'dhigamyate || Eng. Through the non-perception of duality (i.o. imaginary aspect), the semblance of duality (i.e. the Relative aspect) vanishes; when it has passed away, the absolute aspect i.e. the non-existence of duality is realized glan-po-che-rl-mi-dmigs-dan/ de-yi-rnam-pa't-ram-rtogs-ste / Śtn-dag-la-ni-dmigs-pa-nt / dus-gcig.sgyu-ma-la-bshin-du // 36 glad-po-che-ni (=hastin) mi-dmige-dan (=anupalambhah ca) / de-yi-ram-pai (tadaksteh) roam-stogs-ste (=vigama) / sin-dag-la-ni (=kastha) dmigo-pa-ni (upalambba) / dus-goig (=yugapad) sgyur-ma-la-bsbin-du (=mayayam yatba) // Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA Skt. hastinaḥ anupalathbhasca tadakşteḥ vigamasca, kaștha (sya) uralambhaśca máyāyām yathā yugapad. S.V. hastino'nupalambhaśca vigamasca tadāksteņ | upalambhas'ca kaşthasya māyāyām yugapadyatha || Eng. The non-perception of the elephant, the vanishing of the form of the elephant and the realization of the wooden clephant, happen simultaneously on the case of an illusion (of elephant). għen-po-blo-ni-sgyun-phyir-dan / blo-yis-bdag-med-mthon-ba't-phyir / ye-ses gsum-la-rjes-'jvg-phyfr/ 'ban-pa-med-par-thar-pa-thob // 37 gfied-po (=pratipaksah) blo-ni (=jñānam/dbı) sgyun-phyir-dan (nivstya/vāraṇatvat) | blo-yis (=jñāneoa/buddbyx) bdag-med (=nairātmya/vaiyarthya) mthor-ba'i-phyir (=darganatvat) / ye-ses-gsum-la (=jñanatrayam) rjes-'jug-phyir (=anuvstteḥ) / 'ban-pa-med-par (=ayattnam) thar-pa (mokşa/mukti) thob (=pråptiḥ) // Skt. pratipaksajdanam våranatvad, nairātmya darśanatvād, jñānatra yam anuvstteh mokşa prāptiḥ ayattnataḥ || S.V. Viruddha dhivaranatvād buddhyā vaiyarthadarsanāt / fñānatrayānuvrtteśca mokşāpattirayattnataḥ // Eng. By restraining the opposite thought, seeing the vanity of things through the intellect and by following the three types of knowledge (Sruta, cintű and bhāvanā). salvation is achieved without any effort. sems-tsam la-nl-dmlgs-pa-yis / ses-bya'i-don-ni mi-d migs nid / ses-bya'l-don-la-dmigs med pas / sems-ni-mi dmigs ñid-du-'gyur // 38 sems-tsam-la-ni (=cittamätra, dmig-pa.yis (=upalambhena) / Ses.bya'i-don-oi (jñeyārtha) mi-d migs-ñid (=anvpalambhala) / ses-bya'i.don-la (=jõeyartha) dmigs-med-pas (=anupalambhena) / sems-ni (=cittam) mi-dmigs-fid-du (=anupalambhata)'gyur (=syat) // Skt. Cittamātra upalambhena jpeyarthanupalambhata, jfleyarthanu palam-bhena cittam anupalambbata syāt // S.V. cittamåtropalambhena jñeyārthânupalambhata / Jeyarthanupalambhena syaccutanupalambhata II . *** Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 2 Eng. Through the attainment of the condition of the pure.conseious ness, there is the non-perception of the perceivable; and though the non-perception of the perceivable there is the non-acquisition of the mind (citta). gñi-ga-la-ni-mi-dmigs-pas/ chos-kyi-dbyins-la-dmigs-pa-ñid / chos-kyi-dbyins-la-dmigs pa yis / 'byor pa ñid la-dmigs-par-'gyur // 39 gñi-ga-la-ni (=ubhayam) mi-d migs-pas (=anupalambhena) / chos-kyi-dbyins-la (=dharmadhatu) d migs-pa-ñid (=upalambhata) / chos-kyi-dbyins-la (=dharmadbālu) dmigs-pa-yis (=upalambhena) / byos-pa-rid-la (=vibhutva) dmigs-par (=upalambhata) 'gyur (=syāt) // Skt. ubhayam anupalambhena dharmadhātu upalambhata, dharma dhātu upalambhena vibbutva (sya) upalambhata syat // S.V. ubhayamanupalambhena dharmadhātūpalambhata / dharmadhätüpalambhena syādvibhutvopalambhatā | Eng. Through the non-perception of these two, there arises the reali zation of the essence of reality (dharmadhātu) and through the realization of the essence of reality, there occurs the acquisition of the supernatural power of destroying ignorance and attaining prosperity, (vibhutva). 'byor-pa-ñid-ni-thobo'gyur-na / ran-dan-gshan-gyi-don-'jug-phyir / sku-gsum-bdag-ñid-byan-chub-nt / bla-med-blo-dar-ldan-pas-thob-ces-bya'o /140 'byor-pa-ñid-ni (=vibhutva) thob-'gyur-na (=upalabdha) / ran-dan-gshan-gyi-don (=sva-parārtha) jug-phyir (=praveśataḥ) / sku-gsum-bdag.ñid (=kayatrayātmika) byan-chub-ni (=bodhi) / bla-med (=anuttara) blo-dan-ldan-pas (=dbmatyā) thob-ces-bya'o (=prāppoti) // Skt. vibhutva upalabdha (sca) sva parartha-praveśataḥ, kāyatrayāt mika (m) anuttara-bodhia(m) dbīmatyā praptih (bhavati) / S.V. upalabdhavibhutvašea svaparārthapraveśataḥ / präpnoti anuttarām bodhim dhimän käyatrayātmikām // Eng. After obtaining vibhutva and having a clear knowledge about oneself and others, a wise person realizes that supreme wisdom (bodhi) which is embodied with three essential forms (Syabhāvika. sambhogka and nairmānika). Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 TULSI-PRAJNA mtshan-hid-gsum-la-'lvg-pa / slob-dpon-chen-po-'phags-pa-klu sgnub-kyi-shal-mra-nas-mdsad-pa-rdsogs-s0 // mtshan-ñid-gsum-la-'jug-pa (=laksana-traya-praveśaḥ) slob-dponchen-po (=mabaguru), phags-pa (=ärya) klusgrub-kyi-shal-mna-nas (=pagārjunasya mukhāt) mdsad-palrdsogs-so (=kstiḥ sampurņā) / Skt. Mahaguru arya Nagarjunasya (iyam) kstiḥ sampurna // Eng. This work of Arya Nagarjuna ends (here). kha-che'i-pandita-dge-slon-zla-ba-grags-pas-bsgyur-ba'o // kha-che'i-pandita (=kashmira (deśasya paņdita) dhe-slon (=bhikṣu) zla-ba-grajs-pas (=candrakirttina) bsgyur-ba'o (=anuditah) / Skt. kashmirades'asya paņdita-bhikṣu Candrakırttina anuditaḥ || Eng. (This work) has been translated by the Bhikshu Candrakirtti form Kashmir. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE QUESTION OF PRIORITY OF ARDHAMAGADHI AND SAURASENI AGAMAS K. R. Chandra Recently a Seminar on the Original Language of Jain Canonical works' (Jinagamon kr Mūla Bhāşa) was held at Ahmedabad on the 27th and 28th April, 1997. The outcome of the Parleys* on the Subject was-Ardhamagadhi is the original language of Jain canonical works whereas the Sauraseni Agama.Works arc Comparatively of later age. Regarding this subject opinions of eminent western which corroborate the outcome of the Seminar. Their letters are being reproduced here for the enlightenment of the scholars working in this field. Dear Professor Chandra Thank you for informing me of the Seminar on the Original Language of the Jain Canonical Texts that is scheduled to take place shortly in Ahmedabad. You are to be congratulated on the selection and range of topics, and on the timing of the conference at this important juncture in Jain Studies. My colleagues and I hope that, by subsequent publication of the proceedings, it will encourage and facilitate more widespread study. publication and discussion of the primary manuscript sources. We would also wish to convey our congratulations to Dr. K.R. Chandra on the appearance of his stimulating re-appraisal of the linguistic from of the text of Acaranga. J.C. Wright Professor of Sanskrit in the Univ. of London School of Oriental and African Studies University of London London WCIH OXG * See 'Tulasi Prajña', Vol. 23, No. 1, Aprit- June, 1997, Ladnun, pp. 149-151. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA Dear Professor Chandra Thank you for your letter advising me about the forthcoming seminar on the "Original Language of the Jain Canonical Texts". It is very gratifying to learn that such an academic function has been organised and that so many distinguished scholars are participating in it. As you will know, sixty or so years ago Heinrich Lüders saw the desirability of describing the linguistic stratum underlying the Pali scriptures. The fragmentary results of this researeh appea red in his Beobachtungen über die Sprache des buddhistischen Urkapons and Buddhist philology has continued to benefit from his insights. Unfortunately, with the exception of Alsdorf, no western researcher has attempted to consider the question of the original language of the Jain scriptures that, so that it is very much to the credit of Indian scholars that they are beginning to address this sub icct in a critical and concerted manner. The first valuable results of this line of investigation are familiar to me from your Pracin Ardhamagadhi ki Khoj Mem and I would hope that the seminar leads to the emergence and dissemination of further knowledge about this fascinating subject. Only by challenging longheld presuppositions will scholarship on ancient texts be advanced. My best wishes for a successful and fruitful seminar. Yours sincerely, Paul Dundas Senior Lecturer in Sanskrit University of Edinburgh Scotland, u, k. Dear Dr. Chandra, Thank you for your letter of 15/5/97. I am delighted to hear that the Seminar on the subject of the Original Language of the Jain Canonical Texts was so successful. I was interested to hear the outcome of your deliberations. I think that it is very likely that Ardha-magadhi was the original language of the Jināgama or, since the language of the original Jinagama was presumably earlier than the Ardha-magadbi we possess now, perhaps we should call it Old Ardha-māgadhs. I believe that this language was affected by the Mābaraştri Prakrit after Jainism Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 2 had spread to Mahārāsțra, and I would agree that the Sauraseni Agamic works are relatively later. If there are any plans to publish the proceedings of the Seminar I should be very glad to receive a copy. With best wishes, Yours sincerely, K.R. Norman 6, Huttles Green, Shepreth Royston, Herts Dear Professor Chandra, Thank you for sending me a copy of your report on the outcome of the Original Language' Seminar. Of course I remain most interested in the progress of your reappraisal of the testimony of Acaranga MSS for the language of Amg, texts, and hopeful that you can publish more of the information gleaned. Would that someone might be inspired to produce facsimile reproductions of the principal MSS, in emulation of the Sata pitaka Series. That is something that ought to be demanded at every conference, before the MSS disintegate entirely. Your findings seem to confirm that a return to the method of Jacobi's 1882 edition of Acarānga would be appropriate. In case of variation, he gave in italics the most antique-looking reading that happened to be available (e.g.... natam bhavati... ovavâiye...), even although, on his own showing, such readings can always be put down to an instinct to clarify the meaning. Thus he rightly could take note of effects like 1.2 māya me pita me and 1.6 mataram piya. ram. But I do not believe that it is safe to refer to this (as he did) as a 'retention of-t-: one is presumably less likely to find a -- in a purely Prakrit from like bhayk. With parinnā, and with the same sort of effect in hirannenaṁ suvanneņam elsewhere (ZDMG 1880), bis policy was to archaize with parinna and suyaņpenam. I take the opportunity to congratulate you on your explanation of locative-ammi, which seems to solve one of the most perplexing ms of all. It goes well with the texts' failure to distinguish between o- and 4, and with Bühler's suggestion that graphic confusion between n and n was involved ; that would seem to justify Jacobi in his willing ass to onod y., n., and an irrespostiv; of the Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 TULSI PRAJNA actual readings, as I understand him). Schubring's identification of two groups within the Ācārānga MSS, and of separate strata of verse and prose material, seems to hint that critical editing is possible (though he did not make the attempt., and it would be a thankless task without access to facsimi. les of the MSS). With all good wishes, Prof. J.W. Wright South Asia Dept. SOAS University of London Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registration Nos. Postal Department : NUR-08 Registrar of News Papers for India : R.N.I. No. 28340/75 Vol XXII vol. XXIII TULSI-PRAJNA 1997-98 Annual Subs. Rs 60/- Rs. 20/- Life Membership Rs. 600/प्रकाशक-संपादक : डॉ. परमेश्वर सोलंकी द्वारा जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं (भारत)-३४१३०६ में मुद्रित कराके प्रकाशित किया गया। www. j org