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________________ (३) वामन - इनका काव्य लक्षण इस प्रकार है 'काव्यशब्दोऽयं गुणालङ्कारसंस्कृतयोः शब्दार्थ योर्वतते ' (४) रुद्रद आचार्य रुद्रद ने शब्द और अर्थ को ही काव्य माना है। (५) वाग्भट्ट - वाग्भट्ट ने दोषों से रहित, गुणों से युक्त और प्राय: अलंकृत शब्द और अर्थ को काव्य कहा है । १५ (६) कुन्तक - वक्रोतिजीवितकार कुन्तक ने अधिक स्पष्ट रूप से काव्य का लक्षण प्रस्तुत किया है 'शब्दार्थौ सहितौ वक्र कविव्यापारशालिनि । बंधे व्यवस्थित काव्यं तद्विदाह्लादकारिणि ॥ (७) क्षेमेन्द्र - क्षेमेन्द्र ने औचित्य को ही काव्य का 'जीवित' माना है ।' (८) विद्यानाथ - आपने गुण और अलंङ्कार से युक्त दोषों से वर्णित शब्द और अर्थ को काव्य कहा है । " ( ९ ) विश्वनाथ - साहित्यदर्पणकार 'रसात्मक वाक्य' को ही काव्य मानते हैं ।" (१०) मम्मट आचार्य मम्मट का काव्य-स्वरूप निरूपण अलंकार शास्त्र की काव्य-विषयक प्राचीन और नवीन धारणाओं यथा भावनाओं का समन्वय है । उन्होंने काव्य को परिभाषित करते हुए कहा है 'तददोषौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि ।' अर्थात् अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव तीनों प्रकार के दोषों से रहित, प्रसाद, माधुर्य और ओज आदि गुणों से युक्त और कहीं कहीं अलंकार से रहित होने पर भी शब्द और अर्थ काव्य है । 'अनलंकृती पुनः क्वापि' इस वाक्यांश में प्रयुक्त क्वापि पद से मम्मट कहते हैं कि यथासंभव सब जगह अलङ्कार युक्त शब्द और अर्थ का युगल होना चाहिए परन्तु कहीं (जहा व्यङ्गय या रसादि की स्थिति विद्यमान हो वहां ) स्पष्टरूप से अलंकार न भी हो तो भी वहां काव्य की कोई क्षति नहीं हुआ करती है । काव्य- सर्वस्य के संकेत के लिए मम्मट ने सर्वप्रथम काव्य का 'तत्' शब्द परामर्श किया है । 'काव्य' का स्वरूप रस सृष्टि और रसानुभूति में ही उन्मीलित हुआ करता है । यह वही 'तत्' शब्द है, जिसे आनन्दवर्धन ने ध्वनि कहा है ।" मम्मट शब्द और अर्थ दोनों की समष्टि को काव्य मानते हैं । उनके अनुसार अकेला शब्द या अकेला अर्थ इनमें से कोई भी काव्य नहीं है । उन्होंने इस शब्दार्थों पद के तीन विशेषण लक्षण में प्रस्तुत किये गये हैं । (१) अदोषौ शब्दार्थो - शब्द और अर्थ की 'अदोषता' काव्य- लोचना की प्राचीनतम मान्यताओं में से है मम्मट ने 'अदोषता' को शब्दार्थ - साहित्य की विशेषता के रूप में स्वीकार किया है । भामह के अनुसार भी शब्दार्थ - साहित्य की सर्वप्रथम विशेषता 'अदोषता' ही है ।' कवि की पद रचना यदि 'सदोष' हुई तो उसे उसी प्रकार निन्दित होना पड़ता है जिस प्रकार कोई पिता दुष्ट पुत्र के उत्पादक होने के खण्ड २३, अंक २ २०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524592
Book TitleTulsi Prajna 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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