SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारण निन्दित हुआ करता है । मम्मट के अनुसार 'दोष' कवि की रस योजना संबंधी अशक्ति के प्रकाशकहै जिनके कारण रस चर्वण में बाधा पहुंच सकती है। उत्तम काव्य की यह 'अदोषता' प्राचीनाचार्यों ने भी प्रतिपादित की है कीटानुविद्धरत्नादिसाधारण्येन काव्यता। दुष्टेष्वपि मया यत्र रसाद्यनुगमः स्फुटः ॥ मम्मट ने सर्वप्रथम 'अदोषौ शब्दार्थों' को काव्य स्वरूप का परिच्छेक मानकर रसभङ्ग के कारण 'अनौचित्य' के अभाव का अभिप्राय प्रकट किया है। जहां रस विवक्षा न हो ऐसे काव्य में शब्द और अर्थ की 'अदोषता, आवश्यक है क्योंकि इसके बिना मुख्य अर्थ की प्रतीति नहीं हो सकती और यदि होगी तो विलम्ब से होगी और उसमें चमत्कार नहीं हो सकेगा। (१) सगुणो शब्दार्थों-मम्मट के शब्दार्थ साहित्य की दूसरी विशेषता 'सगुणता' है । रीतिवादी आचार्य वामन ने जिस 'सगुणता' के कारण पदरचना को कात्य का अन्तिम रहस्य मान लिया है । उसी 'सगुणता' को आचार्य मम्मट ने काव्य रूप शब्दार्थ साहित्य की एक विशेषता के रूप में प्रतिपादित किया है। मम्मट के अनुसार शब्द और अर्थ की 'सगुणता' की विशेषता शब्द और अर्थ की रसाभिव्यञ्जकता है क्योंकि अन्ततोगत्वा गुण अभिव्यङ्गय रस के धर्मरूप से सहृदय हृदय में अभिव्यङ्गय हुआ करते हैं। मम्मट ने 'रसवता' अथवा 'सरसता' को शाब्दार्थ साहित्य का वैशिष्ट्य न बता कर 'सगुणता' को जो उसका वैष्ट्यि बताया है वह इसी दृष्टि से है कि रसादि रूप उत्तम काव्य के अतिरिक्त मध्यम और अधम काव्य भी इससे लाक्षित हो सके। (३ अनलंकृती पुनः क्वापि शब्दार्थों-शब्द और अर्थ जो काव्य कहे जाते हैं अलंकृत हो किन्तु इस बात को सीधे न कहकर यह कहना कि ऐसी शब्दार्थ रचनाएँ भी काव्य मानी जांय जिनमें स्पष्ट रूप से किसी अलङ्कार-योजना के न होने पर भी काव्य के सौन्दर्य का अनुभव हुआ करता है। यदि काव्य में अलंकार ही सब कुछ होता तो 'अनलंकृती पुन: क्वापि' उन्मत्त प्रलाप मात्र मान लिया जाता । आचार्य मम्मट ने जिस प्रकार शब्दों और अर्थों की 'अदोषता' और 'सगुणता' को उनके स्वरूप से संबद्ध न मानकर रस उनके अभिव्यङ्गय रस रूप अर्थ से संबद्ध माना है उसी प्रकार उनकी समुचित अलंकृतता को उनके स्वरूप से संबद्ध न मानकर रस रूप अलङ्कार्य से संबद्ध स्वीकार किया है। आचार्य मम्मट के अनुसार अलङ्कार शब्द और अर्थ के चारुत्त्वाधायक नहीं अपितु रसभावादिरूप अलङ्कार्य के चारुत्व के वर्धक हुआ करते हैं । मम्मट ने 'अनलंकृती पुनः क्वापि' के उदाहरण में निम्न काव्यबंध प्रस्तुत किया है-- यः कौमारहरः स एव हि वरस्ता एव चैत्रक्षपा स्ते चोन्मीलितमालतीसुरभयः प्रौढाः कदम्बानिला: । सा चैवास्मि तथापि तत्र सुरतव्यापारलीलाविधी रेवारोधसि वेतसीतरुतले चेतः समुत्कण्ठते ।। तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524592
Book TitleTulsi Prajna 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy