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________________ मम्मट के अनुसार यहां कोई स्पष्ट अलंकार नहीं है । मम्मट द्वारा प्रस्तुत इस दृष्टांत की तथा 'शब्दार्थों' के विशेषणों की साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ने आलोचना की है। मम्मट द्वारा उद्धृत दृष्टांत अलङ्कार की 'अस्फुट प्रतीति' का ही नहीं अपितु सुकुमार रसभाव के सौन्दर्य भार को ही संभालने में लगी उस कविता की मधुर मूर्ति का निदर्शन है जिसे अलङ्कार की कोई आवश्यकता नहीं किन्तु विश्वनाथ ने मम्मट के मत का खण्डन किया है उन्होंने यहां 'विभावना' और 'विशेषोक्ति' अलङ्कार माना __यहां उत्कंठा रूप कार्य का वर्णन किया गया है किन्तु उसका कारण विद्यमान नहीं है । कारण न होने पर भी उत्कंठा रूप कार्य का वर्णन होने से 'विभावना' है । साथ ही उत्कंठा भाव का कारण होते हुए भी उत्कंठा भाव कार्य के न होने से यहां 'विशेषोक्ति' अलंकार भी है । ये दो अलङ्कार विश्वनाथ द्वारा माने गये हैं। __ आचार्य मम्मट ने यहां संदेह-सङ्कर इसलिए नहीं समझा क्योंकि 'विभावना' और 'विशेषोक्ति' जब अस्फुट है तब 'विभावना विशेषोक्ति' मूलक 'संदेह-सङ्कर' क्यों स्पष्ट होने पर भी काव्यत्व की प्रतीति का जो मम्मट द्वारा प्रस्तुत उदाहरण दिया है वह बहुत ही सुन्दर और युक्तिसंगत है अतएव विश्वनाथ द्वारा इसका खण्डन उचित नहीं लगता है। विश्वनाथ ने 'अदोषो' पद की भी आलोचना की है और 'न्यक्कारो ह्ययमेव मे यदरयः' इत्यादि ध्वनि काव्य में 'विधेयाविमर्श' दोष निकालकर सिद्ध किया है कि इस विशेषण के कारण या तो काव्य का क्षेत्र नहीं के बराबर हो जायेगा या बहुत संकीर्ण हो जायेगा। मम्मट के अनुसार उत्तम, मध्यम और अधम तीन प्रकार की काव्यकृतियों में शब्दार्थ युगल की 'अदोषता' एक रूप नहीं अपितु त्रिविध रूप है किन्तु विश्वनाथ का ध्यान एकमात्र 'अदोष' पद में 'नञ्' के अर्थ अभाव पर ही गया और काव्य-साहित्य की काञ्चनराशि की परख के लिए मम्मट की बतायी काव्यलक्षण की कसौटी एक अनर्थ के रूप में दिखाई देने लगी किन्तु यह सब एक दुराग्रह ही है। स्वयं विश्वनाथ ने भी साधारण दोषों के रहते हुए काव्यत्व स्वीकार किया है। _ विश्वनाथ 'सगुणो' इस विशेषण पर भी आक्षेप करते हैं। इस संबंध में मम्मट की 'सगुणौ शब्दार्थों की उक्ति और उन्हीं की __ ये रसस्याङ्गिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मनः । उत्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितियो गुणाः ॥ -यदि उक्ति में परस्पर विरोध प्रदर्शित किया गया है और यह निष्कर्ष निकाला गया है कि मम्मट की यह काव्य-परिभाषा युक्तिसंगत नहीं है । रसध्वनिवादी काव्यलोचना की दृष्टि से यदि काव्य-लक्षण किया जाय तो मम्मट का ही काव्य-लक्षण एकमात्र निर्दुष्ट प्रतीत होता है । विश्वनाथ द्वारा इसका खण्डन उचित नहीं लगता । 'अनलंकृती पुनः क्वापि' इस विशेषण पर उनका कहना है कि अलंकृत शब्द-अर्थ काव्य के स्वरूप में नहीं अपितु काव्य के उत्कर्ष में आवश्यक है। खंड-२३, अंक-२ २०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524592
Book TitleTulsi Prajna 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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