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करते हुए 'प्रीति' का महत्वपूर्ण प्रयोजन स्वीकृत किया।
साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ के अनुसार काव्य एक ऐसी वस्तु है जिससे अल्पबुद्धि मानव को भी बिना किसी प्रयास के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप-पुरुषार्थ चतुष्ट्य की प्राप्ति हो जाती है।
__ अर्थात् काव्य ही मनुष्य को राम के समान आचारण करना चाहिए । रावण के समान नहीं-यह उपदेश देता है-'रामादिवत्प्रवर्तितव्यं न रावणादिवत् ।'
ध्वनिवादी आचार्य आनन्दवर्धन भी 'प्रीति' को ही काव्य का महत्वपूर्ण प्रयोजन मानते हैं। भोजराज के अनुसार 'कीति' और 'प्रीति, काव्य के तात्त्विक प्रयोजन हैं। व्याख्याकार रत्नेश्वर ने इस 'प्रीति' का इस प्रकार विवेचन किया है
"प्रीतिः संपूर्ण काव्यार्थसमुवय: मानन्दः।" आचार्य मम्मट ने काव्य-प्रयोजन विषयक विभिन्नवादों का समन्वित रूप प्रस्तुत किया है। उन्होंने काव्य के छः प्रयोजनों का निरूपण किया है। यश प्राप्ति, अर्थ लाभ, आचार (व्यवहार) ज्ञान, अमंगल का विनाश, शीघ्र ही आनन्दानुभूति और कांतासम्मित उपदेश (स्त्री के समान उपदेश)। किन्तु आचार्य राजचूड़ामणि दीक्षित ने अपने ग्रन्थ 'काव्यदर्पण' में काव्य के पांच ही प्रयोजन निर्दिष्ट किये हैं । यश प्राप्ति अर्थ लाभ, अमंगल का विनाश, स्त्री के समान उपदेश और शीघ्र आनन्द की प्राप्ति । उन्होंने इसको स्पष्ट करते हुए लिखा है कि महाकवि कालिदास को अपने ग्रंथों (अभिज्ञानशाकुन्तलम् , मेघदूत इत्यादि) से यश प्राप्ति हुई । काव्य में यश प्राप्ति के रहस्य को भर्तृहरि ने भी प्रतिपादित किया है।" श्रीहर्ष इत्यादि से धावक आदि कवियों को अर्थ की प्राप्ति हुई अतः काव्य से धनोपार्जन हो सकता है। काव्य के द्वारा उस अनिष्ट का निवारण भी संभव है जो सूर्यादि देवों के अनुग्रह से सूर्यशतक में रचयिता मयूर इत्यादि का हो चुका है । काव्य के निर्माण से मनुष्य को असीम आनन्द की प्राप्ति होती है और काव्य ही मनुष्य को राम के समान आचरण करना चाहिए रावण के समान नहीं-इस प्रकार का उपदेश देता है।
निष्कर्षतः अधिकांश आचार्यों ने 'कीति' या 'यश' को ही काव्य का प्रमुख प्रयोजन माना है । कवि और पाठक दोनों की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण प्रयोजन ‘सद्यः परनिवृति' है। इसलिए मम्मटचार्य ने उसको 'सकलप्र योजनमौलिभूत'- कहा है। पाश्चात्य आलोचक भी काव्य के प्रयोजनों में रसानुभाव को ही मुख्य मानते हैं । निर्दुष्ट काव्य-लक्षण
काव्य क्या है ? इसे आचार्यों ने अपने-अपने शब्दों में व्यक्त करने का प्रयास किया है विभिन्न आचार्यों द्वारा प्रस्तुत काव्य-लक्षण इस प्रकार है--
(१) भामह-भामह का काव्य-लक्षण अधिक प्राचीन है उनके अनुसार शब्द और अर्थ से युक्त काव्य गद्य और पद्य दो प्रकार का है।
(२) दण्डी भामह के पश्चात् काव्य-लक्षण में आये हुए ‘संहितौ पद की व्याख्या करते हुए दण्डी ने अपने काव्य-लक्षण प्रस्तुत किया है -'शरीरंतावदिष्टार्थ व्यवच्छिन्ना पदावली।'
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तुलसी प्रज्ञा
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