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सुरकयं ओसरणे ठाउमीस कप्पो त्तिकाउ धम्मकहं ।
घुवमच्छरियं जाणियं वरचरण अभावियं परिसं ॥३२॥ फिर देवकृत समवशरण पर बैठकर उन्होंने आचार विषयक धर्मकथा कही किंतु देशविरति तथा सर्वविरति से यह प्रवचन अप्रभावी रहा ।
बहु तियस कोडिसहिओ, निसि बारस जोयणेहिं पावपुरि।
गंतुं महसेणवणे चउविहतित्थं पइद्वित्था ॥३३॥ वहां से भगवान् रात्रि में विहार कर कोटि देवों सहित बारह योजन दूर पावापुरी पहुंचे और वही महासेन वन में चतुविध तीर्थ की स्थापना की।
साहु सहस्सा चउदस, छत्तीसं साहुणी सहस्साणि ।
सेगूणट्ठिसहस्सा लक्खं सड्ढा दुगुण सड्डी ॥३४॥ चतुर्विधि तीर्थ में १४ हजार साधु, ३६ हजार साध्वी, १ लाख ५९ हजार श्रावक और ३ लाख १८ हजार श्राविकाएं थीं।
चउदस पुव्वी वाई मणपज्जविणो य तिचउ पंचसया।
सत्तसया केवलियो विउविणो तत्तिया तुज्झ ।।३५॥ चतुर्विध तीर्थ में ३०० चौदहपूर्वी, ४०० वादी, ५०९ मनः पर्ययज्ञानी, ७०० केवलज्ञानी तथा ७०० वैक्रिय लन्धि धारी साधु थे।
पंच जम धम्मदेसग एक्कारस गणहरा नव गणा ते ।
तेरस ओहि जिणसया अट्ठसयाणुत्तर गई णं ॥३६॥ भगवान् पंचयाम धर्म देशक थे । उनके ११ गणधर और नौ गण थे। साधुओं में १३०० अवधिज्ञानी तथा ८०० अनुत्तर गति को पाने वाले थे ।
पंचतराय हासाइ छक्क मिच्छित्तमविरइमनाणं ।
अट्ठारस दोसा रागदोस निद्दा य मयणो य ॥३७॥ भगवान् ने दानान्तराय, लाभान्सराय, भोगान्तराय, वीर्यान्तराय, उपभोगान्तराय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मित्थात्व, अविरति, अज्ञान, राग, द्वेष, निद्रा, कंदर्प-१८ दोषों को नष्ट कर दिया था।
इय नट्ठारसदोसदाह, चउतीसं अइसयसणाह । पणतीस बुद्धवयणाइ, सेस अच्छाह जयनाहा ।।३।।
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तुलसी प्रज्ञा
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