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________________ सम्भोग श्रृगार के अनेक भेद ( यथा परस्पर अवलोकन, आलिङ्गन, अधरपान, परिचुम्बन आदि) होने के कारण उनकी गणना नहीं की जा सकती, अतः इसे एक ही प्रकार का माना गया है। यह नायिकारब्ध तथा नायकारब्ध रूप में दो प्रकार से वर्णित है । विप्रलम्भ शृङ्गार अभिलाप, विरह, ईर्ष्या, प्रवास तथा शाप हेतुक होने के कारण पांच प्रकार का है किंतु पण्डितराज कहते हैं कि विप्रलम्भ के कारण कुछ भी हो पर वास्तविक में 'वियुक्तोऽस्मि' यही बुद्धि होती है । इसलिए विप्रलम्भ में कोई विलक्षणता नहीं आती । अतः कारण भेद से भेद करने का कोई औचित्य नहीं है । बीर रस को मम्मट ने यद्यपि एक ही प्रकार का माना है तथापि अन्य विद्वानों द्वारा इसे चार प्रकार का माना गया है १. दानवीर २. दयावीर ३. युद्धवीर ४. धर्मवीर पण्डितराज कहते हैं कि वस्तुतः जैसे सम्भोग शृङ्गार अनन्त हैं वैसे ही वीर रस भी अनन्त हो सकते हैं । अत: असंख्य होने के कारण इसे भी एक ही प्रकार का मानना उचित है क्योंकि वीर रस के चार भेद तो प्राचीन आचार्यों द्वारा प्रतिपादित किये गये हैं किंतु उनके पृथक् सत्यवीर, पाण्डित्यवीर, क्षमावीर, बलवीर आदि भेद भी किये जा सकते हैं । हास्य रस का भी मम्मट ने एक ही भेद माना है, परन्तु अन्य आचार्य (जिनका मत पण्डितराज ने उद्धृत किया है) हास्य के प्रथमतः दो भेद मानते हैं- १. आत्मस्थ २ परसंस्थ उक्त दो भेदों के पुनः तीन भेद १. उत्तम २०० २. मध्यम ३. अधमा सामाजिकगत होने से छः प्रकार के हो गये । पुनः उत्तम के दो भेद हुए १. स्मित २. हसित । मध्यम हास्य के भी दो भेद हैं १. विहसित २. उपहसित । अधम पुरुषगत हास्य के भी दो भेद हुए - १. अपहसित २. अतिसित । Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रशा www.jainelibrary.org
SR No.524592
Book TitleTulsi Prajna 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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