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________________ उनका प्रतिपाद्य है कि यक्ष का अभीष्ट था कि मेघ मालभूमि से उस दिशा में आगे बढ़े जो अधिकांशतः उत्तर तथा किचित् पश्चिम की ओर मुड़ने से निश्चित होगी । सिद्धान्त है कि मालभूमि से विदिशा तक जाने का मार्ग ( यक्ष को रामगिरि से विदिशा भी पहुंचना है) एक सीधी रेखा बन जानी चाहिए और वह मार्ग उसी दिशा में निर्मित हो सकता है जो अधिकांशतः उत्तर तथा तनिक पश्चिम मुड़ने से प्राप्त होगी । उन्होंने यह भी निरूपित किया है कि हाथी के शरीर पर श्रृंगार की आकृति समान दिखाई पड़ने वाला नर्मदा का प्रवाह हुशंगाबाद जिले में स्थित शोभापुर नामक स्थान है जिससे कुछ मील दूर वायव्य दिशा में नर्मदा के एक तीर पर पानी से सटे हुए पहाड़ दिखायी पड़ेंगे और दूसरे तीर पर समतल भूमि दीख पड़ेगी । इस प्रकार, सोहनीजी कर्कणा है कि मालभूमि, आम्रकूट (पंचमढ़ी) के पर्वत तथा शोभापुर के समीप नर्मदा एवं विदिशा ये चारों स्थान एक सीधी रेखा में पड़ते हैं साथ भी, एक ही दिशा में सीधे पड़ेंगे, अतएव रामगिरि रामटेक ही है । जो पुनः रामटेक के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सोहनीजी ने उक्त स्थानों की भौगोलिक स्थिति को महत्त्व दिया है और रामटेक के रूप में रामगिरि की पहचान है। किन्तु, प्रश्नों का प्रश्न यह उल्लसित होता है श्रीराम के चरणचिह्नों से अंकित ढालू चट्टानों " वन्द्यैः पुंसां रघुपतिपदैरङ्कितं मेखलासु" (११२) तथा प्रथम श्लोक में ही उल्लिखित सीताजी के स्नान से पवित्रीभूत "उदकों" का । अर्थात्, अयोध्या छोड़ने के बाद सीता-राम ऐसे ऊंचे स्थल पर निवास करते रहे जहां चट्टानों भरी स्वच्छ जलराशि उपलब्ध थी; पुनः उनका उस स्थान पर कुछ काल तक रहना भी आवश्यक था क्योंकि तभी तो राम चट्टानों पर टहलते होंगे तथा सीता नियमितरूपेण वहां स्नान करती होगी । यही मौलिक गवेषणा का विषय है । मेघ का मार्ग सीधी रेखा में पड़ता हो अथवा वक्र रेखा में - यह प्रश्न गौण है, कारण स्पष्ट है : कालिदास को यक्ष के मुख से अपने प्रिय स्थानों का निर्देश कराना है, जहां-जहां मेघ प्रवृत्ति - वाहन के यात्राक्रम में जायेगा और उसी ब्याज से कवि अपनी प्रिय-नगरियों का वर्णन करेगा । यदि मेघ के लिए सीधा मार्ग निर्दिष्ट करना ही कवि को अभीष्ट होता तो वह मेघ को पश्चिम की ओर मुड़ने की सलाह क्यों देता ? अतएव, मौलिक प्रश्न है : श्रीराम के चरणचिह्नों से अंकित शिलाओं की तथा सीता के नैत्यिक मज्जन करने वाले "उदकों" की पहचान करने का ? इस संदर्भ में यह भी कह देना वांछनीय प्रतीत होता है कि "उदकेषु " ( जलेषु ) का विद्वानों ने लक्ष्यार्थ ग्रहण किया है, "जलीकुण्ड " । अर्थात्, सीता उस स्थान में प्राप्त जल - कुण्डों में स्नान करती थीं । वर्तमान लेखक का प्रश्न है : "उदकेषु" का अभिधेयार्थ ही क्यों नहीं ग्रहण किया जाय, यानी, “जलराशि" या " जलप्रवाह" ? इस प्रसंग में एक विचारणीय तथ्य आदिकवि ने क्यों रामगिरि का उल्लेख २३६ Jain Education International ख यह भी उपस्थित होता है कि रामायण में नहीं किया ? ( कालिदास ने भी " पूर्वमेघ " तुलसी प्रज्ञा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.524592
Book TitleTulsi Prajna 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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