SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कालिदास का "रामगिरि" कहां है ? . रमाशङ्कर तिवारी सुविख्यात गीतिकाव्य "मेघदूत" के प्रथम खण्ड “पूर्वमेघ" के प्रथम श्लोक में महाकवि ने बताया है कि कर्तव्य-स्खलन के कारण अलकापुरी के अधीश्वर कुबेर ने यक्ष को शाप दे दिया कि वह एक वर्ष तक अपनी प्रियतमा से वियुक्त रहे । इसी अभिशाप से ग्रस्त यक्ष ने रामगिरि के आश्रमों के मध्य अपना निवास रचाया "कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः। यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु स्निग्धच्छायातरुषु वसति रामगिर्याश्रमेषु ॥" यहां प्रश्न उल्लसित होता है कि यह रामगिरि कहां था ? प्रचुर विचार-मंथन के बाद विद्वानों ने यह स्थिर किया है कि नागपुर के समीपस्थ आधुनिक रामटेक ही रामगिरि है । "टेक" का अर्थ कोष के अनुसार ऊंचा "टीला" भी होता है, अर्थात् रामटेक छोटी पहाड़ी है, जो महाराष्ट्र में नागपुर के निकट अवस्थित है । इसी प्रकार, "मेघदूत" का आम्रकूट पंचमढ़ी का पर्वत है, यह भी प्रतिपादित हुआ है "त्वामासार प्रशमितवनोपप्लवं साधु मूर्ना वक्ष्यत्यध्वश्रमपरिगतं सानुमानाम्रकूट: ।" (१११७) पटना के तत्कालीन कमिश्नर स्व० एस०बी० सोहनी ने आकाशवाणी, पटना, से "मेघदूत' के ऊपर एक वार्ता प्रसारित की जो २ मई, १९६१ ई०, के हिन्दी दैनिक "आर्यावर्त" में प्रकाशित हुई। इसमें उन्होंने यह प्रतिपादित किया है कि रामगिरि रामटेक की पहाड़ी ही है। इसके लिए उन्होंने "पूर्वमेघ" के सोलहवें श्लोक की चौथी पंक्ति "किञ्चित् पश्चात् ब्रज लघुगतिर्भूय एवोत्तरेण" को उद्धृत किया है। इसकी ऊपरी तीसरी पंक्ति है "सद्यः सौरोत्कर्षणसुरभि क्षेत्रमा मालं।" इन पंक्तियों का सीधा-सामान्य अर्थ यह है कि "माल क्षेत्र" के ऊपर से जाते हुए तुम इस प्रकार से उमड़कर बरसना कि हल से तत्काल जुती हुई भूमि सुगंध से भर जाय। तब कुछ देर बाद तुम तनिक तीव्र गति से पुन: उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान कर देना । "स्मरणीय है कि "लघु" का अर्थ "चंचल" अथवा "ती" भी होता है। सोहनीजी का तर्क है कि "माल" कोई विशिष्ट भू-क्षेत्र का अंचल-विशेष नहीं है, अपितु "माल" का अर्थ है-ऊंची जमीन- “उन्नतंभूतलम्"। उनका यह खण्ड २३, अंक २ २३५ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.524592
Book TitleTulsi Prajna 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy