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________________ युक्तिसंगत नहीं होगा कि वाल्मीकि की इसी उपमा से कालिदास को "वप्रकीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं" का प्रभावकारी बिम्ब सूझा होगा ? पुन:, रामायण में मन्दाकिनी के पवित्र जल में श्रीराम-सीता के युगपत् स्नान करने का कथन हुआ है-जो हम पहले दिखा चुके हैं। इसी की ध्वनि “सीतास्नानपुण्योदकेषु" में श्रूयमाण है। "पुण्योदकेषु' का सीधा अभिधेयार्थ, मन्दाकिनी की पवित्र जल-राशि, क्यों नहीं ग्रहण किया जाय ? जलकुण्डों का कोई उल्लेख संबद्ध प्रसंग में आदिकवि ने नहीं किया है। तुलसी ने भी जलकुण्डों की कोई चर्चा नहीं की है। पुनः, चित्रकूट पर अनेक शिलाओं की वर्तमानता का वर्णन रामायण में उपलब्ध है जिन पर राम के चरणचिह्न अंकित हो गये होंगे --- "शिला: शैलस्य शोभन्ते विशालाः शतशोऽमित:।" अतः, "पूर्वमेघ" में उल्लिखित "रघुपतिपदैवङ्कितं मेखला" की पूर्ण संगति यहां स्थापित हो जाती है। तदपि, भौगोलिक स्थिति (रामगिरि से अलका तक) भी महत्त्वमयी बन गयी है । मेघ को मुख्यतः उत्तरदिशा में ही जाना है जहां विरह-संतप्त यक्ष का मूल निवास है । तब, यदि चित्रकूट को रामगिरि (रामशैल) माना जाय, तो मेघ की सम्पूर्ण यात्रा अर्थहीन बन जाती है क्योंकि उसे कालिदास द्वारा निर्दिष्ट नगरियों, विशेषत: उज्जैन स्थित महाकाल का मन्दिर, से होते हुए उत्तर दिशा में स्थित गन्तव्य स्थल तक पहुंचना है । प्रश्न का उलझाव प्रत्यक्ष है। - उपरिमत विवेचन के आलोक में यह मानने की प्रेरणा मिलती है कि रामगिरि के विषय में कालिदास के काल में कोई ऐसी ही स्थिर जनश्रुति रही होगी जिसका प्रश्रवण कर उनकी कारयित्री प्रतिभा ने "मेघदूत' का ललित-ललाम काव्य-वितान रचा होगा। रामसीता के वनवास की अवधि में ऐसे स्थल की गवेषणा अभीष्ट होनी चाहिए, जहां वे कुछ काल-पर्यन्त निष्कण्टक भाव से अवश्य निवास कर रहे होंगे और जिसकी पूर्ण संगति आदिकवि के वर्णनों से स्थापित हो जाय । विद्वान् इस तथ्य को ध्यानस्थ रखते हुए रामगिरि की पुनः पहचान का प्रयत्न करें-ऐसा वर्तमान लेखक का अनुरोध है। यह भी विचारणीय बनता है कि संपूर्ण ‘मेघदूत' में, प्रथम श्लोक के अतिरिक्त, अन्यत्र “आश्रम" शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, ऋषि-मुनियों के निवास-रूप में; अपितु आद्योपान्त एकाकीपन का भाव व्याप्त है। अतएव, “आश्रमेषु" का अर्थ (रामगिरि के) गुहाओं के बीच क्यों नहीं ग्रहण किया जाय, तब जब कोश में 'आश्रम' का एक अर्थ 'गुहा' भी दिया है ? -(डॉ. रमाशंकर तिवारी) २०, लक्ष्मणपुरी अयोध्या, फैजाबाद (उत्तर प्रदेश) तुलसी प्रज्ञा २४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524592
Book TitleTulsi Prajna 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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