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४. गोविन्द गर रा टाबरियां' कविता में गुरु गोविन्दसिंह के दोनों कमरों की
तूं कतल करा, भीता पुणवा; फांसी चढ़स्या, विष पीवाला । म्हे धरम रूखाला धरम छोड़,
कायर ज्यूं कदै न जीवांला ॥ ५. 'घड़कोट'-- कविता में जाटवीरों द्वारा फिरंगी फौजों के मुकाबिले पर कवि
की उक्तिकर जोर घणाई जूझया पण, छेकड़ गोरां रो बल थाल्यो। धन-धन तू धरा भरतपुर की, हिंद वाणे रो पाणी राख्यो ।।
दो मास हुयो संगरामजबर, नयी खबर रात दिन री लागे । गोरा फीटा बण घड़ी-घड़ी,
कूटीजे डर पूठा भागे । इसी प्रकार की इंगजी ज्वारजी- कविता में निम्न उक्ति देखिए
सन् सत्तावन स्यूं पैली ही,
जोत जगावण वाला हा । आजादी वाले दिवले री, वलती लो रा रखवाला हा॥
जा जगां-जगां छापा माऱ्या, सिरकार कंपनी धूर्जा ही। गोरां री जात हरी बहड़ी,
ईसा मरियम नै पूजै ही। वस्तुतः सन् १९६२ और १९६५ के विदेशी आक्रमणों के पहले राजस्थानी कवियों ने जो विड़दगान किया उसी के फलस्वरूप राजस्थान के अनेकों परमवीर, महावीर और वीर जवानों ने अपने प्राण न्यौछावर करके भारतमाता के भाल पर कंकम तिलक किया था। ___ हर्ष का विषय है कि स्व० कवि गिरिधारीसिंहजी का परिवार उनकी कविताओं को पुनः प्रकशित कर रहा है । सस्ते मूल्य में साफ सुथरे प्रकाशन और नयनाभिराम प्रस्तुति के लिए प्रकाशक बन्धु बधाई के पात्र हैं।
-परमेश्वर सोलंकी
२५.
तुलसी प्रसा
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