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________________ कायोत्सर्ग:प्रयोजन कायोत्सर्ग करने का उद्देश्य क्या है ? कायोत्सर्ग के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक व आध्यात्मिक स्तर पर अनेक फलित होते हैं। शास्त्रों में अनेक उद्देश्यों से कायोत्सर्ग करने का विधान प्राप्त होता है। दुःख क्षय के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है ।' गमनागमन में लगे पौधों की विशुद्धि के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है ।" उपरोक्त के साथ कर्मों की निर्जरा तथा संवर और तप की वृद्धि के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए । देवसिक आदि अतिचारों को जानने के लिए कायोत्सर्ग करते हैं ।१२ निःसंगत्व, निर्भयत्व, जीविताशा के त्याग के लिए व्युत्सर्ग करते हैं।" चिकित्सार्थ देवता के आह्वान के लिए कायोत्सर्ग का उल्लेख प्राप्त होता है ।" यात्रा आदि गमन के समय अमंगल के निवारणार्थ भी कायोत्सर्ग किया जाता है ।५ प्रतिमा निर्वहन एवं छिन्न-उपसम्पदा की प्राप्ति हेतु प्रस्थान करने से पूर्व कायोत्सर्ग का विधान प्राप्त होता है । प्राचीन सन्दर्भ के अतिरिक्त आधुनिक समय में अनेक नये सन्दर्भ जुड़ गये हैं । तनाव मुक्ति, क्षेत्र कार्य क्षमता का विकास, सृजनशीलता का विकास, मनोकायिक रोगों से मुक्ति, भेद-विज्ञान व आत्म-साक्षात्कार के लिए भी कायोत्सर्ग का अभ्यास किया जाता है। प्रक्रिया कायोत्सर्ग की अनेक प्रक्रियाएं प्राप्त होती हैं। है नई और भी प्रक्रियाओं का विकास किया जा सकता है। आवश्यक सूत्रों में कायोत्सर्ग की निम्न प्रक्रिया बताई गई हैं।" १. कायोत्सर्ग का प्रारम्भ संकल्प से होता है.-"मैं अविकृत आचरण के परिष्कार, प्रायश्चित, नि:शोधन और शल्य विमोचन द्वारा पाप कर्मों को नष्ट करने के लिए कायोत्सर्ग करता हूं।" २. इसका समापन कैसे होगा ? इसकी भी विधि इसी सूत्र में प्राप्त होती है। ___ अर्हत् भगवान् को नमस्कार कर इसे सम्पन्न किया जाता है। कायोत्सर्ग के मध्य क्या करणीय है ? इसकी भी स्पष्ट चर्चा मिलती हैकायोत्सर्ग में करणीय हैं-"अपने शरीर का त्याग ।" अपने शरीर का त्याग कैसे करेंगे ? शरीर को स्थिर कर, वाणी को विराम देकर व मन को ध्यान में लीन कर अपने शरीर का त्याग किया जाता है। क्या शरीर को पूरा स्थिर किया जा सकता है ? शरीर की स्वायत (अनैच्छिक) क्रियाएं उच्छ्वास, निःश्वास, खांसी, छींक, जम्हाई, डकार, अधोवायु, चक्कर, पित्तजनित मूर्छा, शारीरिक मूर्छा, शारीरिक अवयवों का और दृष्टि का सूक्ष्म संचालन आदि को छोड़कर ऐच्छिक क्रियाओं-हाथ-पांव आदि की प्रवृत्तियों का त्याग किया जाता है। १७८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524592
Book TitleTulsi Prajna 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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