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________________ सम्यक् होती है, लेकिन वह संयम धारण नहीं कर पाता है । इसीलिए उसे असंयत सम्यग्दृष्टि कहा जाता है । सम्यग्दृष्टि जीव तीन प्रकार के होते हैं- औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक । ये तीनों अवस्थायें मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियों ( दर्शन मोह की तीन और अनन्तानुबंधी चतुष्क) के प्रशम ( उपशम), क्षय या क्षयोपशम से प्राप्त होती हैं । इन प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक, क्षय से क्षायिक तथा क्षयोपशम से क्षायोपशमिक सम्यकदृष्टि होता है । औपशमिक सम्यकदृष्टि जीव जिस समय दर्शन मोह की प्रकृतियों का उपशम कर या दबाकर आगे बढ़ता है, उस समय उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है । इसकी तुलना ऐसे जल से की जाती है जिसका मल नीचे बैठ गया हो । यद्यपि ऐसा सम्यक्त्व वर्तमान अवस्था में शुद्ध होता है, परन्तु अशुद्ध होने की शीघ्र संभावना होती है । यह सम्यक्त्व चौथे गुणस्थान से प्रारंभ होकर ग्यारहवें गुणस्थान तक रहता है । क्षायिक सम्यक दृष्टि कर्मों का क्षय करने वाला जीव क्षायिक सम्यकदृष्टि होता है । उपर्युक्त सात प्रकृतियों के सर्वथा क्षय या विनाश से जीव क्षायिक सम्यकदृष्टि होता है । यह सम्यक्त्व आगे के सभी गुणस्थानों में स्थिार रहता है तथा कभी विनाश को प्राप्त नहीं होता है । क्षायोपमिक सम्यकदृष्टि जीव जब वासनाओं का आंशिक रूप से क्षय और आंशिक रूप से उपशम करके यथार्थता का बोध करता है, तो उस समय उसे क्षायोपशमिक सम्यक्दृष्टि कहा जाता है । इस सम्यक्त्व में मलिनता रहती है, अतः दमित वासनाओं के पुनः प्रकट होने की संभावना रहती है । क्षायोपशमिक सम्यकृदृष्टि जीव की स्थिति वृद्ध पुरुष जैसी होती है जो शिथिलतापूर्वक लकड़ी पकड़कर चलता है तथा वृद्ध के गिर जाने की संभावना रहती है । क्षायोपशमिक सम्यकदृष्टि जीव चतुर्थ असंयत गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्त गुणस्थान तक रहते हैं । इसके आगे की श्रेणियों में जीव का सम्यक्त्व क्षय अथवा उपशम में से एक श्रेणी को प्राप्त कर लेता है । ५. संयतासंयत गुणस्थान संयम धारण करने वाला संयत कहलाता है और अभ्यास करने की दशा में कुछ संयम और कुछ असंयम अर्थात् देशसंयम धारण करने वाले को संयतासंयत कहते हैं । अतः संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव त्रस जीवों की हिंसा से संयत होते हुए भी स्थावर जीवों की हिंसा से संयत नहीं होता है । इस गुणस्थान की प्राप्ति के लिए 'अप्रत्याख्यानावरणीय' नामक चार कषायों पर नियन्त्रण करना होता है । इन कषायों के दूर होने पर ही श्रावक देश आचरण करने में समर्थ होता है । इस गुणस्थान से आगे प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ का बन्ध नहीं होता है । २२० Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रशा www.jainelibrary.org
SR No.524592
Book TitleTulsi Prajna 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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