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________________ परमाणुरूप अति सूक्ष्म है, कुछ सूर्य आदि ग्रहों के समान दीर्घाकार है जिसे कठोपनिषद् -- अणोऽणीयान महतो महीयान कहता है । वैदिक दृष्टि इस सबको — इदम् सर्वम्, जगत्यां जगत् - यजु. (४० - १ ) मंत्र में कहता है । गीता इसे क्षरः सर्वाणि भूतानि कहती है । दर्शन इसे जड़ जगत् कहता है । वैदिक दृष्टि इन सबके तीन रूप मानती है--- स्थूल, सूक्ष्म और कारण । स्थूल सृष्टि आप हम सबके सामने है । सूक्ष्म सृष्टि अदृश्य है । यह परमाणु रूप अवस्था है । परमाणु को दर्शन व रसायनशास्त्र अदृश्य, अकाट्य पदार्थ के छोटे से छोटे कणों को कहता है जिसमें पदार्थ के गुण विद्यमान हों और रसायनिक प्रक्रिया में भाग लेते हों । परन्तु भौतिकी (Physics) ने इस परमाणु (atom) को तीन मूल कणों प्रटोन, न्यूट्रोन तथा इल्क ट्रोन में विखण्डित कर दिया है । अब पदार्थ परमाणु इन तीन सूक्ष्म कणों का संघात माना जाता है। सांख्य दर्शन परमाणु को सत्, रजस्, तमस् रूप कणों या गुणों का संघात कहता है । वैदिक दृष्टिकोण पदार्थ के परमाणुओं के इन तीन सूक्ष्म कणों सत्, रजस् व तमस् को कारण सृष्टि कहता है । इन तीनों की साम्यावस्था (Balanced state) को वैदिक दृष्टि प्रकृति, माया, अदिति आदि नामों से पुकारती है। प्रकृति ही सृष्टि की कारण अवस्था है । इसी का दूसरा नाम प्रलय अवस्था है । इस सूक्ष्म अवस्था के कण परमाणु (atom) की नाभि ( nucleus ) में प्रोटोन और न्यूट्रोन्स होते हैं । इस नाभिक की परिक्रमा इल्कट्रोन्स करते हैं जैसे हमारी पृथ्वी आदि ग्रह उपग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं । वैदिक दृष्टि का दूसरा पक्ष आस्तिक कोण है । यह सृष्टि में सृष्टि कर्ता, कृति कर्त्ता को देखता है। जैन दृष्टि में ऐसी कोई सृष्टि कर्त्ता, नियामक, नियन्ता, सर्वज्ञ सर्वव्यापी सत्ता नहीं है। जैन दृष्टि में सृष्टि सदा से ऐसी ही चली आ रही है तथा चलती रहेगी । सरसरी दृष्टि में यह धारणा वैज्ञानिक जड़त्व नियम (Law of Inertia) पर आधारित प्रतीत होती है। विज्ञान इस जड़त्व के नियम को इस प्रकार कहता है कि सृष्टि में कोई वस्तु जिस क्षितिज या गतिज किसी अवस्था में है, वह वस्तु अपनी उस अवस्था में बनी रहती है जब तक कोई बाहरी बल उसमें विक्षोभ उत्पन्न न करे । इस नियमानुसार सतही दृष्टि से सृष्टि अपनी इस अवस्था में बनी रहेगी । यह जैन दृष्टिकोण है । अतः सृष्टि शाश्वत प्रतीत होती है। सृष्टि के जड़त्व नियम के दूसरे भाग बाहि बल पर जैन दृष्टि नहीं पहुंची है । सृष्टि की हर क्रिया-प्रक्रिया में हर समय बुद्धि पूर्वक क्रमबद्ध व्यवस्था पर दृष्टि पड़ती है । आस्तिक मान्यता है कि सृष्टि में इस बुद्धि पूर्वक व्यवस्था में किसी सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सर्व नियन्ता, नियामक सत्ता के दर्शन हो रहे हैं । आध्यात्मिक कोण से इस सर्वव्यापी बाहि बल को परमात्मा माना गया है । ऋतं च सत्यं च अभिद्धावत् तथै उपजायते (ऋ. १०--- - १९० ) मंत्र की सृष्टि ऋतं सत्यं रूप है । जिस तत्व में अस्तित्व है, सत्ता, आकार आकृति परिमाण मात्रा है वह सत्य कहलाती है । जगत् के सब भौतिक पदार्थ सत्य हैं । प्रत्येक सत्य वस्तु में शक्ति, ऊर्जा, तेज, अग्नि होती है । सत्य और ऋत् का खंड २३, अंक २ २२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524592
Book TitleTulsi Prajna 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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