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________________ इस छन्द (शार्दल विक्रीडितम् ) में कवि ने अपना नामोल्लेख किया है और भगवान महावीर को मोह के नाशकर्ता, भव्य जीव रूपी कमल के विकास कर्ता और दोष समूह के नाशकर्ता बताकर उनकी स्तुति की है ताकि कवि को भी कुशलानुबन्धी पुण्य की प्राप्ति हो सके । इस प्रकार यह कृति पूर्ण है और प्रतिलिपिकर्ता के कथनानुसार भी श्री जिनवल्लभ सूरि की ही रचना है। • प्रस्तुत प्रतिलिपिकर्ता पं० अभय माणिक्य मुनि ने महावीर-चरित्र के मूल पाठ के साथ एक गुजराती टीका की भी प्रतिलिपि की है जो अलग से प्रकाशित की जा रही है । यह गुजराती टीका प्रतिलिपिकार की कृति नहीं है-ऐसाउसके द्वारा पत्रक-३ पर दिये अनुपूर्ति संकेतों से ज्ञात होता है । • इस चरित्र काव्य का निर्माण काल क्या है ? इस संबंध में कृतिकार और गुजराती टीकाकार दोनों ही मौन हैं। कृतिकार ने संक्षेप नय से यह चरित्र काव्य लिखा है जिसमें भगवान् के २० पूर्वभवों का वर्णन है। दीक्षावाद के उत्सर्ग और कष्टों का भी नामोल्लेख है और भगवान् के 'वर्धमान' नाम के संबंध में गर्भस्थ शिशु द्वारा पर्वत को प्रकंपित कर अपना सामर्थ्य प्रकट किया गया-ऐसा विवरण है । कृतिकार ने रानी त्रिशला को चेटक की बहिन कहा है-चेडगनि व भगणीए तिसला देवी इ किन्तु गुजराती टीकाकार-जे सिद्धार्थ राजा तेहनी भार्या चेडाराय नी बेटी त्रिसला-उसे चेटक की पुत्री कहता है। • इसी प्रकार इस कृति में (गाथा नं० ३३ में) भगवान् द्वारा रात्रि में ३२ योजन दूर पावा नगरी में जाकर वहां चतुर्विध तीर्थ स्थापना का उल्लेख है जिसे गुजराती टीकाकार ने ४८ कोश की दूरी बताया है। भाषा की दृष्टि से भी श्लोक संख्या-८ में आये पद-वीसयराओ में वीस और सयराओ के दो सकारों में एक ही रह गया है। श्लोक संख्या १०, १४ और २२ में गामे के स्थान पर ग्रामे लिखा है। इसी प्रकार श्लोक संख्या ३० का दिवसुट्ठ द्वसया–पद तथा श्लोक-४४ का मोहंधविद्वंस णं--पद भी चिन्तनीय है । ० फिर भी जैसा कि कवि ने स्वयं कहा है - चरियमिह समूलं किंचि कित्तेमि थूलं-कि चरित्र समूल है किन्तु वह उसे स्थूल रूप में कह रहे हैं। इस स्थूल रूप में भी कवि ने अनेक तथ्यपूर्ण बातें कहीं है १. भगवान महावीर ७२ वर्ष की वय में कार्तिक अमावस्या को स्वाति नक्षत्र में मुक्त हुए। उस समय भगवान् पार्श्वनाथ को मुक्त हुए २५० वर्ष बीत चुके थे। २. भगवान् महावीर को जम्भि का नगरी में ऋजुबालिका नदी के किनारे शालिवृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ल दशमी को केवलज्ञान हुआ। खम २३, अंक २ २५५ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.524592
Book TitleTulsi Prajna 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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