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उपरिगत विवेचन के आलोक में रामगिरि की खोज की जा सकती है। यहां सबसे बड़ी बाधा यही है कि कालिदास ने "रघुवंश" में इसका उल्लेख नहीं किया ।
वहां तो रामकथा इतनी संक्षिप्त है कि सीता-विवाह (एकादश सर्ग) के पश्चात् की तमाम घटनाएं रावण-वध वाले द्वादश सर्ग में समेट दी गयी हैं। तब कालिदास ने 'मेघदूत' में रामगिरि की पहचान के लिए केवल दो संक्षिप्त कथन-- प्रथम श्लोक में "जनकतनयास्नानोदकेषु" तथा बारहवें श्लोक में "रघुपतिपदैरङ्कितं मेखलासु"-कर उलझन उत्पन्न कर दी है। अनुकूल दिशा में वायु के बहने की बात भी कही गयी है--
"मन्दं मन्दं नुदति पवनश्चानुकुलो यथा त्वां।” (१/९) __ अनुकूल पवन तथा अलका तक संबद्ध स्थलों की एक सीधी रेखा में अवस्थितिइसी को सर्वातिशायी आधार मानकर रामगिरि को नागपुर के समीपस्थ आधुनिक रामटेक की पहाड़ी निरूपित किया गया है ।
इस पृष्ठभूमि में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा उल्लिखित "रामर्शल" विचारणीय बन जाता है। 'मानस' के अयोध्याकाण्ड के २३६वें दोहे में राम के शैल को देखकर भरत के हृदय में अतिशय प्रेम के उपप्लाव का कथन तुलसी ने किया है
"राम सैल सोभा निरखि भरत हृदयं अति प्रेम ।
तापस तप फल चार जिमि सुखी सिराने नेमु ॥" ___ यहां चित्रकूट का वर्णन रामायण के चित्रकूट-वर्णन से घनिष्ट साम्य रखता है,
यथा
"झरना झरहिं मत्तगज गाजहिं । मनहुँ निसान विविध विधि बाहिं ॥"
-~~-इत्यादि।
तब क्या "पूर्वमेघ" का रामगिरि "मानस" का "रामशैल" नहीं समझा जा सकता ? प्रश्न को यों-ही टाला नहीं जा सकता। "पूर्वमेघ' का दूसरा श्लोक यहां निभालनीय है
"आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिस्टसानुम ।
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ।" -'आषाढ़ (शुक्लपक्ष) के पहले दिन विरह-कातर यक्ष ने पहाड़ की चोटी पर झुके हुए मेघ को देखा तो जान पड़ा जैसे कोई हाथी मिट्टी का टीला गिराने की क्रीडा कर रहा हो।
इस उपमा पर आप विचार करें और रामायण में प्राप्त चित्रकूट की शोभावर्णन के संदर्भ में यह उपमा देखें-"शैलःस्रवन्मदः इव द्विपः।" क्या ऐसा समझना *[मेघदूत के कवि कालिदास एवं रघुवंश के कवि कालिदास दो पृथक्-पृथक् व्यक्ति हैं। ---संपादक] खण्ड २३, अंक २
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