________________
महावीर चरितं
दुरिय रय समीरं मोहपंकोहनीरं, पणमिय जिणवीरं निज्जियाणंग वीरं । भवभडपडिकूलं तस्स मुक्खाणुकूलं,
चरियमिह समूलं किंचि कित्तेमि थूलं ॥१॥
जो पापरूपी रज को दूर करने के लिए वायु-तुल्य और मोहरूपी कीचड़ को धोने के लिए जल-सदृश है, उस महावीर ने कामरूपी सुभट को जीतकर जिनेश्वर का पद पा लिया है। मैं उसे प्रणाम करता हूं और समूल चरित्र को जो संसारी सुभट के लिए प्रतिकूल व मुमुक्षु जन के लिए अनुकूल है, उस चरित्र को मैं स्थूल रूप में कहता
किर गामचितगभवे, सम्मत्तं लहिय रहिय सोहम्मे ।
चवियं भविउं मिरिई, लइउं चइउं च चरणभरं ॥२॥ ग्राम चिन्तक के भव में भगवान महावीर के जीव को सम्यकत्व की प्राप्ति हुई जिससे उन्हें सौधर्म लोक मिला। वहां से च्युत होकर वे मरीचि के रूप में जन्में । उन्होंने चारित्र को ग्रहण किया और फिर उसे छोड़ दिया।
उस्सुत्त लेसदेसणा, कय सागर कोडि कोडि सागर भवभवमणो । तह पढम, वासुदेवो, भविय तिविट्ठ जिणु दिट्ठो ॥३॥
उत्सूत्र की लेशमात्र प्ररूपणा करके मरीचि ने अपना भवभ्रमण कोडाकोड़ सागर परिमित कर लिया। यह देखकर जिन भगवान् ने कहा कि यह जीव त्रिपृष्ठ नामक प्रथम वासुदेव होगा।
संसरिय भवे जाओ, अवर विदेहमि मूयनयरीए ।
धारिणि धणंजयसुओ, पियमित्तो नाम चक्कहरो ॥४॥
सांसारिक भव में भ्रमण करके मरीचि का जीव मूकानगरी में प्रियमित्र चक्रवर्ती के रूप में पैदा हुआ। उसकी माता धारिणी और पिता धनञ्जय थे।
तुडियंगाऊ पालिय, पव्वज्जं वास कोडिमुववन्नो । महसुक्के परमाऊ, सव्वद्वेवरविमाणंमि ॥५॥
अपनी आयुष्य पूर्ण कर कोटि वास प्रव्रज्या पालन से वह सर्वार्थ सिद्ध विमान के महाशुक्र लोक में पैदा हुआ।
बण्ड २३, अंक २
२५७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org