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तो जंबूदीव भरहे, भहाजिय सत्तरायअंगरुहो ।
छत्तगाइ पुरीए, अहेसि तं नंदणो राया ॥६॥ - वहां से च्यवन कर वह जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में छत्रानगरी के राजा जितशत्रु की रानी भद्रा के पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ और नंद नाम का राजा बना ।
चउबीस वास लक्खे, वसिय गिहे सुगुरुपोट्टिलसमीवे । निक्खे मियवासलखं, खविय सया मासखवणेहिं ।।७।।
चौबीस लाख वास पर्यन्त गहवास करके नन्द राजा ने पोटिलाचार्य के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर एक लाख वास तक मास क्षपण तपस्या की।
असयं सेविय वोसं, ठाणे अज्जिणिय तित्थयरनामं । वीसय राओ जाओ, पाणय पुष्पोत्तरे देवो ॥६॥
बीस स्थानों का आसेवन करके उसने तीर्थंकर नामकर्म का अर्जन किया और बीस बार जन्म-मृत्यु को जीतकर पुष्पोत्तर विमान के प्राणत लोक में देव पद पाया।
छम्मासवास साऊ, पुन्नखए मोहमिति इयर सरा ।
आसन्नपुन्नपुंजा, तित्थयर सुरा उ दिप्पंति ॥९॥
छह मास आयुष्य रहने पर देवों का पुण्य क्षीण होता है तो दूसरे देव उनके प्रति मोह करते हैं किन्तु तीर्थकर होने वाले देव का पुण्य क्षीण नहीं होता और वह दीप्तिमान बना रहता है।
माहणकुंडग्रामे, अवयरिओ सियासाढछट्ठीए।
विप्पो सहदत्तगिहे, देवाणं दाइ उमरंमि ॥१०॥ वह देव आषाढ सुदी छ8 के दिन ब्राह्मणकुंड ग्राम में ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवनन्दा के उदर में आया।
अहबासीइदिणंते, चउदस सुमिणेहि इंतजंतेहि ।
हत्थुत्तर कय कल्लाण, पणग अच्छरिय चरिय तओ ॥११॥ वियासी दिन बीत जाने पर देवनन्दा ने चवदह स्वप्नों को जाते हुए देखा । हस्तोत्तर नक्षत्र में उसके पांच कल्याणक हुए। इस प्रकार उसका चरित्र आश्चर्यजनक है।
जणवायनायखत्तिय, पसिद्द सिद्धत्थ पत्थिव पयाए ।
चेडगनिवभगणीए, तिसलादेवीइ कुच्छीए ।।१२।। क्षत्रिय जाति प्रसिद्ध थी। राजा सिद्धार्थ क्षत्रिय जाति के थे। उनकी पत्नी रानी त्रिशला चेटक राजा की बहिन थी और उसकी कुक्षी पवित्र थी।
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तुलसी प्रज्ञा.
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