________________
गुहासमरिणो गन्धान् नानापुष्पभवान् बहून् ।
घ्राणतर्पणमभ्येत्य के नरं न प्रहर्षयेत् ॥ xxx
शिलाः शैलस्य शोभन्ते विशालाः शतशोऽभितः । बहुला बहुसैर्व नीलपीतसितारूणः ॥"
-(अयोध्या० काण्ड, ९४।१२-१४; २०) —'इन किन्नरों के खङ्ग पेड़ों की डालियों पर लटक रहे हैं। इधर विद्याधरों की स्त्रियों के मनोरम क्रीड़ा-स्थलों तथा वक्षों की शाखाओं पर रखे हुए उनके सुन्दर वस्त्रों की ओर भी देखो। इसके ऊपर कहीं-ऊंचाई से झरने गिर रहे हैं; कहीं जमीन के भीतर से सोते निकल रहे हैं और कहीं-कहीं छोटे-छोटे स्रोत प्रवाहित हो रहे हैं। इन सबके द्वारा यह पर्वत मद की धारा बहाने वाले हाथी के समान शोभा पा रहा है । गुफाओं से निकली वायु नाना प्रकार के पुष्पों की प्रचुर गंध लेकर नासिका को तृप्त करती हुई किसका हर्ष नहीं बढ़ाती।x x x चारों ओर इस पर्वत की सैकड़ों शिलाएं शोभित हो रही हैं जो नीले, पीले, सफेद, लाल इत्यादि विविध रंगों से युक्त अनेकविध दिखायी पड़ रही हैं।'
९५वें सर्ग में श्रीराम ने सीता से मन्दाकिनी नदी की शोभा का वर्णन करते हुए यह बताया है कि इसके स्वच्छ जल में सिद्धजन तथा तपःपूत सिद्ध महात्मा लोग अवगाहन करते हैं और उसी क्रम में सीता से कहा है, "चलो, मेरे साथ तुम भी इसमें स्नान करो। x x x x x एक सखी दूसरी सखी के साथ जैसे क्रीडा करती है, वैसे ही मन्दाकिनी में उतरकर, इसके लाल-श्वेत कमलों को जल में डुबोती हुई इसमें स्नान-विहार करो
"x x x x x विगाहस्व मया सह ॥ सखीवच्च विगाहस्व सीते मन्दाकिनीनदीम् । कमलान्यवमज्जन्ती पुष्कराणि च माभिनि ॥"
-(वही, ९५।१३-१४) इसी सातत्य में श्रीराम ने मन्दाकिनी के जल को हाथियों, सिंहों तथा वानरों द्वारा मथित करने तथा पीने का उल्लेख किया है
___ "इमां हि रम्यां गजयूथलोडतां निपीततोयां राजसिंहवानरैः ।"
राम ने सीता के साथ मन्दाकिनी में तीनों काल स्नान कर, मधुर फलमूल का आहार करते हुए, अयोध्या नहीं लौटने की कामना भी व्यक्त की है । (९५।१७) ।
इन उद्धरणों के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि चित्रकूट के प्रति श्रीराम के हृदय में परम अनुराग था और मन्दाकिनी में वे सीता-सहित नित्य स्नान किया करते थे। वनवास की अवधि में मुनि सुतीक्ष्ण के आश्रम के अतिरिक्त स्वल्पकाल व्यतीत करने का उनका प्रमुख स्थान गोदावरीतट-स्थित पंचवटी थी, जहां वे महर्षि अगस्त्य के आदेश से चले गये थे। पंचवटी के वर्णन में वह तन्मयता लक्षित नहीं होती जो चित्रकूट के वर्णन में।
२३८
तुलसीप्रशा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org