Book Title: Tulsi Prajna 1997 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 71
________________ शाश्वत् संबंध है । ये सृष्टि में कभी एक दूसरे से अलग नहीं होते हैं । सत्य वस्तु नाना रूपों आकारों मात्राओं में पायी जाती है । सत्य में ऋत् सदा निहित रहता है । विज्ञान इसे ही (matter and energy) कहता है जो शाश्वत् है वेद कहता है कि सत्य ऋत् के साथ शिव (सुरक्षित) है। बिना ऋत् के सत्य शव है, नष्टप्राय: है। विभिन्नता सत्य में नाना ऋत् रूप होते हैं। वह कठोपनिषद सूत्र (२-२-९) अग्निरथको भुवनं प्रविष्टो रुपं रुपं प्रतिरूपो बभूव ॥ लम्बे चौड़े गोल छोटे बड़े आकार आकृति वाले पदार्थों में अग्नि-ऊर्जा व्यापक होकर तदाकार दिखाई देती है और उससे पृथक भी है। विज्ञान इस ऊर्जा शक्ति के मुख्य दो रूप स्थितिज व गतिज (Potential and kinetic) कहता है। महाशय आइन्सटीन ने इस ऋत् सत्य (matter and energy) के सम्बन्ध को E=mc. समीकरण से प्रदर्शित किया है । m किसी कण की मात्रा, जो प्रकाश वेग C से गतिशील है तो वह ऊर्जा E के बराबर होगा । जब समस्त दृश्य सृष्टि प्रलयावस्था में होती है तो सत, रजस्, तमस सबकी साम्यावस्था (Balanced state) में परमात्मा के आश्रय में सुप्त पड़ी होती है कोई हलचल नहीं होती है जैसा यजु. (३२-८) मंत्र कहता है-यत्र विश्वं भवत्येकनीडम् कि जैसे पक्षी दिन भर अपने दाना-पानी के लिए मारा मारा फिरता है तो संध्या समय अपने घोंसले में विश्राम पाता है। इस प्रकार सृष्टि के पश्चात् सृष्टि प्रलयावस्था में परमात्मा के आश्रय में सुप्त पड़ी रहती है। उस अवस्था में कोई दृश्यमान पदार्थ नहीं होता है। केवल कारण रूप में ऊर्जा ही ऊर्जा (स्थितिज-Potential energy) होती है। क्योंकि सुप्त अवस्था है, गतिज ऊर्जा नहीं होती है। यही गति हीन अवस्था प्रलयावस्था है। सृष्टि काल में सत् और ऋत दोनों का जोड़ा होता है । इस ऋत् व सत्य को प्रश्नोपनिषद् रयि और प्राण कहता है । इसी स्तर से प्रश्नोपनिषद् दृश्य सृष्टि की उत्पत्ति की व्याख्या करता है। विज्ञान और वैदिक दर्शन दोनों मानते हैं कि स्थूल सृष्टि का प्रथम रूप वायु थी। जो अन्तरिक्ष में समुद्रोणवः अरीता हुआ वायु कणों का समुद्र सा था जो तीव्र गति से घूर्णन कर रहा था। घूर्णन के कारण कणों में घर्षण होने से विशाल ताप उत्पन्न हो गया तो सब गैस पुंज प्रज्ज्वलित गैसों का गोला हो गया जिसे वेद हिरण्यगर्भ सूर्य कहता है । इस गैसीय ब्रह्माण्ड से सौर मण्डल के ग्रह उपग्रह शनैः-शनैः उत्पन्न हुए तो यह हिरण्यगर्भ सूर्य छोटा होता गया। आज भी वैदिक ज्योतिष बता रही है कि सूर्य में माठर, कपिल और दण्ड नामक तीन ग्रह बन रहे हैं। इनके सूर्य से पृथक होने पर सूर्य का अस्तित्व ही नहीं रहेगा। जिससे सौर मण्डल का सन्तुलन नष्ट हो जाएगा और सब परस्पर टकरा कर नष्ट हो जायेंगे। प्रलय हो जाएगा जैसे इस कल्प की समाप्ति पर होना है। इसीलिए-सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च कि सूर्य सबका आत्मा है। यह सूर्य हो-येन चौरपा पृथ्वी च बढ़ा-सबको अन्तरिक्ष में दृढ़ता से पकड़े हुए था। इसीलिए परमात्मा का एक नाम सूर्य भी है। जड़त्व के नियम का दूसरा भाग बाहि बल ही अध्यात्मिक दृष्टि से, आस्तिक दृष्टि से परमात्मा कहा है। १२८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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