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जैन दृष्टि में ऐसी कोई सर्वश सर्वव्यापक सत्ता नहीं है । ऐसा ही आस्तिक संकेत शायर देता है
वह कौन है जो जरे जमीं इसे गुदगुदाता है।
कि हर कली मुस्कराती हुई निकलती है ॥ जड़ कभी कर्ता नहीं होता। दर्शन या विज्ञान चेतन को ही स्वतंत्र कर्ता मानते हैं जिसे ऋ. मंत्र (१-१६४-४६)-एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति कहता है कि विद्वान् जन जिसे परमात्मा, ब्रह्मा, God, खुदा, स्वयंभू आदि नामों से अपने देश काल संस्कृति पर्यावरण के अनुसार एक मानते हुए बहु नामों से पुकारते हैं। घड़ी को देख कर उसके बनाने वाले का ध्यान स्वयं आ जाता है। घड़ी बनाने वाले कर्ता या घड़ी बनने के नियमों की तरफ बलात् ही ध्यान जाता है। घड़ी के बनाने व चलने के कुछ नियम हैं तथा कोई कर्ता है। क्या घड़ी आपकी मेज पर, आपकी कलाई पर, आपके कमरे की दीवार पर, क्या सदा से लगी आ रही है। शिशु शकुन्तला को मेनका द्वारा ऋषि विश्वामित्र को सौंपने का चित्र, क्या प्रसिद्ध चित्रकार रवि वर्मा की याद ताजा नहीं करता है । क्या रंग-बिरंगे ब्रुश कहीं से कूद-कूद कर चित्र बना गए हैं। जहां कृति है वहां कर्ता है। सूर्य चन्द्रमा नक्षत्र आदि महान् घड़ियां क्या उसके कर्ता परमात्मा की ओर नहीं ले जाती है? दर्शन, उपनिषद् आदि सब उसी की शरण में जाने की प्रेरणा देते हैं।
कोई मानव चोरी आदि पाप कर्म कर क्या अपने आप जेल जाता है ? भेजा जाता है । कोई भेजने वाला है, नियामक है, नियन्ता है, कर्मफल प्रदाता है जो हर जीव को उसके कर्मानुसार नाना योनियों में जन्म देता है। जिसे योग दर्शन सूत्र
—ईश्वरः कारणं पुरुष कर्मफल्य वर्शनम् कहता है कि ईश्वर जीव का कर्मफल प्रदाता है। इसी न्याय व्यवस्था को देखकर शायर कहता है
मरकर भी कभी फटी है वे हयात ।
मगर फर्क इतना है कि जज़ीर बदल जाती है । जैन दृष्टि में पुद्गल जड़ परमाणु हैं। कर्म पौदलिक द्रव्य रूप है। कर्म जड़ द्रव्य है । पुराने जैन ग्रन्थों में आत्मा शब्द प्राप्त नहीं है । जीव शन्द ही काम में आता था । सदेह आत्मा को जीव कहते हैं। आत्मा+पुद्गल =जीव जैन दृष्टि है। वैदिक दृष्टि भी ऐसी ही है आत्मा पर पंच भौतिक सृष्टि अर्थात् भौतिक स्थूल शरीर का जब प्रध्यारोपण होता है तो आत्मा+शरीर-जीव कहलाता है। आत्मा अमूर्त चेतन है कर्म पुद्गल के संश्लेषण से जीव कहलाता है। इसे बन्ध कहते हैं। इन्द्रियां व इनके विषय मूर्तमान हैं । जीव अपमे मन, वचन, काय प्रवृत्तियों से जड़ पुद्गलों को आकर्षित करता है। यह प्रवृत्तियां बन्ध जीव में होती हैं। सकर्म कर्ता ही बन्ध है। यह बन्ध किसी निश्चित अवधि के लिए होता है । आत्मा के बद्ध कर्मों का नाश मोक्ष है। कृत्सन् कर्म क्षयो मोक्षः-तत्वार्थ सूत्र (१०-३) कहता है। जैन दृष्टि आत्मा को शरीर परिमाण का मानता है । चींटी की योनि में संकुचित होकर तथा जब हाथी की योनि में जाती है तो हाथी के शरीर परिणाम की हो जाती है, ताकि हर सूक्ष्म अंग बर २३, षक २
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