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पहले वृहत् कल्प प्रलय था । प्रलय की समाप्ति क्षण वर्तमान श्वेत वाराह कल्प प्रारम्भ हुआ। इसी क्षण को ज्योतिष हिमाद्रि ग्रन्थ अथवा ज्योतिषाचार्य भास्कर कृत सिद्धान्त शिरोमणि ग्रन्थ में चैत्र शुक्ला प्रतिपदा रविवार सूर्योदय क्षण कहा है परमात्मा ने-- सोऽकामयत । बहुस्यां प्रजायेति---श्वेता. उप. (२-६) सूत्र अनुसार मैं बहुत होऊं, बहुत प्रजावान होऊ - की कामना की, तत् ईक्षत, तत् तपः तप्ता। उस परमात्मा ने सुप्त पड़ी प्रकृति में ज्ञान पूर्वक प्रेरणा दी तो सत्, रजस् वा तमस् की साम्यावस्था प्रकृति में विक्षोभ उत्पन्न हुआ और इन कणों में परस्पर आकर्षण विकर्षण से अन्योन्य मिथुनीकरण की प्रक्रिया होने लगी। जो परमात्मा के तप नियंत्रण में चलती रही । कुछ काल पश्चात् अपेक्षाकृत कुछ संघनन हुआ। इस सूक्ष्म अवस्था को महत्तत्व सांख्य सूत्र (१-६१) कहता है। इसका जो भाग मानव शरीर में आया उसे बुद्धि कहते हैं। सृष्टि आरम्भ से इस महत्तत्व अवस्था तक की अवधि को अनिर्देश्य कहा गया है । इस संघनन प्रक्रिया के कुछ और बाद जो अवस्था हुई उसे अहंकार कहा है । इस क्रम में प्रथम स्थूल द्वयणुक रूप वायु उत्पन्न हुई। इस अवधि की भी कहीं चर्चा नहीं है । इस स्थूल वायु तक के समय को सूर्य सिद्धान्त (१-२४) ४७४०० दिव्य वर्ष देता है । इसके पश्चात् सूर्य, ग्रह आदि की उत्पत्ति हुई। सातवें मनु में अमैथुनी मानब सृष्टि का जन्म हुआ जिसका काल निर्धारण संकल्प सूत्र १९६०८५३०९७ वर्ष करता है । इसे ही सृष्टि संवत् कहते हैं। द्वथणुक वायु प्रथम स्थूल अवस्था थी। यह गैसीय अवस्था थी जिसमें गैसीय दाव (Pressure) सब दिशाओं में सम होता है। इस कारण खगोल सृष्टि सब गोलाकार थी। पृथ्वी भी गोलाकार थी। पृथ्वी कक्षा भी वृत्ताकार थी। इसी आधार पर ऋ. मंत्र (१-१६४-४८) पृथ्वी व पृथ्वी कक्षा वृत्ताकार को बैलगाड़ी के लकड़ी के पहिए के समान कहता है जिसमें १२ राशियों रूपी १२ पुठी (प्रधयः) १२ मास, ३६० अरे समान ३६० अहोरात्र होते हैं। ____ अथर्ववेद मंत्र ९-९-८ कहता है कि पहले पृथ्वी सूर्य का अंग थी। फिर शनैःशनैः नियमानुसार सूर्य से पृथक् हुई फिर भी सूर्य गुरुत्वाकर्षण बल से बन्धी सौर परिक्रमा कर रही है।
पृथक होते समय पृथ्वी भी सूर्य समान प्रज्ज्वलित गैसों का पुंज थी। बृहदा. उप. (३-७-२) सूत्र कहता है कि पथ्वी आदि आकाशीय पिण्डों को उनकी अक्ष (axis) पर अदृश्य प्रवाह वायु घुमाती है। दूसरी अदृश्य परिणाह वायु पृथ्वी आदि को उनकी कक्षा में परिक्रमा कराती है। इस गैसीय अवस्था से पृथ्वी शन:-शनैः ठण्डी हुई तो संघनन के कारण गुरुत्वाकर्षण बल अधिक होता गया। परन्तु पृथ्वी की तीव्र घूर्णन गति के कारण अभिकेन्द्रीय बल और अधिक बढ़ गया तो पृथ्वी अण्डाकार होती गई।
विज्ञानशाला में मैं विद्यार्थियों को यह परिवर्तन एक सरल यंत्र से दिखाता था। यंत्र की गति के साथ वृत्ताकार से अण्डाकार होने का सुन्दर दृश्य होता था। इसी दशा को ऋग्वेद मंत्र (१-३७-८) तथा वृहदा. उप. (३-७-२) कहते हैं कि जैसे वृद्धावस्था में गृहस्थी के भार से सन्तानपति बृद्ध खण्ड २३, अंक २
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