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परिशिष्ट
चीदह गुणस्थान
१. मिथ्यात्व गुणस्थान
मिथ्यात्व कर्म के उदय से जिन जीवों को मिथ्या श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है ऐसे जीवों को मिथ्यादृष्टि जीव कहा जाता है। ऐसे जीव आत्म स्वभाव विमुख रहते हैं, तथा देह और आत्मा को एक समझते हैं । मिथ्यादृष्टि जीव अनेक प्रकार के कर्मों से बंधे हुए संसार में परिभ्रमण करता रहता है । मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती जीव दर्शन मोहनीय कर्म प्रकृतियों के प्रगाढ़ बंधन में बंधा होने के कारण तत्वार्थ श्रद्धान से विमुख रहता है ।
२. सासादन गुणस्थान
सासादन गुणस्थान, मिथ्यात्व गुणस्थान की अपेक्षा विकास कहा जा सकता है । परन्तु यथार्थ में यह आत्मा की पतनोन्मुख अवस्था का द्योतक है । कोई भी जीव प्रथम गुणस्थान से विकास करके यहां नहीं आता, बल्कि ऊपर की विकासात्मक श्रेणियों से पतित होकर पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त होने से पूर्व इस गुणस्थान को प्राप्त होता है । तीव्र कषाय जागृत होना ही जीव के पतन का कारण है । इस गुणस्थान में गिरने वाले जीव का सम्यक्त्व दृढ़ नहीं होता है ।
३. मिश्र गुणस्थान
सम्यक् और मिथ्या मिश्रित श्रद्धा और ज्ञान को धारणा करने की अवस्था विशेष ही सम्यग् - मिथ्यात्व या मिश्र गुणस्थान कहलाती है । यह एक अनिश्चय की अवस्था है जिसमें जोव सत्य और असत्य के मध्य भूलता रहता है । वह न तो सत्य की ओर उन्मुख हो पाता है और न ही असत्य को स्वीकार कर पाता है । सम्यक् बोध को प्राप्त चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीवों में जब सम्यक् बोध के प्रति सशय उत्पन्न हो जाता है, उसी समय वे पतित होकर इस अनिश्चय की अवस्था को प्राप्त होते हैं । प्रथम गुणस्थानवर्ती जीव जब सम्यक् बोध की अवस्था विशेष की ओर उन्मुख होता है, उस समय भी मिथ्यात्व को त्यागने और सम्यक्त्व को ग्रहण करने से पहले जीव क्षणभर के लिए इस अनिश्चयात्मक अवस्था को प्राप्त होता है। इस प्रकार इस गुणस्थान से जीव पहले या चौथे गुणस्थान में ही जा सकता है । यह गुणस्थान बहुत कम समय के लिए होता है तथा इसमें मरण नहीं होता है । मोहनीय कर्म की दर्शन मोह की अवस्था में ही मिश्र भावों का उदय होता है जिसे मिश्र मोहनीय कर्म कहते हैं ।
४. असंयत सम्यग्दृष्टि
पहले या तीसरे गुणस्थानवर्ती जीव जिस समय सम्यक्त्व की ओर उन्मुख होता है तो वह इस चतुर्थ गुणस्थान में आ जाता है । इस गुणस्थान वाले जीव की श्रद्धा
खण्ड २३, अंक २
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