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९. अनिवृत्तिकरण बादर साम्पराय गुणस्थान
जिन परिणामों की निवृत्ति नहीं होती उन्हें अनिवृत्ति तथा स्थूल कषायों की बादर साम्पराय कहते हैं । इस प्रकार अनिवृत्ति रूप स्थूल कषायों को अनिवृत्ति बादर साम्पराय कहते हैं । इस गुणस्थान वाले जीब के तीनों प्रकार के भेद (स्त्री, पुरुष और नपुंसक) तथा क्रोध, मान, माया और स्थूल लोभ का पूर्णरूपेण क्षय या उपशम हो जाता है । इस गुणस्थान के आगे सूक्ष्म लोभ को छोड़कर संज्वलन कषायों तथा भेद का बंध नहीं होता है ।
१०. सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान
इस गुणस्थान की प्राप्ति चारित्र मोह की अट्ठाईस कर्म प्रकृतियों में से सत्ताईस के क्षय अथवा उपशम से होती है । एक मात्र सूक्ष्म रूप से संज्वलन लोभ शेष रह जाता है। इस गुणस्थान के आगे पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पांच अन्तराय, यशःकीति और उच्च गोत्र इन सोलह प्रकृतियों का बंध नहीं होता है । इस गुणस्थान तक वेदनीय कर्म की साता प्रकृति को छोड़कर शेष सभी की बंध व्युच्छित्ति हो जाती है । इस गुणस्थान से जीव ग्यारहवें या बारहवें गुणस्थान में से एक में आरोहण कर सकता है, या फिर नोवे गुणस्थान में गिर सकता है। ११. उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान
जिन जीवों के कषाय उपशांत हो गए है और राग विनष्ट हो गया है, परन्तु ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मों के सूक्ष्म आवरण से जो आवत्त हैं, वे जीव उपशांत कषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान वर्ती कहे जाते हैं । अतः इस गुणस्थान में केवल उपशांत कषाय वाला जीव ही आरोहण करता है तथा अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक रहने के बाद पुनः नीचे गिर जाता है । १२. क्षीण कषाय वीतराग छमस्थ गुणस्थान
क्षपक श्रेणी वाला जीव ग्यारहवें गुणस्थान में न जाकर दसवें से सीधे बारहवें गुणस्थान में आता है । सबसे प्रबल माने जाने वाला मोहनीय कर्म का आवरण इस गुणस्थान में पूर्णतया नष्ट हो जाता है । परन्तु ज्ञान और दर्शन के किंचित् मात्र आवरण शेष रह जाते हैं इस गुणस्थान में आकर जीव फिर नीचे नहीं गिरता है। यह चारित्र की उच्चतम अवस्था है ।
१३. सयोग केवली गुणस्थान
इस गुणस्थान में जीव के चारों घातिया कर्म नष्ट हो जाते हैं । कर्म बंध के पांच कारणों (मिथ्यात्व, अबिरति, प्रमाद, कषाय तथा योग) में से योग को छोड़कर शेष चार कारण भी नष्ट हो जाते हैं तथा केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाती है । योग के कारण इस गुणस्थानवी जीव को सयोग केवली कहा जाता है। २२२
तुलसी प्रज्ञा
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