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गुणस्थान तथा उनके आरोहण-अवरोहण का क्रम
अनिलकुमार जैन
गुणस्थान
जैन धर्मानुसार जीवों के संसार में परिभ्रमण के मुख्य कारण दर्शन मोह, चारित्र तथा योग हैं । साधना (मोक्ष) के लक्ष्य का बोध न होने देने वाली शक्ति को दर्शन-मोह कहते हैं । साधना के लक्ष्य का बोध होते हुए भी जिस शक्ति के कारण स्वरूपाचरण नहीं हो पाता है, उसे चारित्र मोह कहते हैं । तथा मन, वचन और काय की प्रवृत्ति ( हलन चलन क्रिया) को योग कहते हैं । इन तीनों के न्यूनाधिक होते रहने से आत्मा के भावों में भी परिवर्तन होता रहता है । इन्हीं भावों की स्थिति को जैन धर्म में गुणस्थान द्वारा समझाया गया है । गुणस्थान का अर्थ है - आत्मिक ( आध्यात्मिक) गुणों के हिसाब से जीव का स्तर (स्थान) । गुणस्थान को निम्न प्रकार से पारिभाषित किया गया है
' दर्शन मोह, चारित्र मोह तथा योग ( मन, वचन तथा काय की प्रवृत्ति) के निमित्त से होने वाले आत्मा के भावों की तारतम्य रूप अवस्था विशेष को गुणस्थान कहते हैं ।'
अतः गुणस्थान जीवों के अन्तरंग परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार-चढ़ावों का दिग्दर्शन कराने वाले होते हैं । कोई जीव आत्मा के विकास के किस स्तर पर है, इसका ज्ञान गुणस्थान से होता है । जैसे-जैसे जीव के कर्मबन्ध के कारणों का विनाश होता जाता है, वैसे-वैसे जीव के स्वाभाविक गुणों में वृद्धि होती है । इस प्रकार गुणस्थान हमें आत्मिक गुणों के क्रमिक विकास का ज्ञान कराते हैं । गुणस्थानों के प्रकार
गुणस्थानों को आरोहण क्रम में चौदह श्रेणियों में विभाजित किया गया है ।"
ये हैं
(१) मिध्यादृष्टि, (२) सासादन - सम्यग् दृष्टि, (३) सम्यग् मिथ्यादृष्टि (मिश्र) (४) असंयत या अविरत - सम्यग् दृष्टि, (५) संयतासंयत (देश संयत), (६) प्रमत्त संयत (७) अप्रमत्त संयत, (८) अपूर्व करण, (९) अनिवृत्ति - बादर - साम्पराय, (१०) सूक्ष्म साम्पराय, (११) उपशांत कषाय वीतराग छद्मस्थ, (१२) क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ,
(१३) सयोग केवली तथा (१४) अयोग केवली ।
इनका संक्षिप्त परिचय परिशिष्ट (इसी अंक में पृष्ठ २१९-२२३) में दिया गया
है ।
खण्ड २३, अंक २
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