Book Title: Tulsi Prajna 1997 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 28
________________ तेरापंथ धर्मसंघ में प्राकृत भाषा के पठन-पाठन का संक्षिप्त इतिहास मुनि विमलकुमार आचार्य भिक्षु के जीवन का एक प्रसंग है । कोई विद्वान् उनके पास आया और पूछा- आप संस्कृत जानते हैं ? आचार्य भिक्षु ने कहा- नहीं। तब उसने कहाबिना संस्कृत को जाने आप आगमों का अर्थ कैसे समझ सकते हैं ? आचार्य भिक्षु ने कहा- हम मूल प्राकृत के आधार पर ही आगमों का अर्थ समझ लेते हैं । विद्वान् कहा- ऐसा संभव नहीं हो सकता है। बिना संस्कृत को जाने अर्थ समझना कठिन है । विद्वान् का अत्याग्रह देखकर आचार्य भिक्षु ने अपनी बात को समझाने की दृष्टि से पूछा -- ' कयरे मग्गमक्खाया' इस वाक्य का क्या अर्थ है ? विद्वान् को प्राकृत का ज्ञान नहीं था । उसने अपनी बुद्धि से अर्थ किया कयरे का अर्थ है केर, मग्ग का अर्थ है मूंग और मक्खाया का अर्थ है आखा ( अक्षत) | और आखा । आचार्य भिक्षु ने कहा- आगमों में इसका ऐसा अर्थ नहीं होता । इसका अर्थ है कितने मार्ग बताए हैं ? इस अर्थ को सुनकर विद्वान् समझ गया कि आगमों के अर्थ के लिए प्राकृत भाषा का ज्ञान जरूरी है । अतः इसका अर्थ हुआ केर, मूंग 1 इस घटना से स्पष्ट है कि तेरापंथ में प्राकृत भाषा का पठन-पाठन आचार्य भिक्षु के समय से ही हो रहा है । आचार्य भिक्षु से लेकर आचार्य महाप्रज्ञ तक यह परंपरा अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है । पूर्वाचार्यों का प्राकृत ज्ञान व्याकरण के आधार पर कम भी रहा हो तो भी उसके मूल के हार्द को पकड़ने में उनकी अर्हता सदा ऊर्ध्वमुखी रही । आचार्य भिक्षु ने अपनी कृतियों में आगमिक सन्दर्भों का भरपूर उपयोग किया है | आगम संदर्भों के कारण जहां उनकी प्रामाणिकता होती है वहां उनकी कृतियों में प्रौढ़ और परिपक्व प्राकृत भाषा ज्ञान की भी झलक मिलती है । तेरापंथ के द्वितीय आचार्य श्री भारमलजी के शासनकाल में मुनि जीवोजी ने ग्यारह अंगों पर पद्यबद्ध व्याख्याएं लिखीं । आचार्य भिक्षु के चतुर्थ उत्तराधिकारी जयाचार्य को मुनि अवस्था में मुनि हेमराजजी के पास रहने का अवसर मिला था । मुनि हेमराजजी एक आगम मर्मज्ञ, तत्ववेत्ता संत थे। उनके पास रहकर जयाचार्य ने आगमों के गूढ रहस्य को समझा था । इसलिए जयाचार्य का संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था । अपने प्राकृत ज्ञान के आधार पर ही उन्होंने अनेक खण्ड २३, अंक २ १८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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