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रसभेद--एक समीक्षात्मक अध्ययन
लज्जा पन्त
मम्मट ने नाट्य (दृश्यकाव्य) में आठ तथा श्रव्य काव्य में नौ रस माने
"शृङ्गारहास्यकरुणरौद्रवीर भयानकाः ।
बीभत्साद्भुतसंज्ञो चेत्यष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः ॥" तथा
"निर्वेदः स्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रसः।" परन्तु पण्डितराज जगन्नाथ ने श्रव्य एवं दृश्य दोनों काव्यों में नौ रस ही माने हैं। __इन रसों के स्थायी भाव हैं
"रतिसिश्च शोकश्च क्रोधोत्साही भयं तथा ।
जुगुप्सा विस्मयश्चेति स्थायिभावाः प्रकीर्तिताः ॥" उक्त के अतिरिक्त शान्त रस का स्थायीभाव निर्वेद पूर्व में ही वणित किया जा चुका है। व्यभिचारीभाव तैतीस हैं
"निर्वेदग्लानिशङ्काख्यास्तथाऽसूयामदश्रमाः । आलस्यं चैव दैन्यं च चिन्तामोहः स्मृतिधृतिः ॥ व्रीडा चपलता हर्ष आवेगो जडता तथा । गर्यो विषाद औत्सुक्यं निद्राऽपस्मार एव च ।। सुप्तं प्रबोधोऽमर्षश्चाप्यवहित्थमथोग्रता । मतिाधिस्तथोन्मादस्तथा मरणमेव च ॥ त्रासश्चैव वितर्कश्च विज्ञेया व्यभिचारिणः ।
त्रयस्त्रिशदमी भावाः समाख्यातास्तु नामतः ।।" अपुष्ट तथा अनुभयनिष्ठ रति भी व्यभिचारीभाव के भेद हैं । इनके लक्षण तथा उदाहरण पण्डितराज जगन्नाथ तथा शारदातनय ने 'भावप्रकाशन' नामक ग्रन्थ में दिये हैं। आचार्य भरत ने आठ सात्विक भाव माने हैं
"सत्वः स्वेदोऽथ रोमाञ्चः स्वरभङ्गोऽथ वेपथुः । वैवर्ण्यमथुप्रलयः इत्यष्टी सात्विकाः स्मृताः ॥"
खण्ड २३, अंक २
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