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किंतु नाटक में तो शांतरस कभी नहीं हो सकता क्योंकि इसका स्थायी भाव शम है । हो जाना । जब सभी व्यापार रुक
शम का स्वरूप है— सभी व्यापारों का विलय जायेंगे तो शम का अभिनय नहीं हो सकता ।
कुछ आचार्य 'नागानन्द' नाटक में शम को स्थायीभाव मानकर शांतरस का वर्णन करते हैं, परन्तु वहां जीमूतवाहन का मलयवती में अनुराग तथा विद्याधरों के चक्रवर्ती होने का वर्णन है जो अनुराग रूप होने से वैराग्य के विरुद्ध है । अतः 'नागानन्द' में 'दयावीर' नामक रस है । इसलिए "स्थायीभाव आठ ही हैं" ऐसा कहकर धनञ्जय एवं धनिक शांतरस का नाट्य में सर्वथा निषेध करते हैं जो लोग निर्वेद को स्थायीभाव मानते हैं वह निर्वेद भी स्थायीभाव नहीं हो सकता ।
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परन्तु आनन्दवर्धन ने अपने पादन श्रव्यकाव्य के लिए किया है तृष्णाक्षय से जो सुख होता है उसकी प्रतीति होती है
'दशरूपकम् - चतुर्थप्रकाश ) ध्वन्यालोकः (तृतीय उद्योत ) में शांतरस का प्रतिइनका कथन है
उसका परिपोष ही शांतरस कहलाता है तथा
" यच्च काम सुखं लोके यच्च दिव्यं महत् सुखम् । तृष्णाक्षय सुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम् ॥"
यदि कहा जाय कि शांत का अनुभव सबको नहीं हो सकता वह मात्र असाधारण महापुरुषों के ही बोध का विषय हो सकता है तो यह कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि किसी रस की सर्वजनवेदता नहीं है । यथा - शृङ्गार ही विरक्त पुरुषों के अनुभव का विषय नहीं बनता । अतः शांत रस है । कुछ विद्वानों के अनुसार यदि शांत का वीर रस में अन्तर्भाव कर दिया जाय तो भी यह उचित नहीं क्योंकि वीर रस में अभिमान होता है तथा शांत में अहंकार का प्रशमन भेद होने पर भी यदि वीर तथा शांत को एक माना जाय तो भिन्न-भिन्न रस मानने की क्या आवश्यकता । इसलिए श्रव्यकाल में शान्तरस होता है ।
शान्त रस का अभिनय नाट्य में न हो सकने के कारण नाट्य में आठ ही रस माने जाते हैं । काव्य में तो शान्त रस का सहृदयों को अनुभव हो सकता है । इस शान्तरस का स्थायीभाव निर्वेद है । धनञ्जय एवं धनिक शम को शान्तरस का स्थायीभाव मानते हैं ।
यथा---
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'शमप्रकर्षोनिर्वाच्यो मुदितादेस्तदात्मता ।'
रहता है । इतना वीर तथा रौद्र को
- ( दशरूपकम्, चतुर्थ परिच्छेद)
अर्थात् शान्तरस का स्थायीभाव शम है । यह शम दो प्रकार का होता है१. अविद्या परिहारेणात्मन: चिदानन्दोल्लासः ।
२. अविद्यावच्छिन्नस्यात्मनः स्थूलसूक्ष्मशरीरपरिहारेण स्वस्वरूपोल्लासः । मम्मट भी शान्तरस का प्रतिपादन श्रव्य काव्य में करते हैं ।
खण्ड २३, अंक २
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