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वस्तुतः ये रति के कार्य होने के कारण अनुभाव के अन्तर्गत आ जाते हैं । इसीलिए संभवत: मम्मट ने इनका पृथग् निर्देश नहीं किया ।
स्थायी भाव के विषय में शङ्का होती है कि रत्यादि चित्तवृत्ति विशेष हैं। चित्तवृत्ति स्थिर नहीं रह सकती तो इसे स्थायिभाव क्यों कहते हैं ? यदि इसे वासना रूप से स्थिर मानें तो व्यभिचारी भाव भी वासना रूप से स्थिर रहने के कारण स्थायीभाव कहलायेंगे | अतः सम्पूर्ण प्रबन्ध में स्थिर रहने के कारण रत्यादि को स्थायी कहा गया है । यद्यपि रत्यादि भी एक रूप से सदा स्थिर नहीं रहते तो भी इनकी पुन: पुन: अभिव्यक्ति होती है । इसीलिए इसे स्रक्सूत्रन्याय से स्थायी कहा गया है ।
इसका लक्षण है
"विरुद्धेरविरुद्वैर्वा, भावैविच्छिद्यते न यः । आत्मभावं नयत्याशु स स्थायी लवणाकरः ।। विरं चित्तेऽवतिष्ठन्ते, सम्बन्ध्यन्तेऽनुबन्धिभिः । रसत्वं ये प्रपद्यन्ते, प्रसिद्धाः स्थायिनोऽत्र ते ॥ ११२
व्यभिचारी भावों की पुन: पुन: अभिव्यक्ति नहीं होती वह तो विद्युत् के चमकने के समान चमक कर समाप्त हो जाती है ।
यथा - जल में बुद्बुद् ।
स्थायी भावों के लक्षण
स्थायि -
भावः ।
शोक - पुत्रादिवियोग - मरणादिजन्मा वैक्लव्याख्याश्चित्तवृत्तिविशेषः शोकः । क्रोध — गुरु बन्धुबधादि - परमापराधजन्मा प्रज्वलनाख्यः क्रोधः ।
रति -- स्त्रीपुंसयोरन्योन्यालम्बनः प्रेमाख्यश्चित्तवृत्तिविशेषो रतिः
उत्साह
- परपराक्रम - दानादिस्मृतिजन्मा औन्नत्याख्य उत्साहः । विस्मय - अलौकिक वस्तुदर्शनादिजन्मा विकासाख्यो विस्मयः । हास - वागङ्गादिविकारदर्शनजन्मा विकासाख्यो हासः ।
भय - व्याघ्रदर्शनादिजन्मा परमानर्थविषयको वैक्लव्याख्यः स भयम् । जुगुप्सा -- कदर्य वस्तु विलोकनजन्मा विचिकित्साख्यश्चित्तवृत्तिविशेषो जुगुप्सा ।
शान्तरस
शांतरस के विषय में आचार्यों में मतभेद हैं ।
कुछ विद्वान् शांतरस को नहीं मानते इस हेतु प्रमाण देते हैं कि आचार्य भरत ने न तो उसका लक्षण किया है तथा न ही उसके विभावादि का वर्णन किया है ।
कुछ के मतानुसार शांतरस वस्तुत: है ही नहीं क्योंकि जब से सृष्टि हुई उस (अनादि) काल से ही जीवों के हृदय राग-द्वेष से परिपूर्ण हैं, अतः जब तक उनका उच्छेदन नहीं होगा तब तक शांति का अनुभव होना असम्भव है ।
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कुछ विद्वान् शांतरस को पृथक् रस न मानकर उसका वीर अन्तर्भाव कर लेते हैं । ये लोग शम को भी नहीं मानते हैं ।
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अथवा वीभत्स रस अस्तु, जो भी मत हो
तुलसी प्रज्ञा
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