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तथा भागवत आदि पुराण श्रवण के समय भगवद् भक्तों द्वारा अनुभव किया जाता हुआ भक्ति रस जिसका भगवद् अनुराग रूप भक्ति स्थायी भाव है उसे रस क्यों नहीं माना गया ? यदि कहें कि यह शान्त के अंतर्गत आ जायेगा तो यह उचित नहीं क्योंकि भक्ति अनुराग रूप है। शान्त वैराग्य रूप है। वस्तुत: भक्ति देवादि विषयक रति है अतः स्थायी भाव न होकर भाव मात्र है। मम्मट ने भी कहा है
रतिर्देवा दिविषया व्यभिचारी तथाऽजितः ।। भाव: प्रोक्तः तदाभासा अनौचित्यप्रवत्तिताः ।।
-(काव्यप्रकाश, चतुर्थ उल्लास) प्रश्न यह होता है कि कामिनी विषयक रति को ही भाव क्यों न माना जाय तथा देवादि विषयक रति को ही स्थायी भाव क्यों न माना जाय ? इस विषय में भरत आदि मुनियों के वचन ही प्रमाण हैं। इस विषय पर हम अपना स्वतंत्र मत नहीं दे सकते अन्यथा पुत्र विषयक रति भी स्थायी भाव कहलाने लग जायेगी तथा मुनि द्वारा निर्दिष्ट रस की नौ संख्या के भङ्ग हो जाने से सम्पूर्ण सिद्धांत ही आकुल हो जायेगा । अतः भरत मुनियों ने जो शास्त्र में निर्दिष्ट किया वही मान लेना उचित है।
इस प्रकार विश्वनाथ द्वारा निर्दिष्ट वात्सल्य रस भी खण्डित हो गया, फलतः वह भाव मात्र ही है । भानुदेव द्वारा स्वीकृत 'रसमञ्जरी' में प्राप्त माया रस का भी निराकरण उक्त आधार पर हो गया।
वस्तुतः सनातन गोस्वामी, रूप गोस्वामी तथा जीव गोस्वामी ने 'भक्तिरसामृतसिन्धु' में, चैतन्य महाप्रभु ने 'भक्ति सुधा' में तथा स्वामी करपात्रीजी ने भी 'भक्ति रसार्णव' में भक्ति रस का निर्देश किया है, परन्तु भरतादि आचार्यों ने उसे भावकोटि में रखा है। इसका कारण यह है कि रस दो प्रकार का माना जाता है
१. प्राकृत २. अप्राकृत
अप्राकृत रस भक्ति है अत: इसमें प्राकृत व्यक्ति आलम्बन विभाव नहीं हो सकता । भरत आदि आचार्यों ने प्राकृत रस का निरूपण किया है, अत: इसमें प्राकृत जन ही आलम्बन होते हैं। इसमें भक्ति रस अप्राकृत होने के कारण नहीं आता इसलिए उसे भाव के अन्तर्गत निहित कर दिया गया है।
मम्मट ने शृङ्गार रस के दो भेद किये हैं१. संयोग (सम्भोग) श्रृंगार २. विप्रलम्भ शृंगार
संभोग का तात्पर्य प्रेमी तथा प्रेमिका का साथ-साथ रहना ही नहीं है । एक ही शय्या पर रहते हुए भी यदि ईर्ष्या इत्यादि से मान आ जाय तो वह विप्रलम्भ ही कहलायेगा। इसी प्रकार विप्रलम्भ का अर्थ भिन्न-भिन्न स्थान में रहना ही नहीं है । अतः जहां पर दोनों की चित्तवृत्ति 'संयुक्तोऽस्मि' ऐसी बने वहां संयोग तथा जहां पर 'वियुक्तोऽस्मि' इस प्रकार की चित्तवृत्ति बने वहां पर विप्रलम्भ होता है । वण २३, अंक २
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