________________
यथा
-
'निर्वेदस्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रसः ।
'अहो वा हारे वा कुसुमशयने वा दृषदि वा, मणौ वा लोष्ठे वा बलवति रिपौ वा सुहृदि वा । तृणे वा स्त्रैणे वा मम समदृशो यान्ति दिवसाः, क्वचित् पुण्यारण्ये शिव शिव शिवेति प्रलपतः ॥ ' अर्थात् सांप और मुक्ताहार में, फूलों की सेज और पत्थर की शिला में (समबुद्धि), मणि तथा ढेले में, बलवान् शत्रु तथा मित्र में, तिनके में अथवा स्त्रियों के समूह में समबुद्धि रखने वाले मेरे दिन किसी पवित्र तपोवन में शिव शिव शिव ऐसा प्रलाप करते हुए व्यतीत होते हैं ।
,
पण्डितराज जगन्नाथ तो अभिनय में भी शान्त रस मानते हैं । इस विषय पर उन्होंने स्वयं शङ्का की है -- शान्त रस का स्थायी भाव शम है । नट में वह असम्भव है | अतः नाट्य में आठ ही रस हैं ।
यह विचार बुद्धिगम्य नहीं होता क्योंकि यदि नट में शम नहीं है तो उसमें रति भी नहीं होती इसलिए नट में रस की अभिव्यक्ति भी नहीं होती । यदि वह शान्त रस का अभिनय नहीं कर सकता तो शृङ्गार का भी अभिनय नहीं कर सकता क्योंकि उसमें रति भी नहीं होती । इसलिए यह हेतु देना कि नट में शम नहीं अतः शान्त रस नहीं होगा उचित नहीं है । द्वितीय, शङ्का उत्पन्न होती है कि नाट्य में गानाबजाना होता है, यह राग रूप है तो वैराग्य रूप वहां शान्त कैसे रहेगा ?
उदाहरण
।
यह उक्ति भी उचित नहीं है, क्योंकि वैरागियों के समक्ष भी गीत वाद्यादि कार्य-कलाप होते ही हैं । सामान्य विषय शान्त का प्रतिबंधक नहीं है, अन्यथा तीर्थों में जाना, पुण्यारण्यों में भ्रमण करना इत्यादि भी तो विषय हैं, अतः वहां भी शान्ति नहीं प्राप्त हो सकेगी । अतः जो लोग नाट्य में आठ ही रस मानते हैं वे भ्रान्त हैं ।
वस्तुतः नट को अपने व्यक्तिगत जीवन में रति, अनुभव है । अतः वह उसका प्रकाशन अभिनय में परन्तु शान्त का अर्थात् शम एवं निर्वेद का उसे वह उसका यथार्थ अभिनय भी नहीं कर सकता । सम्भव नहीं ।
यदि कहें कि शिक्षा तथा अभ्यास से नट शान्त रस का भी अभिनय प्रकाशित कर देगा तो अनुभव के बिना उसमें कृत्रिमता ही रह जायेगी । यथार्थता न होने के कारण सहृदयों के हृदय में विक्षेप उत्पन्न होगा जिससे उन्हें शान्त रस का अनुभव नहीं हो सकेगा ।
हास,
यथार्थ
क्रोध,
शोक आदि का
रूप से कर सकता है ।
स्वप्न में
भी अनुभव नहीं है तो
अतः नाट्य में कथमपि शान्त रस
Jain Education International
प्रश्न होता है कि आठ अथवा नौ ही रस क्यों माने जाते हैं ? परमात्मा आलम्बन विभाव, रामाञ्च, अश्रुपात आदि अनुभाव, हर्षादि सञ्चारी भाव से पुष्ट
१९५
तुलसी प्रशा
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org