Book Title: Tulsi Prajna 1997 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 32
________________ (२) आचारांग भाष्य- ग्यारह अंगों में प्रथम स्थान है आचारांग का । यह आचार का प्रतिपादक सूत्र है इसलिए सब अंगों का सार माना गया है। नियुक्तिकार ने नियुक्ति गाथा १६ में स्वयं जिज्ञासा की - अंगाणं कि सारो ? अंगों का सार क्या ? और इसके उत्तर की भाषा में उन्होंने लिखा है - आयारो, अर्थात् अंगों का सार आचार है । आचारांग के उपलब्ध व्याख्या ग्रन्थों में नियुक्ति, टीका, दीपिका, अवचुरि, बालावबोध, पद्यानुवाद और वार्तिक आदि प्राप्त होते हैं । किन्तु किसी ने आचारांग पर भाष्य नहीं लिखा । गणाधिपति पूज्य गुरुदेव की हार्दिक इच्छा थी कि आचारांग पर भाष्य लिखा जाए। उन्होंने अपने उत्तराधिकारी आचार्य महाप्रज्ञ को आचारांग पर भाष्य लिखने की प्रेरणा दी। गुरुदेव की प्रेरणा पाकर आचार्य महाप्रज्ञ ने आचारांग पर भाष्य लिखा । यद्यपि अब तक लिखे गए दस भाष्यों की भाषा प्राकृत है तथा वे पद्यमय हैं । किन्तु आचार्य महाप्रज्ञ ने संस्कृत में आचारांग भाष्य की रचना की है । इसमें आचारांग के एक-एक सूत्र पर भाष्य लिखा गया है। इसमें अनेक शब्दों, पदों और सूत्रों का सर्वथा नया अर्थ किया गया है। वह अर्थ स्वकल्पित नहीं किन्तु सूत्रगत गहराई में पैठने की सूक्ष्म मेधा से प्राप्त है । आचारांग भाष्य में हिन्दी अनुवाद भी संलग्न है । अतः हर व्यक्ति इसे पढ़कर आचारांग की गहराई को समझ सकता है। इसमें ११ परिशिष्ट हैं । चूर्णि वृत्ति से हटकर (३) गाथा - यह एक संकलन ग्रन्थ है । इसमें विभिन्न आगम ग्रंथ तथा चूर्णियों द्वारा सामग्री संकलित की गई है । इसमें भगवान् महावीर के जीवन प्रसंग, प्रासंगिक घटनायें, उनके द्वारा कही हुई कथाए, दृष्टांत, रूपक आदि सरस और मधुर वृत्तों का समावेश किया गया है । इसलिए यह ग्रंथ केवल विद्वत्भोग्य ही नहीं अपितु यह जन साधारण के लिए उतना ही उपयोगी होगा, जितना एक विद्वान् के लिए। इसके दो खण्ड हैं । प्रथम खण्ड में अठारह अध्याय हैं । जैसे -- समत्व, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग् - चारित्र, ज्ञान प्रक्रिया समन्वय, सृष्टिवाद, कालचक्र, आदिमयुग और समाज परिवेश, धर्मसंघ, जिनशासन, धर्म, वीतराग साधना, विश्वशांति और निःशस्त्रीकरण, आत्मवाद, नयवाद, कर्मवाद, अनेकांतवाद । प्रत्येक विषय को सविस्तार तथा सरस ढंग से प्रस्तुत किया गया है । दूसरे खण्ड में भगवान् महावीर का जीवन है । इसका सम्पादन पूज्य गुरुदेव गणाधिपति श्री तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ के निर्देशन में साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा ने किया है तथा उनकी सहयोगी साध्वियां रही हैं- साध्वी जिनप्रभाजी और साध्वी निर्वाणश्रीजी । गाथा का हिन्दी अनुवाद भी संलग्न है । (४) पाइयसंग हो - यह भी एक संकलन ग्रन्थ है । इसका निर्वाण मुख्यतः विद्यार्थियों की दृष्टि से किया गया है । इस ग्रंथ में १७ पाठ है । वे सभी विभिन्न आगमों से संकलित किए गए हैं। इसमें विद्यार्थियों की सुगमता की दृष्टि से प्रचुर पादटिप्पण दिए गए हैं। खंड २३, अंक २ १८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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