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आगम-ग्रन्थों की पद्यमय जोड़ रची थी। जिनमें 'भगवती की जोड़' आचारांग की जोड़, निशीथ की जोड़, अनुयोगद्वार की जोड़, पनवणा की जोड़, संजया की जोड़, नियंठा की जोड़ प्रमुख है । इन सब में विशाल ग्रन्थ है भगवती की जोड़।
भगवती सूत्र का राजस्थानी भाषा में पद्यानुवाद कोई सरल कार्य नहीं है, पर जयाचार्य ने उसे जिस सहजता से संपादित किया है वह आश्चर्यजनक है । लगभग १६ हजार ग्रन्थान वाले भगवती सूत्र को उन्होंने साठ हजार पद्यों में विश्लेषित कर भगवती सूत्र के मूल प्रतिपाद्य को तो सुबोध बनाया ही, यत्र तत्र आलोच्य विषयों पर छोटी बड़ी समीक्षाएं लिखकर हर विषय को स्पष्ट और संगतिपूर्ण भी बना दिया। जिन तथ्यों के सम्बन्ध में वृत्तिकार के साथ उनकी सहमति नहीं थी, उसका उन्होंने स्पष्ट उल्लेख किया और असहमत पक्ष पर तर्क प्रस्तुत कर अपने मन्तव्य का प्रतिपादन किया है।
जयाचार्य के शासनकाल में मुनि गण प्राकृत भाषा में पद्यमय रचना भी करने लगे थे। मुनि कर्मचन्दजी की 'जयत्थुई' नामक लघु काव्यकृति इसकी साक्षी है। इस कृति में मात्र १६ गाथायें हैं किन्तु उसमें शब्द लालित्य, भाषासौष्ठव, अलंकार आदि का सम्यक् निदर्शन होता है। यहां दो गाथायें उद्धृत की जा रही हैं
परिसह वाक पुट्ठो मेरुव्व अप्पकंपओ। सुई वा जइ वा दुक्खं सहइ सम चेयसा ॥ सूरो व दित्त तेएणं ससीव सीयलो वि
महोदहीव गंभीरो कुत्तियावण सारिसो।। जयाचार्य के उत्तराधिकारी आचार्य मघवा भी प्राकृत भाषा के ज्ञाता थे। तेरापंथ के छ? आचार्य माणकगणी तथा सातवें आचार्य डालगणी के समय में अनेक मुनि आगम विज्ञ बनें । उनका आगम ज्ञान प्राकृत ज्ञान से ही संपुष्ट था।
अष्टमाचार्य कालूगणी स्वयं प्राकृत भाषा विशेषज्ञ थे। उन्होंने अपने उत्तराधिकारी आचार्य तुलसी तथा अन्य मुनिजनों को 'प्राकृतलक्षण' नामक प्राकृत व्याकरण का अध्ययन करवाया था। कालगणी की हार्दिक अधिलाषा थी-साधु-साध्वियों में शिक्षा का अत्यधिक प्रसार हो। उन्होंने अपने आचार्यकाल में इस दृष्टि से अत्यधिक श्रम किया। फलस्वरूप अनेक मुनि इस क्षेत्र में अग्रसर हुए।
कालूगणी के स्वर्गारोहण के बाद आचार्य तुलसी ने शासन भार संभाला। आचार्य तुलसी संस्कृत और प्राकृत दोनों के मर्मज्ञ थे । इनके शासनकाल में तेरापंथ धर्मसंघ में संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं का अध्ययन-अध्यापन पुरजोर गति से चला। साधु-साध्वियों के अध्ययन के लिए सप्तवर्षीय पाठ्यक्रम बनाया गया जिसके अंतिम तीन वर्षीय पाठ्यक्रम में प्राकृत भाषा का अध्ययन कराया जाता है। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी के उत्तराधिकारी आचार्य महाप्रज्ञ भी संस्कृत और प्राकृत के निष्णात विद्वान् हैं। आगमों के संपादन का संपूर्ण कार्य संस्कृत छाया एवं विस्तृत टिप्पण सहित उनके ही निर्देशन में हो रहा है।
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तुलसी प्रज्ञा
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