Book Title: Tulsi Prajna 1997 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 17
________________ राग-द्वेष की यह वृत्ति जब जीवन पर केन्द्रित हो तो अपने-पराये के भेद उत्पन्न कर सामाजिक संबंधों में दीवार खड़ी कर देती है। जिसके कारण सामाजिक जीवन में ऊंच-नीच की भावनाओं का निर्माण होता है। यह भावना हिंसा को जन्म देती है। ऐसी दुर्भावनाओं का नाश कर सामाजिक न्याय को परिवद्धित करने हेतु जैन-दर्शन में स्वस्थान के अनुसार कर्तव्य करना उचित माना गया है। प्रतिक्रमणसूत्र में प्रतिक्रमण की व्याख्या करते हुए बतलाया गया है कि यदि साधक प्रमादवश स्वस्थान के कर्तव्यों से च्युत होकर पर-स्थान के कर्तव्यों को अपना लेता है तो पुनः आलोचनापूर्वक पर-स्थान के आचरण को छोड़कर स्वस्थान के कर्तव्यों पर स्थित हो जाना ही प्रतिक्रमण है।" इस प्रकार सर्वप्रथम अपने देश, काल, स्वभाव और शक्ति के आधार पर स्व-स्थान का निश्चय कर उसी के अनुरूप कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। यह विचार गीता के "स्वधर्म" के समान प्रतीत होता है, जहां स्वधर्म में मरण को भी कल्याणकारक माना गया है। पाश्चात्य दार्शनिक ब्रेडले का "मेरा पद और उसके कर्तव्य' का सिद्धांत भी इसी के समकक्ष है। स्व-स्थान की यह अवधारणा वर्णाश्रम और पुरुषार्थ चतुष्टय का आधार है। स्व-स्थान ही अधिकार व कर्तव्यों का स्वामी बनाता है। त्रि-ऋण के रूप में नैतिक कर्तव्यों का वर्णन शतपथ ब्राह्मण में करते हुए कहा है कि मानव देव-ऋण, ऋषि-ऋण पितृ-ऋण से दबा होता है जो क्रमशः यज्ञ, विद्या और पुत्र उत्पन्न करने, समाज-सेवा आदि करने से उतरता है। भगवान् महावीर ने भी माता-पिता, स्वामी (पोषक) और धर्माचार्य का ऋण मानव पर बताया है, किन्तु इन तीनों ऋणों के चुकाने के उपाय में अन्तर है। यहां कहा गया है-यदि इन्हें शुद्ध धर्म साधना की ओर उन्मुख कर दिया जाय तो व्यक्ति इनके ऋणों से मुक्त हो सकता है। इन ऋणों से उऋण होना स्व-स्थान ही है । वस्तुतः जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्व-स्थान महत्त्वपूर्ण है। आर्थिक क्षेत्र में इसी स्वस्थान से च्युत हो जाना आर्थिक वैषम्य को जन्म देता है। जिसके मूल में संग्रह-वृत्ति ही अधिक है। अनेक वस्तुएं हमें प्राणमय जीवन के लिए आवश्यक प्रतीत होती हैं, यही आवश्यकता जब आसक्ति में बदल जाती है तो संग्रह की लालसा बढ़ती जाती है। इसी से सामाजिक जीवन में आर्थिक विषमता का बीज पड़ता है और गरीबी बढ़ती जाती है। असमान वितरण की इस खाई को पाट कर सामाजिक न्याय के आर्थिक पक्ष को सबल बनाने हेतु जैन-दर्शन अपरिग्रह रूपी मन्त्र हमें प्रदान करता है। जिसका सामान्य अर्थ है कि अपनी आवश्यकताओं को न्यूनतम करना एवं उससे अधिक का संचय नहीं करना । साम्यवादियों ने भी व्यक्तिगत परिग्रह को सामाजिक जीवन का अभिशाप माना है। जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित अपरिग्रह-सिद्धांत के मूल में अनासक्ति-प्रधान दृष्टि कार्य कर रही है। अनासक्ति की धारणा को व्यावहारिक रूप देने के लिए गृहस्थ जीवन में परिग्रह-मर्यादा और श्रमण जीवन में समग्र-परिग्रह के त्याग का निर्देश जैन मत में मिलता है। गृहस्थ और श्रमण जीवन में एक ही व्रत का भिन्न रूप सामाजिक न्याय के धार्मिक पक्ष को व्यावहारिक बनाता है । जैनाचार्यों मे विभिन्न व्रतों के पालन में जहां श्रमणों के लिए तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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