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अहिंसा, जैन दर्शन का धुरी सिद्धांत अथवा परममूल्य है। जैन विचारणा में अहिंसा हस्तिपाद की तरह है जिसमें सब कुछ समाहित हो जाता है । जिस प्रकार नदियां सागर में मिलती हैं उसी प्रकार भगवती अहिंसा में सभी धर्मों का समावेश होता है ।" बहिरंग में प्राणियों के इन्द्रिय, बल, आयु स्वासोच्छ्वास रूपी द्रव्य प्राणों को हिंसा से तथा अन्तरंग में राग-द्वेषादि रूप भाव-हिंसा से सर्वथा विरत रहना अहिंसा है । * प्राणी मात्र की रक्षा करना, उनके प्रति मन में भी दुर्भाव न रखना, वचन भी ऐसा कोई न बोलना जिससे किसी का मर्म आहत हो, यह कायिक, मानसिक और वाचिक अहिंसा कही जा सकती है । अनेकांतवाद वैचारिक अहिंसा है। अहिंसा का ही प्रत्यय संचय के संबंध में अपरिग्रह के रूप में उभरता है । अहिंसा का व्याबहारिक रूप अनाग्रह है । वर्णादि के आधार पर भेदभाव कर किसी को ठेस न पहुंचाना भी सामाजिक अहिंसा ही है ।
हमारे सामाजिक जीवन में वर्णाश्रम व्यवस्था एक क्रमबद्धता और नियमितता प्रदान करती है। जैन दर्शन में साधना - मार्ग का प्रवेश द्वार बिना किसी भेदभाव के सभी के लिए खुला है । उसमें धनी निर्धन, छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं है । आचारांग सूत्र में कहा है कि साधना मार्ग का उपदेश सभी के लिए समान है । जो उपदेश एक धनवान या उच्चकुल के व्यक्ति के लिए है, वही उपदेश गरीब या निम्नकुलोत्पन्न व्यक्ति के लिए है ।" जैनाचार्य इस कथन को स्वीकार नहीं करते हैं कि ब्राह्मणों की उत्पति ब्रह्मा मुख से, क्षत्रियों की बाहु से, वैश्यों की जांघ से तथा शूद्रों की पैरों से होती है । उनका तो का कहना है कि सभी मनुष्य, मनुष्य योनि में ही उत्पन्न होते हैं ।"
जन्म के आधार पर वर्णव्यवस्था भी जैन दर्शन को स्वीकार्य नहीं है । जन्म से तो सभी मनुष्य समान हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्टत: कहा गया है कि मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय होता है और कर्म से ही वैश्य व शूद्र होता है।' इसके साथ ही जैन विचारणा में वर्ण परिवर्तनीय है एवं श्रेष्ठत्व का आधार वर्ण या व्यवसाय नहीं है । लोक व्यवहार या आजीविका हेतु किये गये कार्य (व्यवसाय) के आधार पर किसी को श्रेष्ठ अथवा हीन नहीं माना जा सकता। इस प्रकार जैनदर्शन चारों वर्णों को स्वीकार करते हुए जन्मना - जातिवाद का निरसन करता है । जन्मना वर्ण- सिद्धांत निःसंदेह सामाजिक वैषम्य को जन्म देता है। स्मृतियों के काल से यह वर्ण-व्यवस्था जन्मना मान ली गई और आज भी इसी वजह से एक वर्ग दूसरे को हेय दृष्टि से देखता है। गीता में भी गुणकर्मविभागानुसार वर्णव्यवस्था स्वीकृत की गई है। यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो ने भी अपने ग्रन्थ Republic में वर्णव्यवस्था के इसी रूप को, कतिपय भिन्न शब्दों के साथ, स्वीकार करते हुए प्रवृतियों व व्यवसायों के आधार पर समाज को विभिन्न वर्गों में विभाजित किया है ।
वर्णव्यवस्था एक विकसित सामाजिक व्यवस्था है । समाजों में सामाजिक वर्गीकरण मिलता है किन्तु उसका कहीं भी मिलना दुर्लभ है जैसा कि भारतीय वर्णव्यवस्था में मिलता है । सामाजिक
विश्व के प्रायः सभी बड़े इतना व्यवस्थित रूप अन्य
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तुलसी प्रज्ञा
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