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अमितगति ने एक दिन रात के कायोत्सर्गों की सारी संख्या अट्ठाईस मानी है । २
(१) स्वाध्याय-काल में १२ (२) वन्दना काल में ६ (३) प्रतिक्रमण काल में ८ (४) योग शक्ति काल में २
आवश्यक निर्यक्ति" में इस प्रश्न पर चिन्तन किया गया है कि क्या बार-बार करने से पुनरुक्त दोष नहीं होता ? इसके समाधान में बताया गया है कि स्वाध्याय, ध्यान, तप, औषधि, उपदेश, स्तुतिपद, आज्ञा और संतों के गुण-कीर्तन में पुनरुक्त दोष नहीं होता। कायोत्सर्ग के योग्य दिशा और स्थान
भगवती आराधना" में बताया गया है कि पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके अथवा जिन प्रतिमा की तरफ मुख करके कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग सदा एकान्त और अबाधित स्थान में (जहां आवागमन न हो) करना चाहिए। मानसिक, वाचिक एवं कायिक कायोत्सर्ग
कायोत्सर्ग की एक भिन्न प्रक्रिया का उल्लेख भी मिलता है। इसमें शारीरिक, मानसिक व वाचिक कायोत्सर्ग की प्रक्रिया प्राप्त होती है ।
मानसिक कायोत्सर्गः शरीर में "यह मेरा है"--- इस भावना से अपने आपको निवृत्त करना, मानसिक कायोत्सर्ग है । इसके अन्तर्गत अन्यत्व भावना का प्रयोग किया जाता है.---"आत्मा---भिन्न है, शरीर भिन्न है ।''
अन्नं इमं सरीरं अन्नो जीवृत्ति एव कयबुद्धी ।
दुक्ख परिकिलेसकरं छिंद ममत्तं सरीराओ ॥१५६६।। शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है। इस प्रकार की बुद्धि का निर्माण कर तूं दुःख और क्लेशकारी शरीर के ममत्व का छेदन कर। वाचिक कायोत्सर्ग
"मैं काय का त्याग करता हूं" वचन से इस प्रकार कहना, वाचिक कायोत्सर्ग है। और अन्ततः वाचिक प्रवृत्ति को, भाषा के सूक्ष्म स्पन्दनों को विराम देना वाचिक कायोत्सर्ग है।" कायिक कायोत्सर्ग
___ दोनों हाथों को लटकाकर और दोनों पैरों के मध्य में चार अंगुल का अन्तर डालकर निश्चल खड़ा होकर कायिक कायोत्सर्ग किया जाता है ।
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तुलसी प्रज्ञा
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