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मुद्रा
कायोत्सर्ग खड़े, बैठे और सोते- इन तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है।" पर प्राचीन काल में खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करने का ही अधिक महत्त्व रहा है । आवश्क नियुक्ति में कहा गया है कि शारीरिक असामर्थ्य के कारण जब तक खड़ा रह सके, तब तक खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करे, तत्पश्चात् बैठकर कायोत्सर्ग करे, इसमें भी असमर्थ हो तो लेटकर कायोत्सर्ग करे । खड़े-खड़े कायोत्सर्ग की मुद्रा में भी स्थिरता को बहुत महत्त्व दिया गया है । आवश्यक नियुक्ति में कहा गया है. ---
निक्कूड़े सविसेसं वयाणुरूवं बलाणुरूवं च ।
खाणुव्व उद्देहो काउस्सग्गं तु ठाइज्जा ॥१५५३।। मुनि माया रहित होकर, विशेष रूप से अपनी अवस्था और बल के अनुरूप खड़े होकर स्थाणु की भांति निष्प्रकंप होकर कायोत्सर्ग करें। खड़े रहने की विधि - कायोत्सर्ग में दोनों पैरों के पंजों के बीच चार अंगुल का अन्तर, समणाद स्थिति, दोनों बाजू लटकते हुए शरीर का प्रत्येक अंग स्थिर-चंचलता रहित होने चाहिए।" कायोत्सर्ग : मुद्रा के दोष
शास्त्रों में कायोत्सर्ग के अनेक दोष बताये गये हैं। ये अधिकांशतः खड़े हुए मुद्रा से सम्बन्धित हैं। कायोत्सर्ग के दोष आवश्यक नियुक्ति और योग शास्त्र में २१ मूलाचार और धर्मामृत अनगार में ३२ भगवती आराधना विजयोदया" में १६ तथा प्रवचनरोद्वार में १९ बतलाये गये हैं। कायोत्सर्ग : सावधानियां
कायोत्सर्ग हेतु कुछ स्थानों का निषेध भी किया गया है। १. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को दकतीर (नदी के किनारे) पर कायोत्सर्ग कर
स्थित होना नहीं कल्पता है।८ २. निर्ग्रन्थों को निर्ग्रन्थियों के उपाश्रय में कायोत्सर्ग कर स्थित होना नहीं __ कल्पता है। ३. निर्ग्रन्थियों को निर्ग्रन्थों के उपाश्रय में कायोत्सर्ग कर स्थित होना नहीं
कल्पता है। ४. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को गुहस्थ के अन्त:गृह में कायोत्सर्ग कर स्थित
होना नहीं कल्पता है।" कायोत्सर्ग : आवत्ति
कायोत्सर्ग दिन-रात में कितनी बार करना चाहिए ? दसर्वकालिक सूत्र" के अनुसर मुनि को बार-बार कायोत्सर्ग करना चाहिए।
खण्ड २३, अंक २
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